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विमर्श

विवेकानंद ने पाखंडियों से किया था ऐलान, देवी-देवता पूजने की जगह 33 करोड़ भूखे-दरिद्र लोगों को पूजाघरों में कर दो स्थापित

Nirmal kant
12 Jan 2020 11:18 AM IST
विवेकानंद ने पाखंडियों से किया था ऐलान, देवी-देवता पूजने की जगह 33 करोड़ भूखे-दरिद्र लोगों को पूजाघरों में कर दो स्थापित
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विद्रोही प्रकृति के थे स्वामी विवेकानंद, उन्होंने दिया था यह विद्रोही बयान- 'इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए..

स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन 12 जनवरी युवा दिवस पर ज़ाहिद खान की टिप्पणी

स्वामी विवेकानंद देश के ऐसे युवा प्रतीक और सांस्कृतिक राजदूत थे जो सभी तरह की कुंठाओं और वर्जनाओं को त्याग कर पश्चिमी बुद्धिजीवियों को उनकी ही सरजमीं पर शास्त्रार्थ में हराया था। आधुनिक भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक जीवन की कई हस्तियां उनकी जिंदगी से किसी न किसी रूप में प्रभावित रही हैं।

सुभाषचंद्र बोस ने लिखा है कि 'स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था। नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति देशभक्ति जगाई उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उनके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की। एनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका पर विवेकानंद का असाधारण अधिकार था। वे ऋग्वेद से लेकर कालिदास तक भारत के अन्यतम ग्रन्थों के साथ पश्चिम विद्वानों को भी पढ़ा था। कांट, शोपेनहावर, मिल तथा स्पेन्सर जैसे विचारकों का उन्होंने खूब अध्ययन किया। 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे स्वामी विवेकानंद न सिर्फ अपने समय में बल्कि डेढ़ सौ साल बाद भी अपने क्रांतिकारी विचारों से नौजवानों के दिलो-दिमाग को उद्वेलित करते हैं।' वे कहते हैं 'किसी की भी कोई बात या सिद्धांत को तर्क और बहस-मुबाहिसे के जरिए परखे बिना नहीं मानना चाहिए।'

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'विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका कहना था कि 'मैं उस ईश्वर का उपासक हूं, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं।'

विवेकानंद स्वभाव से ही विद्रोही प्रकृति के थे। उनके बगावती तेवर अक्सर उनके भाषणों से झलकते थे। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि 'इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए।'

न्होंने अपनी किताबों और भाषणों में पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकांड और रूढ़ियों की जमकर आलोचना की और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ हल्ला बोला। उनका कहना था कि 'जब पड़ोसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं पाप है, जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घी डालना अमानुषिक कर्म है।'

विवेकानंद धार्मिक पंडावाद के खिलाफ थे और इस तरह की प्रवृतियों से उन्होंने हमेशा संघर्ष किया। उनका कहना था कि 'जिनके लिए धर्म एक व्यापार बन गया है, वे संकीर्ण हो जाते हैं। उनमें धार्मिक प्रतिस्पर्धा का विष पैदा हो जाता है और वे अपने स्वार्थ में अंधे होकर वैसे ही लड़ते हैं, जैसे व्यापारी अपने लाभ के लिये दांव पेंच लगाते हैं।'

स्वामी विवेकानंद न सिर्फ धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद के विरोधी थे, बल्कि साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को भी इंसानियत का बड़ा दुश्मन मानते थे। साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के बारे में उनके विचार थे 'साम्प्रदायिक हठधर्मिता और उसकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुंदर धरती पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही, उसको बार-बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है। सभ्यताओं को विध्वंस करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि वे वीभत्स और दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।'

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स्वामी विवेकानंद विश्वबंधुत्व के बेखौफ प्रवक्ता थे। उनके दिल में सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान था। धर्म उनकी नजरों में एक अलग ही मायने रखता था। उनका कहना था 'अगर कोई इसका ख्वाब देखता है कि सिर्फ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे, तो मैं अपने दिल की गहराईयों से उस पर तरस ही खा सकता हूं। जल्द ही सभी झंडों पर कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति।'

विवेकानंद को अपने भारतीय होने पर बेहद गर्व था। भारतीयों के गुणों का बखान करते हुए उन्होंने कहा था 'हम भारतीय केवल सहिष्णुही नहीं हैं। हम सभी धर्मों से स्वयं को एकाकार कर देते हैं। हम पारसियों की अग्नि को पूजते हैं। यहूदियों के सिनेगॉग में प्रार्थना करते हैं। मनुष्य की आत्मा की एकता के लिए तिल-तिलकर अपना शरीर सुखाने वाले महात्मा बुद्ध को हम नमन करते हैं। हम भगवान महावीर के रास्ते के पथिक हैं। हम ईसा की सलीब के सम्मुख झुकते हैं। हम हिन्दू देवी देवताओं के विश्वास में बहते हैं।'

