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एबीवीपी के गुंडों को ललकारता रहा पत्रकार और टिका रहा बहस में
जिस मॉब लिंच के बारे में हम देखते-सुनते हैं, वह 16 दिसंबर की शाम दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में मेरे सामने खड़ा था...
अतुल चौरसिया, वरिष्ठ पत्रकार
भीड़ में घिरने का भय क्या होता है? जब आपसे देशभक्ति का प्रमाण मांगा जाए तो कैसा लगता है? जब आपको देश छोड़कर जाने के लिए कहा जाए तो कैसा महसूस होता है? जब आपके ऊपर राष्ट्रगान का अपमान करने का अनरगल आरोप थोपा जाए तो क्या अनुभूति होती है? पहले तो हंसी आती है, फिर झुंझलाहट होती है। यह झुंझलाहट धीरे-धीरे गुस्से में तब्दीसल हो जाती है। भीड़ के बीच अपने गुस्सेम की नपुंसकता का अचानक हुआ अहसास आपको भयाक्रान्त कर देता है। खुद को हिंसक भीड़ के बीच निस्ससहाय पाकर आप डर जाते हैं।
अपने तमाम समकालीन पत्रकारों, कलाकारों, फिल्मकारों के साथ इस तरह के हिंसक वाकये बीते 4-5 वर्षों के दौरान हम सिर्फ देख और सुनकर कर महसूस कर रहे थे। रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त जैसे अनगिनत पत्रकार, कलाकार, फिल्मकार दिन-ब-दिन शाब्दिक, शारीरिक हिंसा का शिकार हुए, जिसके हम सिर्फ गवाह बने रहे। हम देख और समझ रहे थे कि किस व्यवस्थित तरीके से भीड़ को उन्मादित करके उसे लोगों की जान लेने की हद तक उकसाया जा रहा था।
फिर इसी 16 दिसंबर यानी निर्भया की पुण्यतिथि के मौके पर अचानक से वो देखी और सुनी गई बातें निजी अनुभव में तब्दील हो गईं। उस दिन दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीए) में महिलाओं के सशक्तिकरण और आज़ादी के ऊपर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था।
महिलाओं के सशक्तिकरण और उनके साथ होने वाले अत्याचारों पर बात करने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा, मनोचिकित्सक सौम्या मुद्गल के साथ मंच पर एबीवीपी के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री श्रीनिवास भी मौजूद थे। अपनी बात रखते हुए श्रीनिवास ने कुछ ऐसा बातें कहीं जो महिलाओं की स्वतंत्रता, उनकी समानता के विचारों के बिल्कुल विपरीत खड़ी होती हैं।
मसलन एक मौके पर श्रीनिवास ने कहा, “एक शेरनी ही शेर को पैदा कर सकती है, एक लोमड़ी कभी नहीं कर सकती।” मंच पर मौजूद एक अन्य वक्ता ने उन्हें टोका- “शेरनी एक शेरनी को भी जन्म दे सकती है।” इस हस्तक्षेप पर श्रीनिवास लटपटाई जुबान से बोले- ‘मेरा मतलब वही था’।
