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समाज

गंगा की सफाई के लिए और कितने संतों की जान लेगी भाजपा सरकार

Prema Negi
3 May 2019 3:14 PM GMT
गंगा की सफाई के लिए और कितने संतों की जान लेगी भाजपा सरकार
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ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद 190 से ज्यादा दिनों से अनशन पर हैं और 5 मई, 2019 से जल त्यागने का निणर्य भी ले चुके हैं। 112 दिन तक आमरण अनशन पर रहे स्वामी सानंद की पिछले साल मौत हो गई, बाबा नागनाथ की 2014 में 114 दिनों के अनशन के बाद जान चली गई, 1998 में स्वामी निगमानंद के साथ गंगा में अवैध खनन के खिलाफ हुए पहले अनशन पर बैठे स्वामी गोकुलानंद की 2003 में नैनीताल में खनन माफिया ने हत्या करवा दी...

संदीप पांडे, वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता

हमारे देश में बलिदान की गौरवशाली परम्परा रही है। अनगिनत क्रांतिकारियों ने आजादी के आंदोलन में अपनी जान की बाजी लगाई। उनके बाद हम दूसरा एक सामूहिक प्रयास देख रहे हैं मातृ सदन, हरिद्वार के साधुओं का जो गंगा के संरक्षण के लिए अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं। अब तक इस आश्रम की ओर से 60 अनशन आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें स्वामी निगमानंद व स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद, जो पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल के रूप में जाने जाते थे, की जान क्रमशः 115 व 112 दिनों के अनशन के बाद 2011 व 2018 में चली गई।

अब ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद वर्तमान में 190 से ज्यादा दिनों से अनशन पर हैं और 5 मई, 2019 से जल त्यागने का निणर्य भी ले चुके हैं। बाबा नागनाथ की 2014 में 114 दिनों के अनशन के बाद जान चली गई व 1998 में स्वामी निगमानंद के साथ गंगा में अवैध खनन के खिलाफ हुए पहले अनशन पर बैठे स्वामी गोकुलानंद की 2003 में नैनीताल में खनन माफिया ने हत्या करवा दी।

सदन के प्रमुख स्वामी शिवानंद जो खुद भी अवैध खनन के खिलाफ अनशन पर बैठ चुके हैं, ने तय किया है कि जब तक सरकार प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की गंगा को अविरल व निर्मल बहने देने की मांग नहीं मान लेती, तब तक मातृ सदन का कोई न कोई साधु आमरण अनशन पर बैठेगा, जबकि मनमोहन सिंह सरकार ने प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल द्वारा पांच बार किए गए अनशनों में उनकी कुछ बातें मान ली थीं, वर्तमान सरकार ने तो पूरी तरह से साधुओं द्वारा किए जा रहे अनशन को नजरअंदाज करने का निर्णय लिया है।

यह दुखद है कि ज्यादातर वे लोग जिन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया, अपने लिए जनसमर्थन नहीं जुटा पाए। इसी वजह से अनशन के दौरान ही उनकी जान चली गई। हालांकि उन्होंने सामाजिक सरोकार वाले मुद्दे उठाए, लेकिन उनके पक्ष में बहुत कम लोग आए। महात्मा गांधी व अन्ना हजारे को छोड़ जिन्हें जनता का साथ मिला व जिनके अनशन का लोगों पर कुछ असर भी पड़ा ज्यादातर अनशन करने वाले लोगों को अत्यंत कमजोर समर्थन ही मिल पाया, बल्कि समाज ने उनके प्रति क्रूरता की हद तक संवेदनहीनता दर्शाई।

लेकिन इन अनशनों ने यह साबित किया कि जबकि चारों तरफ अंधेरा हो, लोग और संगठन अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए समझौते किए हुए हों, भ्रष्टाचार में डूबे हुए हों, ज्यादातर लोग या तो सत्ता के सामने नतमस्तक हों अथवा उससे डरते हों, तो ऐसे भी लोग होते हैं जो सामने आते हैं, किसी मुद्दे पर खुलकर भूमिका लेते हैं और उत्पीड़क सत्ता का डटकर मुकाबला करते हैं। ये समाज के लिए उम्मीद की किरण बनते हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत। ये अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक और सत्य, निष्ठा, सादगी व मानव हित में शाश्वत सिद्धांतों के वाहक बनते हैं।

