ऑर्गेनिक फ़ूड, बायोप्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन के रिश्ते को बता रहे हैं वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय
जनज्वार। ऑर्गेनिक फ़ूड, बायोप्लास्टिक और बायोफ्यूल को हमेशा पर्यावरण को बचाने वाले उत्पादों के तौर पर प्रचारित किया जाता है, और लगभग सभी देशों की सरकारें इन्हें प्रोत्साहित करने में लगी हैं।
ऑर्गेनिक फ़ूड से स्वास्थ्य के प्रभावों पर खूब चर्चा की जाती है, इसमें रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता। ऑर्गेनिक फ़ूड का बाजार भारत समेत पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ा है, ये अमीरों की प्लेट के शोभा बढ़ा रहे हैं और सामान्य खाद्य पदार्थों के मुकाबले बहुत महंगे हैं।
सामान्य पेट्रोल और डीजल से प्रदूषण की बढ़ती मार के बाद अब बायोफ्यूल में भविष्य देखा जा रहा है और प्रायोगिक तौर पर इसका उपयोग वाहनों के साथ-साथ वायुयानों में भी किया जा रहा है। हमारे देश में इसका उपयोग तो कम है पर प्रचार बहुत अधिक। प्लास्टिक कचरे से बेहाल दुनिया में बायोप्लास्टिक का उपयोग तेजी से बढ़ा है। कहा जा रहा है कि ये पर्यावरण में आसानी से नष्ट हो जाते हैं, इसलिए कचरे की समस्या नहीं होगी।
मगर हाल के अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि ये सभी उत्पाद जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि में सहायक हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि वर्तमान में दुनिया के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोन (जर्मनी) में किये गए एक अनुसंधान के अनुसार प्लास्टिक के उत्पादन और इसकी खपत के कारण दुनियाभर में प्रतिवर्ष 40 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस का वायुमंडल में उत्सर्जन होता है, जो सभी देशों द्वारा इस गैस के उत्सर्जन के सन्दर्भ में केवल अमेरिका और चीन से कम है। पूरी दुनिया में इस गैस का सबसे अधिक उत्सर्जन अमेरिका और चीन से होता है।
वर्ष 2050 तक दुनिया के कुल कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में से 15 प्रतिशत से अधिक प्लास्टिक के कारण ही होने का अनुमान है। प्लास्टिक को पेट्रोलियम पदार्थों से बनाया जाता है। इनके जलने पर कार्बन डाइऑक्साइड के साथ दूसरी गैसों का उत्सर्जन होता है जो तापमान वृद्धि में सहायक हैं।
बायोप्लास्टिक को मक्के, गेहूं और गन्ने से बनाया जाता है। इनके बारे में तर्क दिया जाता है कि फसलें वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को लेती हैं इसलिए ये इस गैस को कम करती हैं। पर जलने के बाद जब कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है, तब यह इस गैस की वायुमंडल में भरपाई कर देती हैं।
फसल के बढ़ने के दौरान जो कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित होती है, वह बायोप्लास्टिक के उपयोग के दौरान वायुमंडल में मिल जाती है, इसीलिए इन्हें कार्बन न्यूट्रल कहा जाता है, जिसका मतलब है ये वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता स्थिर रखती हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोन की वैज्ञानिक डॉ न्यूस एस्कोबार की अगुवाई में जर्नल ऑफ़ एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित लेख में बताया गया है कि जितने बड़े पैमाने पर प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा है, उस अनुपात में बायोप्लास्टिक के उपयोग से इसके लिए आवश्यक फसलों को लगाने का क्षेत्र बढ़ाने की जरूरत पड़ेगी, जिसमें जंगलों और पेड़ों को काटा जाएगा और भूमि को समतल किया जाएगा।
इस दौरान भारी मात्रा में भूमि पर अवशोषित कार्बन वायुमंडल में मिलेगा। इससे कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ़ेगी और साथ में तापमान वृद्धि भी। डॉ न्यूस एस्कोबार के अनुसार यदि कृषि अपशिस्ट का इस्तेमाल बायोप्लास्टिक के उत्पादन में किया जाए तब इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है। इस शोध पत्र के अनुसार बायोप्लास्टिक सागरों और महासागरों में आसानी से नष्ट नहीं होते और लगभग प्लास्टिक जैसी ही समस्या उत्पन्न करते हैं।
बायोफ्यूल के लिए भी यही तथ्य रखे गए हैं। एथेनोल का उत्पादन गेहूं, मक्का और गन्ने से किया जाता है, जबकि बायोडीजल के लिए पामआयल, रेपसीड और सोयाबीन का इस्तेमाल किया जा रहा है। पामआयल, रेपसीड और सोयाबीन के उत्पादन के कारण वर्तमान में भी इंडोनेशिया और ब्राज़ील में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। इसकी मांग बढ़ने के साथ-साथ और क्षेत्रों में यह समस्या खडी होगी।
नेचर में प्रकाशित एक लेख के अनुसार ऑर्गेनिक फ़ूड को भले ही स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अछे के तौर पर प्रचारित किया जा रहा हो, पर प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका नेचर के नवीनतम अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार इन खाद्य पदार्थों का तापमान वृद्धि पर असर परम्परागत खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक है।
स्टेफन वार्सेनियस, जो स्वीडन की चल्मेर्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्नोलॉजी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं, की अगुवाई में वैज्ञानिकों के दल ने बताया कि स्वीडन में ऑर्गेनिक गेहूं की पैदावार से परम्परागत गेहूं की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 70 प्रतिशत अधिक और ऑर्गेनिक मटर के उत्पादन में 50 प्रतिशत अधिक उत्सर्जन होता है।
स्टेफन वार्सेनियस के अनुसार ऑर्गेनिक फ़ूड की उत्पादकता कम होती है, इसलिए इसे अधिक क्षेत्र में उगाना पड़ता है। अधिक क्षेत्र को कृषि योग्य बनाने में बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है, जो तापमान वृद्धि में सहायक है। यही नहीं, ऑर्गेनिक दूध, मांस इत्यादि के साथ भी यही समस्या है, क्योंकि इसके लिए चारा ऑर्गेनिक तरीके से ही उपजाना पड़ता है।