इसके तुरंत बाद उन्होंने यह कहकर अपने मानसिक पिछड़ेपन और मर्दवादी संस्कारों का प्रदर्शन कर डाला, “आज महिलाओं को भी ध्यान देना होगा। वे ज़ीरो फिगर के चक्कर में ऐसी-ऐसी दवाइयां खाती हैं, जिससे उनके शरीर पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में माताएं एक स्वस्थ बच्चा तक पैदा नहीं कर सकती। एक शेर पैदा करने के लिए माताओं का स्वस्थ रहना जरूरी है। पाश्चात्य दबाव में महिलाएं क्या-क्या तरीके अपना रही हैं।” इस वाक्य पर मंच पर आसीन राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने हस्तक्षेप कर दिया।
बहरहाल, संबोधन खत्म हुआ तो अंतिम राउंड शुरू हुआ जो मंच पर बैठे वक्ताओं और दर्शकों के बीच सवाल-जवाब का राउंड था। मैंने दर्शकों के बीच से एक सवाल किया और साथ में श्रीनिवास की बातों से यह कहते हुए असहमति जताई- “जब आप कहते हैं कि महिलाएं जीरो फिगर के चक्कर में बच्चे नहीं पैदा कर पातीं तो कहीं न कहीं आप महिलाओं के ऊपर अपनी वही सोच थोपते हैं कि महिलाओं का काम तो बच्चे पैदा करना है जबकि ऐसी महिलाएं भी हो सकती हैं जो बच्चे पैदा नहीं करना चाहती हों या फिर जीरो फिगर रखना चाहती हों। यह उनकी पसंद पर छोड़ दिया जाना चाहिए।”
इस हस्तक्षेप पर श्रीनिवास की असहजता साफ दिखने लगी। वे मेरे सवाल के बीच में मंच से ही टोकाटाकी करने लगे। उनका कहना था कि वे सिर्फ महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता कर रहे थे।
कोई सामान्य समझ का व्यक्ति भी यह बात आसानी से भांप सकता है कि महिलाओं को सिर्फ बच्चा पैदा करने वाले के रूप में देखने की समझ या बच्चे के रूप में सिर्फ शेर की ही कल्पना (शेरनी की नहीं) पितृसत्तात्मक सोच से पैदा होती है। यह मर्दवाद का मूल खंभा है। एबीवीपी के रंगरूट इसे मातृशक्ति जैसी लच्छेदार भाषा में प्रकट करते हैं और श्रीनिवास उन्हीं रंगरूटों के मुखिया हैं।
कार्यक्रम आगे बढ़ा। राष्ट्रगान हुआ, सब अपनी जगह पर खड़े हुए, फिर समापन की घोषणा हो गई। मैं सभागार से बाहर निकला तो देखा कि श्रीनिवास 15-20 युवाओं से घिरे हुए थे। मैं कुछ मित्रों के साथ बातचीत करते हुए आगे बढ़ा ही था कि श्रीनिवास ने मुझे टोक दिया- “मित्र, आपने राष्ट्रगान का अपमान किया है। यह ठीक बात नहीं है।”
अचानक दागे गए इस आरोप से अवाक मैं श्रीनिवास से मुखातिब हुआ। खुद को एकाग्र करते हुए मैं जवाब देने के लिए तैयार होने लगा। मेरे दिमाग ने सलाह दी कि शायद ये हल्की-फुल्की बात है जिसे ज्यादा गंभीरता से नहीं बरतना चाहिए। मैंने मज़ाकिया लहजे में कहा- “सर, आप राष्ट्रगान के अपमान का आरोप नहीं लगा सकते। मैं अभी भी 52 सेकेंड के भीतर आपको राष्ट्रगान सुना सकता हूं, आपको 53 सेकेंड से ज्यादा लग सकते हैं पर मैं 52 सेकेंड की समयसीमा में पूरा करूंगा।” श्रीनिवास को इस मजाकिया जवाब की अपेक्षा नहीं थी। वह और झुंझला कर गुस्से में बोले- “मैंने देखा है। आपने राष्ट्रगान का अपमान किया है। मेरे पास सबूत है।”
