कांग्रेस के लोगों को सोचना चाहिए कि आख़िर कब तक वे एक परिवार की दासता ढोते रहेंगे। कब उनका ध्यान किसी मुकुल वासनिक, अशोक गहलोत, सचिन पायलट, अमरिंदर सिंह या किसी अन्य तेजस्वी नेता पर जाएगा। बता रहे हैं वरिष्ठ संपादक त्रिभुवन...
कांग्रेस के पास कुछ अच्छे विकल्प थे, लेकिन इस पार्टी के नेताओं में आपसी डाह इतनी घनी है कि ये सोनिया, राहुल और प्रियंका से आगे कुछ नहीं सोच पाते। किसी प्रभावशाली नेतृत्व की तलाश में निकले कांग्रेस नेताओं का सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला इसी का एक जीवंत उदाहरण है।
उन्होंने जितने भी नामों पर विचार किया होगा, उनमें अपार संभावनाएं होने के बावजूद डाह के मारे पुराने नेताओं ने यही तर्क दिया होगा कि ये चेहरे बौने और अपर्याप्त हैं। ये निकम्मे और निरर्थक साबित होंगे। इसलिए चलो बुलावा आया है, बेटे की जगह अम्मा को बिठाया है!
दरअसल कांग्रेस में अच्छे नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी की आड़ और पछाड़ में जिनकी शवासनी राजनीति रसरस होती है, वे इस तरह का परिवर्तन कदापि न होने देंगे। ऐसा लगता है, देश की सबसे पुरानी होने का दावा करने वाली इस पार्टी में नेता हैं ही नहीं। बस मोहरे हैं, जिनका जैसा चाहो, वैसा इस्तेमाल करो।
आख़िर ये कैसे लोग हैं कि एक युवा पुत्र के नेतृत्व त्याग देने पर बूढ़ी और बीमार माँ के भीतर परिवर्तन देखते हैं। दरअसल इस पार्टी की हालत उस बहू जैसी है, जिसके कुठौड़ चोट लग गई और इकलौता वैद्य ससुर है! पहले तो ये पराजय के प्रकोप झेल रही है और दूसरे इस पर परिवारवाद के प्रहार हो रहे हैं।
कांग्रेस ने इस अम्मा के नेतृत्व में देश को जिस तरह का कुराज दिया, उसमें लोकतंत्र की मिट्टी ने 100 साल से लगातार लतियाई जा रही और लगभग हर प्रकार से अप्रासंगिक हो चुकी एक विचारधारा को शिरोधार्य कर डिमडिम घोष कर डाला। कांग्रेस ने सत्तर साल के शासन में ज़्यादातर कुराज ही किया और उसने इंदिरा जैसी एक बड़ी नेता को भी पैदा किया। आज नरेंद्र मोदी उसी इंदिरा के मेल मॉडल हैं और भाजपा किसी पुराने समय की कांग्रेस के अवतार में है।
लेकिन कांग्रेस के नेता युगबोध से कट चुके हैं और उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि अब गांधी-नेहरू परिवार के चमड़े के सिक्के चलाने वाला ज़माना लद चुका है और कांग्रेसी नेता अपने नेतृत्व चयन में जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, वह उन्हें हास्यास्पद बना रहा है।
हालांकि कांग्रेस की इस दुरवस्था पर कांग्रेसी कम और वामपंथी दलों से हड़काए हुए बुद्धिजीवी और दिल्ली की सत्ता का रसास्वादन करने नामी पत्रकार अधिक अश्रुविगलित नज़र आते हैं। लेकिन कांग्रेस कभी जिस आत्मा और चरित्र के कारण खड़ी होती थी, वह आज हरण हो चुके। उसके चुने हुए विदूषकों की अस्थियों से जिस वज्र का निर्माण किया गया था, वह तो अब कोई और ले उड़ा है!
अब कांग्रेस तो एक ही हो सकती है, सत्ता में रख लो या फिर विपक्ष में। अपनी पार्टी की मजबूती के लिए कश्मीर को तबाह करने हो या पंजाब को, विपक्ष की सरकार गिराकर अपनी बनानी हो या राममंदिर के कपाट खोलने हों, असम में नागरिकता रजिस्टर की शुरुआत करनी हो या फिर सत्ता के अहंकार में लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने वाले कानूनों का निर्माण हो, कांग्रेस के सत्ता संस्कारों को ही तो भाजपा आज जी रही है।
कांग्रेस के लोगों को सोचना चाहिए कि आख़िर कब तक वे एक परिवार की दासता ढोते रहेंगे। कब उनका ध्यान किसी मुकुल वासनिक, अशोक गहलोत, सचिन पायलट, अमरिंदर सिंह या किसी अन्य तेजस्वी नेता पर जाएगा? उसका कायाकल्प क्या सोनिया गांधी कर पाएंगी? क्या कांग्रेस के भीतर कभी क्षमतावान नेता पैदा ही नहीं होगा?
आखिर कब तक कांग्रेस कठपुतलियों का खेल खेलती रहेगी। अगर बेटा किसी पद से भाग रहा है और माँ उसे मंजूर कर रही है तो क्या ये सब रनिवासे के इशारे पर हो रहा था? कांग्रेस के नेताओं का व्यवहार ऐसा है, मानो वे एक मृत देह को नहला धुलाकर उसके अंगराग पूरे कर रहे हैं।
भाजपा, संघ और नरेंद्र मोदी ने जिस कांग्रेस को निष्प्राण कर दिया, कांग्रेसी अब उसे खूबसूरत ममी बनाकर रखना चाहते हैं! क्या ऐसे लोगों से आप देश में परिवर्तन की अपेक्षा रखेंगे, जो अपनी पार्टी के भीतर परिवर्तन के बजाय जड़ता का अभिषेक कर रहे हैं?