स्वामी विवेकानंद ने देश के दो बड़े मजहब, हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच आपसी सहकार की बात करते हुए कहा था कि 'हमारी मातृभूमि, दो समाजों हिंदुओं और मुस्लिम की मिलन स्थली है। मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूँ कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से एक सही और अपराजेय भारत का आविर्भाव होगा, वेदांत का मस्तिष्क और इस्लाम का शरीर लेकर।' जातिवाद, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरुष की बराबरी, वैज्ञानिकता, सर्वधर्मसम्भाव सम्बन्धी विवेकानंद के विचार अधुनातन हैं। विवेकानंद ने परम्परावादी भारतीय बौद्धिकों से अलग हटकर पश्चिमी स्वस्थ मूल्यों की न केवल तारीफ की, बल्कि उन्हें अपनाए जाने का भी आग्रह किया।

कहते थे कि 'विज्ञान निरपेक्ष है। उससे भारत का भला ही हो सकता है, नुकसान नहीं।' भारतीय राष्ट्रवाद की नदी में बहते हुए विवेकानंद एक प्रतिधारा की तरह थे। उन्होंने प्रचलित, पारम्परिक और ऐतिहासिक विचारधाराओं के खिलाफ हमेशा संघर्ष किया। स्वामीजी ने अपने भाषण में एक बार कहा था कि - मैं समाजवादी हूं ! उनके विचार इस बात की तस्दीक भी करते हैं। विवेकानंद अस्पृश्यता जैसी घातक, अन्यायपूर्ण और अर्थहीन प्रथा के प्रति बेहद आक्रामक थे। उनके भाषण, लेख और पत्र इस समाज-विरोधी आचरण के खिलाफ लगातार आह्वान करते हैं। समाज की कुरीतियां, जिनमें जातिवाद प्रमुख है, हमेशा उनके निशाने पर रहा। स्वामी विवेकानंद, एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने देश में पिछड़ी जातियों यानी शूद्र राज की ऐतिहासिक भविष्यवाणी की थी।

वे कटाक्ष करते हैं कि 'वेदान्त के इस देश में जहां मनुष्य की नैसर्गिक आध्यात्मिकता और समानता का दर्शन ईजाद किया गया, वहां अस्पृश्यता की बीमारी एक सामाजिक लक्षण के रूप में अट्टहास करती रहती है।' वे विवेकानंद ही थे जिन्होंने 'रसोई धर्म' जैसा शब्द भी गढ़ा। अपनी बेलाग शैली में उन्होंने कहा था, 'तुम हिन्दुओं का कोई धर्म नहीं है। तुम्हारा ईश्वर रसोईघर में है। तुम्हारा सारा दर्शन रसोईघर में आ गया है। भारत का धर्म हो गया है 'मत छुओवाद', मौजूदा हिन्दुत्वपतन की पराकाष्ठा।' अस्पृश्यता की बीमारी के खिलाफ विवेकानंद का यह आक्रमण रस्मी नहीं था। अस्पृश्यता और जातिवाद के वे घोर विरोधी थे।

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लितों का जीवन ऊपर उठे यह उनकी प्रतिबद्धताओं में शामिल था। उन्होंने अपने भाषणों में बार-बार यह कहा है कि 'मत छुओवाद' एक तरह की मानसिक व्याधि है। विवेकानंद के मुताबिक 'एक संयमित मस्तिष्क ऐसी उपपत्तियां सामाजिक व्यवहार के लिए निर्मित नहीं कर सकता।' 4 जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानंद का महज 39 साल की छोटी सी उम्र में निधन हो गया। बेलूर मठ में ध्यानावस्था में ही उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। स्वामी विवेकानंद आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचारों में वर्तमान के कई ज्वलंत सवालों के जवाब ढूढे जा सकते हैं। जरूरत उन सवालों को सही ढंग से समझने की है।

सदी में जब भारतीय समाज अपेक्षाकृत ज्यादा मतांध, संकीर्ण और दकियानूस था, उस वक्त विवेकानंद ने जो कुछ भी कहा, वह हर लिहाज से क्रांतिकारी था। समाज की जरा सी भी परवाह न करते हुए वे अपने साहसिक और मौलिक विचार पूरी दुनिया के बीच बांटते रहे। वे देश के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारतीय परंपरा, दर्शन और संस्कृति को पश्चिमी देशों तक पहुंचाया। स्वामी विवेकानंद की किताबों का सम्यक अध्ययन करने से मालूम चलता है कि उनके विचारों में समकालीन शब्दार्थों से कहीं ज्यादा भविष्य के निहितार्थ छिपे हैं।

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