आज पुलवामा शहीदों के घर घर जाकर उनको पाकिस्तान से बदला लेने की बात बुलवाने वाला मीडिया कल को उनके घर जाकर ये नहीं पूछेगा कि शहीद की पत्नी को पेंशन मिल रही है कि नहीं। शहीद के बच्चे स्कूल जा रहे हैं कि नहीं। शहीद के मां बाप को खाना पानी दवाई मिल रही है कि नहीं...
सुशील मानव
जनज्वार। क्या निर्लज्जता है कि सरकार से सवाल पूछने के बजाय मीडिया दुःख और वेदना में डूबे शहीद जवानों के परिवार से सवाल पूछ रहा है। टीवी मीडिया के पत्रकार और कैमरामैन शहीद जवानों के ग़मजदा परिवार को घेर घेरकर उनकी जुबान से राष्ट्रवाद की जय बुलवा रहा है। मीडिया एक रोते पिता से पूछ रहा है, अपना बेटा खोकर आपको कैसा लग रहा है। अपने बेटे को खोने वाली एक मां से पूछ रहा है कि अपने बेटे की मौत के बदले आपको क्या चाहिए।
एक बीबी से पूछ रहा है कि अपनी पति के मौत के बदले उसे क्या चाहिए। मीडिया एक अबोध बच्ची से पूछ रहा है कि उसके पिता को किसने मारा। दरअसल मीडिया खून के बदले खून और जान के बदले जान की बात लोगों के दिमाग में मैनुपुलेट कर रहा है।
मीडिया हर बार की तरह हमला का बदला और प्रतिशोध को न्याय की तरह बताकर पेश कर रहा है। बकौल राजनीतिक विश्लेषकों के मीडिया ऐसा कर लोगों के मन में दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक की भूख जगाकर मौजूदा मोदी सरकारी की वापसी का रास्ता प्रशस्त करने में लगा हुआ है।
लोगों की सामूहिक चेतना और सामूहिक विवेक के परखच्चे उड़ाकर उन्हें उन्मादित करने के काम में लगा इलेक्ट्रानिक मीडिया आरडीएक्स से भी ज्यादा खतरनाक है। आखिर क्या वजह है कि पुलवामा की हर तस्वीर के साथ न्यूज चैनलों के बैकग्राउंड में भावनाओं और क्रोध को भड़काने वाले राष्ट्रभक्ति के गीत बजाए जा रहे हैं। विश्वसनीयता खो चुके इलेक्ट्रानिक मीडिया के न्यूज चैनल पुलवामा को एक टीआरपी बढ़ाने वाले अवसर के रूप में देख रहा है। अपने कारोबार को चमकाने के लिए भावनाओं को भड़काने में लगा हुआ है।
एंकर शब्दों की मिसाइल छोड़ रहे हैं। कौन ज्यादा तेज चीख चिल्ला सकता है जैसे लोगों का गला चेक कर करके स्टूडियों में बिठाया जा रहा है। फौज के सारे रिटायर्ड मुच्छड़ों की निकल पड़ी है। टीवी स्टूडियो में बैठकर वो जंग लगे तोप से पाकिस्तान को लानत भेज रहे हैं। पीएम द्वारा जवानों को फ्री हैंड देने को मीडिया पाकिस्तान की उलटी गिनती बताकर पेश कर रहा है।
आतंकियों ने तो पुलवामा में सिर्फ एक जगह धमाका किया, न्यूज चैनल पूरे देश में धमाके करने के खतरनाक मंसूबो के साथ खबरें दिखा रहा है। जंतर मंतर पर सारे टीवी कैमरे बजरंग दल और विहिप के उपद्रव को राष्ट्रभक्ति बताकर पेश कर रहा है। वो आरएसएस के ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसी अवधारणा को खड़ा करके ध्रुवीकरण करने के एजेंडे में लगा हुआ है।
आम लोग अपनी राष्ट्रभावना का इजहार कैसे करें, बाजार ने इसका ख्याल रखते हुए अविलंब ही राष्ट्रवादी कविता शायरी के उत्पाद लेकर हाजिर है। कई समाचार वेबपोर्टल वाट्सएप और फेसबुक ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए ‘शहीदों पर शायरी’ और ‘रोंगटे खड़ी करने वाली’ कविताएं मुहैया करवा रहे हैं।