मैंने कहा, “सबूत? कैसा सबूत?” उन्होंने कहा- “आपने राष्ट्रगान के दौरान हाथ पीछे किया था। मैंने फोटो खींचा है।” मैंने अभी भी इस मामले को हल्के फुल्के अंदाज में ही टालने की कोशिश की क्योंकि न तो मैंने राष्ट्रगान का अपमान किया था, न ही मैं ऐसा सोच सकता हूं, न ऐसा करने की मेरे पास कोई वजह थी।
मैंने फिर कहा- “जब मैं हाथ पीछे करके राष्ट्रगान गा रहा था तब आप मेरी फोटो खींच रहे थे। यानी आप भी राष्ट्रगान का अपमान ही कर रहे थे। अगर मुझसे ऐसा हुआ भी होगा तो वह अनजाने में हुआ होगा। राष्ट्रगान का अपमान करने की मेरी कोई मंशा नहीं थी।” इस मजाकिया जवाब से श्रीनिवास और तिलमिला कर बोले- “मैंने फोटोग्राफर से खिंचवाया है। हम राष्ट्रगान का अपमान नहीं सह सकते। तुम अगर सम्मान नहीं कर सकते तो देश छोड़कर चले जाओ।”
इस दौरान कई और स्वर कोरस में समवेत उठने लगे थे। वे मुझे चुप रहने, औकात में रहने, वहां से भाग जाने को कह रहे थे।
अब मुझे अहसास हुआ कि जो युवा श्रीनिवास को घेरे हुए खड़े थे, वे असल में एबीवीपी के कार्यकर्ता थे और मेरे पलटकर दिए गए जवाबों से लगातार नाराज होते जा रहे थे। इस बार मैंने गंभीर स्वर में जवाब दिया, “आप मुझे देशभक्ति का पाठ मत पढ़ाइए। मुझे अच्छे से पता है राष्ट्रगान का सम्मान कैसे किया जाता है। मुझे आपसे सीखने की जरूरत नहीं है।”
इस कटु जवाब ने अपने कार्यकर्ताओं और चाटुकारों से घिरे श्रनिवास को और तिलमिला दिया। अपने लोगों के बीच अपनी बात कटती देख वह लगातार असहज होते जा रहे थे और साथ ही वह जिन लड़कों के बीच घिरे थे उन्हें यह अहसास भी नहीं होने देना चाहते थे कि उनका नेता किसी के सामने कमजोर पड़ गया या कोई उसकी खिल्ली उड़ा गया।
वह तत्काल ‘आप’ से ‘तू’ पर आ गया- “तू किसे दिखाना चाहता है। मेरे पास सबूत है। मैं राष्ट्रगान के अपमान के आरोप में कंप्लेन कर सकता हूं।” मुझे भी गुस्सा आ रहा था। मैंने कहा, “तो आप शिकायत कर दीजिए। जो सजा होगी मैं भुगत लूंगा।”
इस जवाब ने श्रीनिवास और उसके साथ मौजूद भीड़ को लगभग भेड़िया ही बना दिया। भीड़ से कई लोग मेरी तरफ लपके। एक बोला- “जबान संभाल कर बात कर”। यहां पर आयोजकों ने हस्तक्षेप किया, जिनमें मेरे मित्र और सीनियर थे और जिनके भरोसे के कारण ही शायद मैं उस उग्र भीड़ के सामने टिके रहने का साहस भी कर पाया था। उन लोगों ने बीच-बचाव किया।
शिकायत की धमकी भी कारगर नहीं होते देख अचानक से ही श्रीनिवास फिर से चिल्लाया- “मुझे किसी से शिकायत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं तुझे अभी सिखा दूंगा। एक मां-बाप की औलाद है तो...’’
