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समय में तेजी से आ रहे बदलाव व लगातार हो रहे सांस्कृतिक अतिक्रमण का असर पहाड़ की लोक परम्पराओं पर भी दिखने लगा है। आधुनिकता की हवा ने हमारी परम्पराओं पर असर दिखाना शुरू कर दिया है...
हल्द्वानी से हरीश रावत और त्रिलोक चन्द्रा
तीज, त्यौहार व कौतिक पहाड़ की वे समृद्ध परम्पराएं रही हैं, जो सदियों से हमें अपनी जड़ों से जोड़े रही हैं। वैसे भी इतिहास गवाह है कि जो कौमें अपने संस्कृति को संजोये व सहेजे रहीं, वही इतिहास में कालजयी बनी रही।
यूं तो कुमाऊं की संस्कृति अपने आप में वैभवशाली रही है। लेकिन लगातार हो रहे सांस्कृतिक अतिक्रमण की आबोहवा से कुमाऊं की लोक संस्कृति भी अछूती नहींं रही है। ऐसे ही दीपावली के तीन दिन बाद मनाये जाने वाले भैयादूज त्यौहार की बात करें तो भैयादूज का त्यौहार कुमाऊं की लोक संस्कृति का हिस्सा ही नहींं है।
करीब तीन दशक पूर्व कब दबे पांव यह हमारी लोक सस्कृति का हिस्सा बन गया इसका हमें एहसास तक नहीं हुआ। यहां बता दे कि कुमाऊं में भैयादूज की जगह दूतिया त्यार मनाने की लोक परम्परा रही है, जिसे मनाने की तैयारी एकादशी या धनतेरस के आसपास शुरू हो जाती है।
दूतिया में दीपवाली के दिन एक बर्तन में धान पानी में भिगौने के लिए डाले जाते हैं। इसके बाद गौवर्धन पूजा के दिन इस धान को पानी से बाहर निकाल लिया जाता है। धान को निखारने के लिए उसे एक कपड़े में बांध दिया जाता है। धान का सारा पानी निखरने के बाद धान का कढ़ाई में भूना जाता है। उसके बाद उसे गर्म ओखले में मूसल से कूटने की परम्परा है।
इस दौरान धान गर्म होने के कारण उसका आकार चपटा हो जाता है और भूसा भी उससे अलग हो जाता है। इन भूने हुए व चपटे चावलों को चूड़ा कहते हैं। ये चूडे़ सिर में चढ़ाने के साथ ही मजे से खाने के लिए भी उपयोग किये जाते हैं।
दूतिया त्यौहार दीपवाली के तीन दिन बाद कुमाऊं भर में मनाये जाने की परम्परा है। इसमें प्रथम दिन तैयार किये गये चूड़े सिर में चड़ाये जाते हैं, इसके लिए सुबह सवेरे ही पूजा अर्चना के बाद घर की सबसे बुजुर्ग महिला इसे सबसे पहले ईष्टदेव को चढ़ाती हैं, उसके बाद परिवार के हर सदस्य के सिर में चूड़ा चढ़ाने के साथ ही उसे टीका इत्यादि लगाये जाने का रिवाज है।
इतना ही नहींं बुजुर्ग महिला दूब के गुच्छों से परिवार के सदस्यों के सिर में तेल लगाती है। इस दौरान कई बार तेल सिर से बहने लग जाता है, इसे भी दूतिया की धार कहा जाता है। तेल बहने के बाद घर के सदस्यों के घुटनों, कंधों व सिर में च्यूड़े चढ़ाये जाते हैं, जिसे तीन से पांच बार क्रम में दौहराया जाता है।
इस प्रक्रिया को दौहराने के दौरान बुजुर्ग महिला घर के सदस्यों को आशीष वचन देती हैं, ‘जी रया जागी रया य दिन य मास भ्यटनें रया। पातिक जै पौलि जया। दुबकि जैसि जड़ है जौहिमाल में हॅयू छन तक, गाइक बलु छन तकघवड़ाक सींग उँण तक जी रया।। स्याव जस चतुर है जया,बाघ जस बलवान है जया, काव जस नजैर है जौ,आकाश जस उच्च (सम्मान) है जयां, धरति जस तुमर नाम है जौजी राया जागि राया, फुलि जया, फलि जया दिन यबार भ्यटनै राया...’
इस आशीष वचन का भवार्थ यह है कि आप अपने जीवन में खुश व खुशहाल रहें। सुख शांति बनी रहे, खुशी का यह दिन यूं ही आपके जीवन में खुशियां लाता रहें। कुल मिलाकर कहने का अर्थ है कि इस दिन घर के बड़े बुजुर्गाें द्वारा परिवार के सदस्यों के दुर्घायु के लिए मंगल कामना की जाती है।
इतना ही नहींं घर के सदस्योें के सिर पर च्यूड़ा चढ़ाने के बाद गाय व बैल के सिरों में भी च्यूड़े चढ़ाये जाने का रिवाज है। च्यूड़ा चड़ाने से पूर्व बैल के सींगों में सरसों का तेल लगाया जाता है गले में फूल माला पहनायी जाती है व गाय व बैल के माथे पर तिलक किया जाता है, जो दर्शाता है कि हमारी लोक परम्पाओं में पालतू जानवरों को भी इंसान के समकक्ष सम्मान दिया जाता है।
लेकिन समय में तेजी से आ रहे बदलाव व लगातार हो रहे सांस्कृतिक अतिक्रमण का असर हमारी लोक परम्पराओं पर भी दिखने लगा है। आधुनिकता की हवा ने हमारी परम्पराओं पर असर दिखाना शुरू कर दिया है। उसी का नतीजा है कि जानर, ओखल की जगह बाजार में मौजूद उपकरणों ने ले ली है।
आने वाले समय में न तो दादी, ईजा—कुमाउं में मां को ईजा कहा जाता है— चाची द्वारा ओखल में तैयार च्यूड़ों का स्वाद ही लोगों को चखने को मिलेगा और न ही अपनों का वह अपनापन। गनीमत है कि विकास की आंधी के बाद बावजूद हमारी दूतिया त्यार की परम्परा अभी बची हुई है।