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विमर्श

पर्यावरण बचाने की नहीं, लूटने की छूट का नाम है पर्यावरण स्वीकृति

Prema Negi
23 April 2019 10:35 AM GMT
पर्यावरण बचाने की नहीं, लूटने की छूट का नाम है पर्यावरण स्वीकृति
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पूरे देश में जितनी भी बड़ी परियोजनाएं हैं उन सभी को नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए बिना किसी अध्ययन के ही पर्यावरण स्वीकृति मिल जाती है ​और फिर ​कभी नहीं देखा जाता कि परियोजना पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ कर भी रहा है या नहीं...

पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

उद्योगों और परियोजनाओं की पर्यावरण स्वीकृति केवल एक मजाक ही नहीं है बल्कि अपने देश में पर्यावरण के लूट का एक माध्यम भी है। मोदी सरकार में यह लूट-खसोट और बढ़ गयी है। इस सरकार ने अपनी तरफ से बहुत प्रयास कर लिए कि पर्यावरण स्वीकृति में केवल स्वीकृति पर ही ध्यान दिया जाए, पर्यावरण पर नहीं। यह सब तब हो रहा है जब देशभर की अदालतें अनेक परियोजनाओं के पर्यावरण स्वीकृति पर सरकार की भर्त्सना कर चुकी हैं। पर, फिर अगली पर्यावरण स्वीकृति बिना पर्यावरण पर ध्यान दिए स्वीकृत हो जाती है।

इसी वर्ष मार्च में सर्वोच्च न्यायालय ने गोवा के दूसरे हवाई अड्डे के पर्यावरण स्वीकृति पर रोक लगा दी थी और फिर से इसके पर्यावरणीय पहलुओं पर विचार करने को कहा था। पर, इसके बाद भी पर्यावरण को नष्ट करने वाले परियोजनाओं को स्वीकृति मिलती ही जा रही है। गंगा नदी के हिमालयी क्षेत्रों में भी हाइड्रोपावर परियोजनाओं के स्वीकृति में भी यही रवैया अपनाया जाता है।

अनेक पर्यावरणविद लम्बे समय से मांग करते रहे हैं कि गंगा के ऊपरी क्षेत्रों में पनबिजली परियोजनाओं की मंजूरी नहीं दी जाए और जिन पर काम चल रहा है उन पर भी रोक लगा दी जाए। पर, सरकार अपनी जिद पर अड़ी है, समय समय पर जनता को आश्वासन दिया जाता है कि अब कोई पनबिजली योजना स्वीकृत नहीं होगी, पर होता ठीक इसका उल्टा है।

वर्ष 2013 में जब केदारनाथ समेत उत्तराखंड के अनेक क्षेत्रों में अभूतपूर्व बारिश और बाढ़ ने तबाही मचाई थी, तब एक उम्मीद थी कि शायद अब पनबिजली परियोजनाएं नहीं लगेंगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जो परियोजनाएं बाढ़ से पूरी तरह नष्ट हो गयीं थीं उन्हें भी फिर से काम करने की छूट दे दी गयी।

अनेक परियोजनाएं जो निर्माणाधीन थीं उन्हें तीन वर्ष का एक्सटेंशन दे दिया गया और यह सारा खेल उस कमेटी का है जिसमें तथाकथित विशेषज्ञ पर्यावरण स्वीकृति में पर्यावरण के पहलुओं पर ध्यान दे रहे हैं।

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में स्थित सिंगोली-भटवारी पनबिजली परियोजना भी इनमें से एक है, जिसे निर्माण कार्य पूरा करने के लिए 31 मई, 2017 को तीन वर्ष का एक्सटेंशन दिया गया है।

एल&टी उत्तरांचल हाइड्रोपावर लिमिटेड के स्वामित्व वाली इस परियोजना ने निर्माण के लिए पांच वर्ष का अतिरिक्त समय माँगा था। इसका कारण बताया गया था कि 2013 की अभूतपूर्व बाढ़ के कारण परियोजना को बहुत नुकसान आया है।

