चुनावी बॉन्ड्स पर सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को दिया तगड़ा झटका
बीजेपी को साल 2016-17 और 2017-18 में 997 करोड़ रुपये और 990 करोड़ रुपये दाम में मिले हैं। यह राशि कांग्रेस को इसी समय में मिले दान की राशि से 5 गुना ज्यादा है। चुनाव आयोग के वकील ने कहा है कि साल 2017-18 में बीजेपी को 520 इलेक्टॉरल बॉन्ड मिले, जिनकी कीमत 222 करोड़ रुपये है...
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
उच्चतम न्यायालय से मोदी सरकार को एक के बाद एक तगड़ा झटका मिल रहा है। इस बार झटका चुनावी बॉन्ड्स (इलेक्टोरल बॉन्ड) को लेकर उच्चतम न्यायालय ने दिया है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने कहा कि सभी राजनीतिक दल 15 मई तक मिलने वाली डोनेशन की जानकारी 30 मई तक चुनाव आयोग को सीलबंद लिफाफे में सौंपें।
पीठ ने कहा कि चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए यह जरूरी है कि चुनावी बॉन्ड्स के जरिए मिली डोनेशन का खुलासा किया जाए। मुख्य न्यायाधीश ने फैसला लिखते हुए कहा कि सभी राजनीतिक दलों को आज से लेकर 15 मई तक मिली डोनेशन की जानकारी आयोग को 30 मई तक सौंपनी होगी। इस डिटेल में उन्हें डोनेशन में मिली रकम का जिक्र करना होगा और उन खातों का ब्योरा भी देना होगा, जिनमें रकम ट्रांसफर की गई है। इससे पहले चुनाव तक हस्तक्षेप नहीं करने की केंद्र की याचिका को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
हालांकि चुनावी बॉन्ड्स पर मोदी सरकार ने कोर्ट में तर्क देते हुए कहा था कि भारतीय जनता पार्टी कहां से पैसा ला रही है, यह जानकर जनता क्या करेगी। मोदी सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने पक्ष रखते हुए कहा कि जनता को सिर्फ उम्मीदवार के बारे में जानने का हक है, उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि राजनीतिक चंदा कहां कहां से आ रहा है।
मगर उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि याचिकाकर्ताओं और उत्तरदाताओं द्वारा परस्पर विरोधी वजनदार दावे किये गये हैं, जो चुनावी प्रक्रिया पर जबरदस्त असर डालते हैं, इसलिए इस मामले पर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता होगी। उच्चतम न्यायालय उचित समय पर इसकी सुनवाई करेगा।
इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने वित्त मंत्रालय को अप्रैल-मई में चुनावी बांड खरीदने की खिड़की को 10 दिन से घटाकर पांच दिन करने का भी निर्देश दिया है। इससे पहले पीठ ने कहा कि इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
केंद्र सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान चुनावी बांड के मुद्दे पर कोर्ट आदेश न दें। उन्होंने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत चंदा देने वाले शख्स की पहचान इसलिए सार्वजनिक नहीं की जा सकती, क्योंकि दूसरी राजनीतिक पार्टियां जब सत्ता में आएंगी तो वो उस व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं। केंद्र ने भी कोर्ट से अनुरोध करते हुए याचिका दायर कर कहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। साथ ही कहा कि चुनावी प्रक्रिया जब पूरी कर ली जाए, तब इस पर फैसला सुनाया जाए। कोर्ट ने केंद्र सरकार की इस याचिका को खारिज कर दिया।
केंद्र सरकार की इस स्कीम के खिलाफ असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नाम के एनजीओ ने जनहित याचिका दाखिल की है। एनजीओ का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण रख रहे हैं। एनजीओ ने अपनी याचिका में इस स्कीम की वैधता को चुनौती देते हुए कहा था कि इस स्कीम पर रोक लगाई जानी चाहिए या फिर इसके तहत डोनर्स के नामों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। हालांकि एडीआर की इस दलील का विरोध करते हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि इस स्कीम का उद्देश्य चुनावों के दौरान ब्लैक मनी के इस्तेमाल को रोकना है।