जिन लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई वे समाज के सबसे बुद्धिमान, प्रतिबद्ध व मानवीय लोगों में से थे। उनका असमय जाना समाज का ही नुकसान था, लेकिन सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जबकि सरकार से तो कोई रहम की उम्मीद किसी को नहीं थी, व्यापक समाज ने भी इनकी जान बचाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। इसके लिए हम सब दोषी माने जाएंगे इसके बावजूद कि जिन महान आत्माओं ने अपनी जान दी उन्हें खुद अपनी जान जाने की कोई परवाह नहीं थी।

समाज उन्हें हमेशा उनके आदर्शों के लिए याद करेगा। ये शहीद आने वाली पीढ़ियों के आदर्शवादियों को प्रेरणा देते रहेंगे। उनकी संख्या शायद कभी इतनी नहीं होगी कि वे समाज को बेहतर बदलाव की ओर ले जा सकें, लेकिन वे हमारे जैसे कमतर मनुष्यों को यह याद दिलाते रहेंगे कि जीने के लिए कुछ ऊंचे आदर्श भी होते हैं।

हमें बड़े मानवीय समाज के निर्माण के उद्देश्य को भूलकर छोटी-छोटी चीजों में उलझकर नहीं रह जाना चाहिए, समाज विरोधी काम तो बिल्कुल ही नहीं करना चाहिए। यदि हम समाज के लिए कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो उसको नुकसान भी नहीं पहुंचाना चाहिए। शहीद होने वाली महान आत्माओं से हम कम से कम इतना तो सीख ही सकते हैं।

हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम ने जुनूनी युवाओं के एक ऐसे समूह को देखा है जो अपना जीवन न्योछावर करने को तैयार था। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, ठाकुर रोशन सिंह, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, शिवराम राजगुरु, सुखदेव थापर, जतीन्द्र नाथ दास ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने शहादत दी के नाम से देश का हर घर वाकिफ है। इनमें से अधिकांश को फांसी की सजा हुई।

चंद्रशेखर आजाद ने गिरफ्तारी से बचने के लिए खुद को गोली मार ली और जतीन्द्र नाथ दास लाहौर जेल में राजनीतिक कैदियों के लिए बेहतर सुविधाओं की मांग को लेकर 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद शहीद हुए, जहां भगत सिंह भी उनके साथ उपवास में शामिल हुए थे।

स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामुलू तेलुगु भाषा बोलने वालों के लिए अलग आन्ध्र राज्य की मांग को लेकर आजाद भारत में 58 दिनों के अनशन के बाद चेन्नई में, 1952 में, शहीद हो गए। हालांकि उनकी मांग को व्यापक जन समर्थन प्राप्त था, जिस वजह से जवाहरलाल नेहरू सरकार को उनके मरने के बाद उनकी बात माननी पड़ी, लेकिन पोट्टी श्रीरामुलू का अनशन करने का निर्णय व्यक्तिगत था।

जैन समुदाय की 13 वर्षीय अराधना समधरिया धार्मिक आस्था के कारण अपने माता-पिता की मर्जी से साध्वी बनने के विकल्प में 68 दिनों तक अनशन करने के बाद शहीद हो गई। उसके अनशन का कोई सामाजिक मकसद नहीं था, अतः यह व्यक्तिगत निर्णय से व्यक्तिगत उद्देश्य के लिए किया गया अनशन था।

में इरोम शर्मिला ने फौलादी इरादों का परिचय देते हुए 16 लम्बे वर्षों तक सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने की मांग को लेकर अनशन किया। अनशन पर जाने व उसे वापस लेने का उनका निर्णय व्यक्तिगत था। सौभाग्य से इतने लम्बे अनशन के बाद भी उनकी जान सुरक्षित रही।

भारत में तीन लाख से ऊपर किसानों ने निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद लिए हुए ऋण का भुगतान न कर पाने की स्थिति में आत्महत्या कर ली। हालांकि संख्या की दृष्टि से बलिदान देने वाले समूहों में यह सबसे बड़ा समूह है, किंतु आत्महत्या की वजह व्यक्तिगत थी व यह कोई संगठित कार्यवाही नहीं थी। ये आत्महत्याएं स्वतंत्र रूप से की गई थीं।

नक्सलवादियों व आतंकवादियों में अपने उद्देश्य के लिए जबरदस्त प्रतिबद्धता होती है और उसके लिए जान देने की भी उतनी ही गहरी तैयारी होती है, किंतु हिंसा का मार्ग चुनने के कारण समाज में उनकी स्वीकार्यता नहीं है।

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