Begin typing your search above and press return to search.
राजनीति

लखनऊ में पत्रकारों की थाली छीने जाने का सच

Janjwar Team
22 July 2017 5:51 PM IST
लखनऊ में पत्रकारों की थाली छीने जाने का सच
x

गांव के एक टोले में सास—बहू के बीच थाली गिरने पर कहा—सुनी हुई, लेकिन यह कहा—सुनी दूसरे टोले में जाते—जाते यह बन गयी कि बहू ने सास के आगे से खाने की थाली छीन ली...

जनज्वार, लखनऊ। बाबा भारती और डाकू खड़ग सिंह की कहानी तो आपने पढ़ी ही होगी। भूली—बिसरी ही सही आपको याद भी होगी। कहानी दिलचस्प और दिल को छूने वाली थी। एक बाबा भारती थे। उनका घोड़ा सुल्तान था। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। बाबा भारती उसे 'सुल्तान' कहकर पुकारते।

घोड़े की चर्चा आस—पास के इलाकों में थी। खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। सुल्तान के चर्चे डाकू के कानों तक भी पहुंचे। उसका दिल घोड़ा देखने के लिए अधीर हो उठा। वो बाबा से मिला और घोड़ा मांगा। बाबा ने देने से मना कर दिया। डाकू ने घोड़ा हासिल करने के लिये अपाहिज का रूप धारण किया। घोड़े पर सैर को निकले बाबा ने अपाहिज को मदद के लिये घोड़े पर बिठाया। मौका मिलते उस अपाहिज ने घोड़ा छीन लिया। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था। बाबा भारती ने डाकू को पहचान लिया। पीछे से आवाज दी "ज़रा ठहर जाओ।"

खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया। बाबा ने पास जाकर कहा, "यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुम्हें इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।" खड़गसिंह बाबा की बात का आशय न समझ पाया। हारकर उसने कहा, "बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?" सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, "लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।"

अब इस लंबी—चौड़ी भूमिका और कहानी का लखनऊ की पत्रकारिता से क्या रिश्ता। असल में पिछले दिनों में लखनऊ के पत्रकारों और पत्रकारिता के साथ दो घटनाएं घटीं और उन घटनाओं को इस तरह से तोड़—मरोड़ कर, मिर्च—मसाला लगाकर पेश किया गया कि मानो इससे बड़ा संकट पत्रकारिता पर आया ही नहीं।

जबकि यह दोनों घटनाएं व्यक्तिगत किस्म के खुन्न्स और फायदे की हैं। लेकिन इन ये दोनों घटनाओं को जिस तरह से प्रचारित कर हाइप लेने की कोशिश हुई वह वर्तमान मीडिया का चरित्र, आचरण और मजावादी ब़ौद्धिकता को उजागर करती हैं।

पहली घटना एक सांध्य कालीन समाचार पत्र '4पीएम' के कार्यालय पर अज्ञात लोगों द्वारा हमले की है। हमले की खबर को स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया में ऐसे प्रसारित किया गया मानो वह उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता पर हमला है।

मामला थाने से शुरू हुआ और सूबे के मुख्य सचिव तक जा पहुंचा। सदन में भी इसकी गूंज सुनाई दी। साथी पत्रकारों ने भाईचारा निभाते हुये सोशल मीडिया से लेकर तमाम मंचों से इस घटना की कड़ी निंदा की। घटना को लेकर योगी सरकार की कार्यशैली और बिगड़ती कानून व्यवस्था पर मीडिया ने हमला बोला, कठोर शब्दों का प्रयोग किया आदि।

अखबार के मालिक—संपादक संजय शर्मा ने अपने पक्ष में सहानुभूति का माहौल बनता देख इस मौके को जमकर भुनाया। पत्रकार साथियों के साथ मंत्री, मुख्य सचिव, सचिव गृह, सचिव सूचना, डीजीपी, एसएसपी और तमाम अधिकारियों से मिलकर अपना दुखड़ा सुनाया। अपने सांध्यकालीन अखबार की अतिरिक्त प्रतियां छापकर जगह—जगह बंटवाई। लब्बोलुआब यह है कि सरकार बदलने के बाद से हाशिये पर गये इन मालिक—संपादक महोदय ने इस घटना को ख्याति बटोरने, मंत्री और आला अफसरों से लाइजनिंग करने और अखबार का प्रचार करने के तौर पर प्रयोग किया।

वो अलग बात है पूरे घटनाक्रम में यह जनाब किसी को यह नहीं बता सके कि वो कौन सी खबर थी जिससे नाराज होकर अज्ञात लोगों ने उनके कार्यालय पर हमला करवाया है।

हमले का सच
पुलिस जांच में जो घटना सामने आयी उसका पत्रकारिता से मीलों दूर का रिश्ता नहीं निकला। मामला अखबार कार्यालय के निकट एक कैफे से जुड़ा है, जो अखबार के मालिक संपादक के बिल्डर दोस्त का है।
घटना के दिन उसी कैफे के एक कर्मचारी की स्कूटी पर प्रिंटिंग प्रेस वाले बैठे थे। प्रिंटिंग प्रेस भी इन्हीं अखबार मालिक का है। कैफे कर्मचारी ने स्कूटी पर बैठने से ऐतराज किया तो प्रिंटिंग प्रेस वालों ने कैफे कर्मचारी को दो—चार लाफा दे दिया। चो‍टिल कर्मचारी ने फोन कर अपने दोस्तों को बुला लिया। इसके बाद मारपीट जम गयी। बचने के लिए प्रेसवाले प्रेस के भीतर भागे तो अंदर घुस कर पिटाई हो गयी। लेकिन ज्यादा नहीं। असल घटना इतनी ही है। '4पीएम' पर हुए हमले की पुलिस जांच में भी यही सामने आया है।