इसके पहले उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई के समय टिप्पणी की थी कि अगर पारदर्शी पॉलिटिकल फंडिंग के लिए बनाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड्स को खरीदने वालों की पहचान ही गुप्त रहे, तब सरकार की चुनावों में काले धन को रोकने की सारी कवायद व्यर्थ हो जाएगी। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर दानदाताओं की पहचान ही न हो तो चुनाव में काले धन पर लगाम की केंद्र की सारी कोशिशें व्यर्थ हैं।
चुनाव आयोग ने भी इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी अज्ञात बैंकिंग व्यवस्था के जरिए राजनीतिक फंडिंग को लेकर संदेह जाहिर किए थे, लेकिन केंद्र सरकार ने इस दावे के साथ इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा। चुनाव आयोग का इस योजना का विरोध कोई नया नहीं है।
2017 में जब इस योजना का पंजीकरण किया गया था, तब भी तत्कालीन चुनाव आयुक्त नसीम जैदी के तहत चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय को एक हलफनामे कहा था कि योजना पीछे धकेलने वाली थी।
गौरतलब है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के खिलाफ चल रही सुनवाई के दौरान गुरुवार 11 अप्रैल को एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। पता चला कि इलेक्टोरल बॉन्ड से कौन सी पार्टी कितना चंदा ले रही है, ये चुनाव आयोग को बताने के लिए बाध्य नहीं है। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से ये भी पूछा कि था कि क्या इस बॉन्ड से कालेधन की समस्या और नहीं बढ़ेगी?
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के मुताबिक अब तक पार्टियों के लिए ये जरूरी था कि वो चुनाव आयोग को चंदे की पूरी जानकारी दें। इलेक्टोरल बॉन्ड लाते समय 2017 में इस कानून में संशोधन किया गया। संशोधन के बाद अब पार्टियां चुनाव आयोग को ये बताने के लिए तो बाध्य हैं कि कुल चंदा कितना मिला है, लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कितना चंदा मिला है, ये बताने के लिए बाध्य नहीं हैं।
क्या होते हैं इलेक्टोरल बॉन्ड?
ये एक प्रकार के प्रोमिसरी नोट हैं, यानी ये धारक को उतना पैसा देने का वादा करते हैं। ये बॉन्ड सिर्फ और सिर्फ राजनीतिकपार्टियां ही भुना सकती हैं। ये बॉन्ड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की राशि में ही खरीदा जा सकता है। ये इलेक्टोरल बॉन्ड कोई भी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से ले सकता है। ये बॉन्ड अकेले, समूह में, कंपनी या फर्म या हिंदू अनडिवाडेड फैमिली के नाम पर खरीदा जा सकता है।
ये बॉन्ड किसी भी राजनीतिक पार्टी को दिया जा सकता है। खरीदने के 15 दिनों के अंदर उस राजनीतिक पार्टी को उस बॉन्ड को भुनाना जरूरी होगा, वरना वो पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में चला जाएगा। चुनाव आयोग द्वारा रजिस्टर्ड पार्टियां जिन्होंने पिछले चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल किया है, वो ही इन इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा लेने की हकदार होती हैं। चुनाव आयोग ऐसी पार्टियों को एक वेरिफाइड अकाउंट खुलवाती है और इसी के जरिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकता है।
बीजेपी को मिली कांग्रेस से 5 गुना ज्यादा रकम
बीजेपी को साल 2016-17 और 2017-18 में 997 करोड़ रुपये और 990 करोड़ रुपये दाम में मिले हैं। यह राशि कांग्रेस को इसी समय में मिले दान की राशि से 5 गुना ज्यादा है। चुनाव आयोग के वकील ने कहा है कि साल 2017-18 में बीजेपी को 520 इलेक्टॉरल बॉन्ड मिले, जिनकी कीमत 222 करोड़ रुपये है, पार्टी ने इसमें से 511 इलेक्टॉरल बॉन्ड रिडीम किए, जिनकी कीमत 221 करोड़ रुपये है।