आजतक, रिपब्लिक चैनल, जी न्यूज के एंकर आरपीएफ और सेना के कैंपों में पहुंचकर उनसे बदला लेने के लिए कह रहा है। कुमार विश्वास श्रीनगर के सीआरपीएफ कैंप में गाने से राष्ट्रवाद को हिंदुत्व से जोड़ते हुए गा रहे हैं, “होठों पर गंगा हो हाथों में तिरंगा हो / चाहे अजान न सुने कान पर, जय हिंदुस्तान सुनें”
इससे पहले कल रात को दिल्ली में शहीद जवानों का पार्थिव शरीर को श्रद्धांजली देने के पूरे कार्यक्रम को पूरी अश्लीलता के साथ एक राजनीतिक इवेंट में बदल दिया गया। इलेक्ट्रानिक मीडिया पूरी निर्ल्ज्जता से उसे लाइव दिखाता रहा। जो लोग कुछ घंटे पहले के एक कार्यक्रम में हँसते खिलखिलाते लहलहाते फोटो पोज दे रहे थे, वो कैमरे के कमाल से श्रद्धांजली कार्यक्रम में शोक संतप्त और ग़मज़दा दिखने लगे।
उरी के बाद पुलवामा क्यों हुआ? ये सवाल पूछने के बजाय मीडिया राफेल स्कैम पर सवाल पूछने वालों को कठघरे में खड़ा कर रहा है। सरकार से ये सवाल पूछने के बजाय कि कुल बजट का 13-14 प्रतिशत रक्षा बजट होने बावजूद सीआरपीएफ के जवानों बुको लेटप्रूफ और एंटी-माइन गाडियां क्यों नहीं उपलब्ध करवाई गईं।
सरकार से ये सवाल नहीं पूछ रहा कि सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी वाला मास्टरस्ट्रोक कहां गया। मीडिया सरकार से ये नहीं पूछ रहा कि इतने गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर आप मसकरी क्यों कर रहे हैं। हम आपसे ये नहीं जानना चाहते कि पाकिस्तान कटोरा लेकर घूम रहा है कि लोटा, आप ये बताइये कि आपकी सुरक्षा एंजेंसियां क्या कर रही थीं। क्या आपने उड़ी या पठानकोट की घटना के बाद किसी टीवी न्यूज चैनल और उनके एंकर को उनके घर जाते शहीद जवान के परिवार और बीबी बच्चों का हाल पूछते दिखाते हुए देखा है नहीं न?
आज पुलवामा शहीदों के घर घर जाकर उनको पाकिस्तान से बदला लेने की बात बुलवाने वाला मीडिया कल को उनके घर जाकर ये नहीं पूछेगा कि शहीद की पत्नी को पेंशन मिल रही है कि नहीं। शहीद के बच्चे स्कूल जा रहे हैं कि नहीं। शहीद के मां बाप को खाना पानी दवाई मिल रही है कि नहीं।
शहीदों की बिखरी लाशों की तस्वीरें और उनके ग़मजदा परिवार के आंसू को बेचने वाला कारपोरेट मीडिया अमानवीयता की हद तक असंवेदनशील हो चुका है।
विडंबना ही है कि सीआरपीएफ के वे जवान जो दिन रात अपनी जान हथेली पर लेकर आंतरिक सुरक्षा में जुटे हुए हैं, उन्हें सेना का दर्जा भी प्राप्त नहीं है। उनकी शहादत को राजकीय सम्मान तो मिल गया, लेकिन उन्हें पेंशन नहीं मिलती! जिन्हें मीडिया और पूरा देश शहीद कह रहा है, सीआरपीएफ के वे जवान आधिकारिक रूप से शहीद भी नहीं हैं। ये अर्द्धसैनिक पहले भी अपने पेंशन के अधिकार और सेना का बराबर सहूलियतें पाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। वन रैंक वन पेंशन के लिए आंदोलन करने वाले सैनिकों पूर्व सैनिकों पर जंतर मंतर पर लाठियां बरसाई गई थीं।
गौरतलनब है कि खाने को लेकर वीडियो वायरल करने के बाद बीएसएफ के जवान तेज बहादुर यादव को बर्खास्त कर दिया गया था, लेकिन इन जवानों के इन जैनुइन मुद्दों पर कारपोरेट मीडिया कभी नहीं बोला और न ही बोलने की कोई उम्मीद है।