पर्यावरण स्वीकृति के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की है, जो किसी परियोजना के पर्यावरण संबंधी मामलों पर ध्यान देती है। अधिकतर मामलों में यह कमेटी सभी पहलुओं को नजरअंदाज कर केवल स्वीकृति पर ही ध्यान देती है क्योंकि इससे कमेटी के सदस्यों की जेब भरती है। सिंगोली-भटवारी पनबिजली परियोजना को वर्ष 2007 में पर्यावरण स्वीकृति मिल गयी थी जिसकी अवधि 10 वर्ष थी।

जब 10 वर्ष में यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी, तब अतिरिक्त समय के लिए आवेदन प्रस्तुत किया गया। कारण बताया गया कि 2013 की अभूतपूर्व बाढ़ से इसे बहुत नुकसान हुआ है और चारों तरफ मलबा और पत्थर एकत्रित हो गया है और जो कुछ भी निर्माण कार्य किया गया था उसे बहुत क्षति पहुँची है।

इसका सीधा सा मतलब यह है कि वर्ष 2013 के बाद से हिमालयी क्षेत्रों के जलवायु से सम्बंधित आंकड़ें जैसे वर्षा, तापमान और पाने का बहाव, चट्टान खिसकने की दर इत्यादि बदल चुके हैं और इससे परियोजना की सुरक्षा के लिए भी बदलाव करने की आवश्यकता है। यदि, 2013 के बारिश के आंकड़े के आधार पर परियोजना का निर्माण कार्य किया जाता तो फिर तो इसे कोई नुकसान नहीं पहुंचता।

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि बिना किसी पर्यावरण या सुरक्षा के लिए नए अध्ययन का आदेश दिए कमेटी ने आनन-फानन में इस परियोजना को तीन वर्षों का एक्सटेंशन दे दिया। कमेटी तो एक्सपर्ट्स की थी, पर यदि आप एक्सपर्ट नहीं हैं और पर्यावरण नहीं जानते तब भी इतना तो समझ ही सकते हैं कि परियोजना के पास 2013 जैसी बाढ़ से निपटने की क्षमता और योजना नहीं है। ऐसे में यदि फिर ऐसी बाढ़ आ गयी तब क्या होगा?

वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टि से उचित यह होता कि परियोजना को कहा जाता कि 2013 के बारिश के आंकड़ों के आधार पर नए अध्ययन करने के बाद एक नयी प्रोजेक्ट रिपोर्ट प्रस्तुत की जाए, जिसमें नए सिरे से सुरक्षा उपायों और पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन किया जाए। और फिर इस नयी प्रोजेक्ट रिपोर्ट का बारीकी से अध्ययन कने के बाद ही कमेटी किसी नतीजे पर पहुँचती। पर, ऐसा कुछ भी नहीं किया गया।

31 मई, 2017 की मीटिंग के मिनट्स से कई और तथ्य उजागर होते हैं। कमेटी का गठन करने के बाद इसे भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि कमेटी के गठन में परिवर्तन यदि कोई होता है तब फिर से इसे राजपत्र में प्रकाशित करना होगा, पर ऐसा होता नहीं है।

इस दिन की मीटिंग में एक अधिसूचित सदस्य ने कमेटी छोड़ दी और 2 सदस्य बिना किसी अधिसूचना के इसमें शामिल कर लिए गए। डॉ शरद कुमार जैन की अध्यक्षता वाली इस कमेटी में अध्यक्ष समेत 8 सदस्य मौजूद थे, जबकि 7 सदस्य अनुपस्थित थे। इस कमेटी में यह भी उजागर हुआ कि परियोजना की कुल लागत 678.54 करोड़ रुपये थी, पर 2016 के अंत तक ही 950 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए थे।

पूरे देश में जितनी भी बड़ी परियोजनाएं हैं वे सभी नियम-कानूनों की ऐसे ही धज्जियां उड़ातीं हैं। वर्ष 2017 ने सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इन कमेटियों के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाये थे।

इसके अनुसार बिना किसी अध्ययन के ही पर्यावरण स्वीकृति मिल जाती है, पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया जाता और एक बार स्वीकृति मिलाने के बाद कभी भी यह नहीं देखा जाता कि परियोजना पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ कर भी रहा है या नहीं। अब जब सरकारी संस्थाएं सीएजी की रिपोर्ट पर भी ध्यान नहीं दे रहीं हैं तो हम और आप कितना भी हंगामा मचा लें, क्या हो जाएगा?

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