अब दूसरी घटना
इस समय बहुत चर्चा में है कि पत्रकारों के हाथ से यूपी विधानसभा में थाली छीन ली गयी और उन्हें धक्के मारकर बाहर निकाल दिया गया, जिससे सत्ताधारियों के समक्ष दोनों पैरों से विकलांग हो चुकी पत्रकारिता बेड पर आ गयी।

पर हुआ क्या यह जानना ज्यादा जरूरी है जिससे अंदाजा हो सके कि इस घटना में पत्रकारिता से क्या लेना—देना है।

परंपरा के अनुसार बजट खत्म होने के बाद हर मंत्रालय और विभाग पत्रकारों को भोजन कराता है। यह भोजन किसी सरकारी अनुबंध या वादे का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक पारंपरिक चाटुकारिता है। यह सिर्फ इसलिए कराई जाती है जिससे 'यजमानी' खाकर पत्रकार जारी बजट की आलोचना न करें, सबकुछ अच्छा—अच्छा बताएं। भोजन करने वालों में विधायक, मंत्री और उनके अधिकारी भी होते हैं।

उसी परंपरा के मुताबिक उस दिन भोजन कराने की बारी पीडब्लूडी विभाग की थी। सभी जानते हैं कि मंत्रालयों और विभागों में पीडब्लूडी सबसे खाऊ—कमाऊ और खर्चीला विभाग है। ऐसे में पत्रकार चहक कर पहुंचे। चहकर पहुंचने वालों की अगली पंक्ति में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कैमरामैन सबसे आगे थे, पीछे से कुछ और भी पहुंचे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आमतौर पर सदन में खाली रहती है क्योंकि उन्हें विधानसभा में जाने की अनुमति नहीं है। जब नेता—मंत्री बाहर आते हैं तब वह बाइट लेने की लिए मुस्तैद होते हैं।

जब इलेक्ट्रॉनिक के लोग भोजन पर पहुंचे तो वहां भीड़ थी। बाउंसरों ने मना किया, क्योंकि वहां एक बार में केवल 50—60 लोगों की कुर्सियों पर बैठने की व्यवस्था है और पहले से वहां नेता—विधायक और कुछ अन्य कर्मचारी बैठे हुए थे। कर्मचारियों ने कहा थोड़ी देर बाद आप लोग आ जाइए। पर पत्रकार चढ़ बैठे, अंदर घुस गए, कहने लगे खड़े—खड़े खा लेंगे, कुछ ने थाली उठा भी ली। कहासुनी बढ़ी, कुछ पत्रकारों के साथ धक्का—मुक्की हुई, कुछ खाते रहे और कुछ को बाउंसरों ने धकिया कर बाहर कर दिया। हालांकि इसके बाद करीब 200 पत्रकारों ने भोजन किया। वह विरोध करने वालों के साथ नहीं गये, वह सरकार की तारीफ में लिखने के बदले मिल रहे भोजन को क्यों छोड़ें?

ऐसा नहीं कि पत्रकारों के साथ पहली बार हुआ। पहले भी होता था पर तब बाउंसर नहीं थे और तब कर्मचारी पत्रकारों की शिकायत करते थे या बर्दाश्त कर लेते थे। अब योगी की नई व्यवस्था में मुश्किल हुई है क्योंकि नई सरकार में कोई नया ठेकेदार आया है और वह अपने साथ बाउंसर लाया है।

सवाल यह है कि मुफ्त के दाने के लिए टूट पड़ना, उन्हीं दानों की आस में पत्रकारिता को बेच खाना, फर्जी खबरें छापना, ईमानदार मीडिया को हाशिए पर डाल देना और चाटुकारिता के दाने एक शाम नहीं मिलने या बेइज्जत होने पर पत्रकारिता की बेइज्जती बता देना, कैसी पत्रकारिता है बंधु?

बहरहाल पत्रकारों के रोष के कुछ कारण और भी हैं। सबसे बड़ा कारण भगवा सरकार में सेटिंग नहीं हो पाना। भगवा के पास अपने सेटर हैं, वह समाजवादियों और बसपाइयों के सेटर पत्रकारों को आने नहीं दे रहे हैं या उनका पुराना इतिहास खोलकर अधिकारियों, मंत्रियों और पार्टी नुमाइंदों के सामने पेश कर दे रहे हैं, जिससे उनकी कमाई, ख्याति और जलवे में कमी आती जा रही है।

इसके अलावा नई सरकार नई डीएवीपी मानदंडों के तहत विज्ञापन बंद कर रही है, करीब 8 सौ पत्रकारों में से आधे की मान्यता निरस्त करने वाली है, क्योंकि इनकी पत्रकारिता केवल विज्ञापन लेते वक्त दिखती है, बाकि समय इनकी जेब में रहती है। साथ ही बड़ी संख्या में रोष में आए पत्रकारों में एक श्रेणी उनकी भी है जो अलग—अगल सरकारों से बना के रखने के कारण सरकारी आवासों में वर्षों से कब्जा जमाए पड़े हैं।

लखनऊ की पत्रकारिता आज डाकू खड़ग सिंह के स्तर पर उतर आयी है, जिसने आम आदमी के विश्वास, भरोसे, पत्रकारिता की सच्चाई, निष्पक्षता, नैतिकता, धर्म को लूटने और छीनने का काम किया है। डाकू तो संवेदनशील था। उसने रात को घोड़ा वापस बाबा के अस्तबल में बांध दिया, पर पत्रकार तो डकैत सरकारों को अर्दली बनने के लिए पत्रकारिता के हर उसूल को अरगनी पर टांगने को बेचैन है।

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध