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आंदोलन

2 मार्च को राजधानी दिल्ली में आदिवासी बचाओ संसद मार्च का आयोजन

Prema Negi
1 March 2019 5:20 PM GMT
2 मार्च को राजधानी दिल्ली में आदिवासी बचाओ संसद मार्च का आयोजन
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आदिवासी समुदाय किसी भी परिस्थिति में अपना घर जमीन और जंगल नहीं छोड़ने वाला है और वह सरकार के द्वारा रिव्यू पिटिशन के बाद आए सुप्रीम कोर्ट के स्टे ऑर्डर से भी संतुष्ट नहीं हैं...

जनज्वार। 13 फरवरी 2019 को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नामक नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाईजेशन एंड अदर्स वर्सेज पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार एंड अदर्स मामले में 21 राज्यों की सरकारों को आदेश दिया है कि अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 के अंतर्गत वन भूमि पर आदिवासियों और पारंपरिक वन निवासी समुदाय के जिन परिवारों के आवेदन निरस्त कर दिए गए हैं, उन्हें 12 जुलाई 2019 तक राज्य सरकारें वन भूमि से बेदखल करें।

हालाँकि सरकार इस फैसले के खिलाफ 13 जुलाई तक सुप्रीम कोर्ट से स्टे लेकर आ गयी है, लेकिन इससे आदिवासी विस्थापन की समस्या का हल नहीं हो रहा है और वह जस की तस बनी रहेगी। आदिवासियों का कहना है सरकार की मंशा पर भी हमें शक है क्योंकि उसने केस की पैरवी में बहुत लापरवाही बरती, कोर्ट की अंतिम चार सुनवाई में सरकार ने अपना पक्ष रखने के लिए कोई वकील नहीं भेजा। स्पष्ट रूप से यह नहीं पता चल रहा कि सरकार ये लापरवाही किसलिए कर रही थी।

कल 2 मार्च 2019 को जॉइंट आदिवासी युवा फोरम एवं भारतीय आदिवासी मंच द्वारा इसी मुद्दे पर 11 बजे से मंडी हाउस से पार्लियामेंट स्ट्रीट तक आदिवासी बचाओ संसद मार्च का आह्वान भी किया गया है।

भारतीय संविधान की अनुसूची पांच एवं छह अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के बारे में उपबंध करती है, वहीं अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, देश के विभिन्न हिस्सों में निवास कर रहे आदिवासियों और वन में निवास करने वाले परंपरागत समुदायों के प्रति आजादी से पूर्व एवं आजादी के पश्चात हुए अन्यायों को स्वीकार करते हुए जमीन पर मालिकाना अधिकार और वनों पर अधिकार को स्वीकार करता है।

वन अधिनियम 2006 साफ साफ कहता है कि वन भूमि में पीढ़ियों से रह रहे अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी के वन अधिकारों और कब्जे को पहचान किया जाये। इस तरह के जंगलों में आदिवासी पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं, लेकिन उनके अधिकारों को दर्ज नहीं किया जा सका, इसलिए उनके दावे की रिकॉर्डिंग के लिए एक रूपरेखा बनाई जाये और सबूत जुटाकर वन भूमि पर उनके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाये। सरकारों ने आज़ादी के बाद भी पुश्तैनी जमीनों पर जंगल के अधिकार और उनके आवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी थी।

औपनिवेशिक काल के दौरान और स्वतंत्र भारत में भी राज्य वनों के समेकन के परिणामस्वरूप जंगल में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ। वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नामक नॉन गवर्नमेंट आर्गेनाईजेशन जो इस केस में पार्टी है, जिनका तर्क है की आदिवासी उपस्थिति से पारिस्थितिकी तंत्र को हानि पहुंचेगी। हालाँकि 2006 का वन अधिकार अधिनियम ये स्पष्ट करता है कि वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के लिए आदिवासी अभिन्न अंग हैं। विकास के नाम पर विस्थापन की प्रक्रिया आदिवासियों को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रद्दत जीवन जीने के मूल अधिकार का उल्लंघन है।

2 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कैलाश एवं अन्य विरुद्ध भारत सरकार मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि "आदिवासी जो कि भारत की आबादी का लगभग 8% हिस्सा है जो भारत के मूल निवासी हैं और भारत के शेष 92% लोग बाहर से आए हुए लोगों के वंशज हैं।" इसलिए सुप्रीम कोर्ट का 13 फरवरी 2019 का आदेश इस मुल्क के मूल निवासियों को जंगल से बेदखल करने की साजिश है और जंगल आदिवासियों का जीवन है तो यह संविधान का अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है।

जंगल से बेदखली आदिवासियों को उनके पैतृक जमीन, जीवन शैली, परंपरा और उनके पुरखों से दूर करने की साजिश है सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यह बेदखली आदिवासियों के सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार का हनन है। यह बेदख़ली वन अधिकार अधिनियम 2006 और पेशा कानून 1996 का उल्लंघन है। पेसा (पंचायत एक्सटेंशन टू सेडुल एरिया) एक्ट 1996, ग्राम सभा को सर्वोच्च मानता है, न की ग्राम पंचायत को। लेकिन इस जजमेंट में पारम्परिक ग्राम सभाओं की अनदेखी की गयी है।

आदिवासियों ने भारत सरकार के सामने मांग रखी है कि

1. अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, को सख्ती से लागू किया जाए।

2. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पश्चात जिन परिवारों पर विस्थापन का संकट मंडरा रहा है केंद्र सरकार ने जमीन पर मालिकाना हक/पट्टा दिलाने के लिए अध्यादेश लाए।

3. आदिम समुदायों और जिन परिवारों ने अभी तक जमीन पर मालिकाना हक का दावा नहीं किया है सरकार उन्हें भी अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, के तहत मालिकाना हक और वन अधिकार प्रदान करें।

4. संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची को सख्ती से लागू किया जाए।

5. पारम्परिक ग्रामसभा के अनुसूची 5 के 13(3) (क), 244 (1) 19, (5 एंड 6) के तहत आदिवासियों एवं वन निवासियों को दिए गए अधिकारों को सुनिश्चित किया जाये।

जॉइंट आदिवासी युवा फोरम एवं भारतीय आदिवासी मंच का कहना है कि आदिवासी समुदाय किसी भी परिस्थिति में अपना घर जमीन और जंगल नहीं छोड़ने वाला है और वह सरकार के द्वारा रिव्यू पिटिशन के बाद आए सुप्रीम कोर्ट के स्टे ऑर्डर से भी संतुष्ट नहीं हैं। हम चाहते हैं कि इस मुद्दे पर सरकार एक अध्यादेश लाए और तुरंत आदिवासियों के हित में कार्यवाही की जाए, जिससे अगली बार जब सुनवाई हो तो सरकार आदिवासियों को उनके जल जंगल और जमीन से बेदखल न कर पाए। इससे भारत के विभाजन के पश्चात होने वाले सबसे बड़े आदिवासी विस्थापन और उनके जीवन पर गहरा रहे संकट को दूर करने में उनकी मदद होगी।

यूनाइटेड नेशंस का भी मानना है कि दुनिया और मानव जाति को बचाना है तो आदिवासी जीवन शैली को अपनाना होगा।

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