इसके आगे की बात सुनाई नहीं दी क्योंकि भीड़ का कोलाहल बहुत बढ़ गया था। चमचों की हुआं-हुआं भी बढ़ गई थी। यह बात तय थी कि उसने मां-बाप को केंद्रित करके कोई गाली दी है। इस पर पलटकर मैंने भी गुस्से में कहा- “तू बकवास मत कर। जो करना जा कर ले।” अचानक से कई हाथ मेरी तरफ लपके। सबकी जुबान पर अबे, तबे, साले आदि शब्द थे।
जो व्यक्ति 10 मिनट पहले मंच पर महिलाओं के सम्मान और आज़ादी का ढिंढोरा पीट रहा था वही श्रीनिवास अब मेरी मां के बारे में उल्टी-सीधी बातें कर रहा था। वो महिलाएं और लड़कियां भी वहीं मौजूद थीं जिनके बीच महिला सम्मान का यह समस्त स्वांग रचा गया था।
एक बार फिर से आयोजकों ने हस्तक्षेप किया। एक ने श्रीनिवास को मुझसे दूर किया, दो अन्य युवकों ने मुझे वहां से हर हाल में जाने के लिए बोला। मैं थोड़ा डर हुआ था क्योंकि मेरे सामने एक ऐसे संगठन का राष्ट्रीय पदाधिकारी खड़ा था जिसकी छवि ही हिंसक और गुंडागर्दी वाली है। बावजूद इसके एक बार फिर से मैंने खड़ा होने का निर्णय लिया। मैंने पूरे स्थिरचित्त के साथ कहा- “मैं कहीं नहीं जाऊंगा। मैं यहीं रहूंगा। किसी को ये भ्रम नहीं होना चाहिए कि गुंडई करके किस को अपनी बात कहने से रोक देगा या उसे भागने के लिए मजबूर कर देगा।”
मेरे मित्र और कार्यक्रम के आयोजकों के लिए यह असहज करने वाली स्थिति थी। इसका मुझे खेद है। अंतत: मैं सिर्फ एक आमंत्रित श्रोता था जबकि श्रीनिवास उनका सम्मानित वक्ता था। फिर भी मैं वहीं खड़ा हो गया। एक मिनट, पांच मिनट, दस मिनट, 15 मिनट मैं वहां अकेले खड़ा रहा। श्रीनिवास और उसके चेले दूर से देखते रहे फिर धीरे-धीरे तितर-बितर हो गए। 15 मिनट बाद मुझे लगा कि मेरे मन का डर खत्म हो गया है। मैंने अपनी बात साबित कर दी है। मैंने उनकी दबंगई के सामने झुकने या भागने से इनकार कर दिया और उसमें सफल भी रहा। फिर मैं वहां से मुड़ा, सबके बीच से होता हुआ आईजीएनसीए से वापस अपने घर की तरफ चल पड़ा।
रास्ते भर दिमाग में मथनी चल रही थी। भांति-भांति के विचार आकार लेते और लुप्त हो जाते। एक बार को मन में आया कि क्या मैंने सच में राष्ट्रगान का अपमान किया है। अगले ही पल दिमाग में आया कि अगर ऐसा हुआ भी होगा तो अनजाने में ही हुआ है। तो कानून में अनजाने में हुए कृत्य के लिए किस तरह की सजा का प्रावधान है।
फिर मन में आया कि क्या कानून में ऐसे लोगों के लिए भी सजा का कोई प्रावधान है जो राष्ट्रगान के दौरान राष्ट्रगान में ध्यान न लगाकर सिर्फ दूसरों की निगरानी में लगे रहते हैं, फोटो खींचते-खिंचवाते और अनायास के झगड़े खोजते फिरते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति से राष्ट्रगान के सम्मान की अपेक्षा भी की जा सकती है जिसका खुद का ध्यान राष्ट्रगान के इतर गतिविधियों में लगा हो। क्या श्रीनिवास को मंच पर मेरे द्वारा जताई गई असहमति का रंज था, जिसका बदला वह राष्ट्रगान की आड़ में निकाल रहा था?
फिर मेरे मन में आया कि मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की जो वहां 15 मिनट तक खड़ा रहा। उन उग्र हिंसक क्षणों में कुछ भी हो सकता था। यह सिर्फ जिद नहीं बल्कि बचकानापन भी था। फिर एक विज्ञापन की एक मानीखेज लाइन याद आ गई- ‘डर के आगे जीत है’।
(पहले यह रिपोर्ट न्यूज लांड्री पर प्रकाशित।)