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पुण्य प्रसून की नौकरी छिन जाने को लेकर मर्सिया पढ़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि उनके तेवर को और बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही देश के उन हजारों पत्रकारों की हिम्मत बढ़ाने और उनकी ताकत बनने की दरकार है जो बिना पुण्य प्रसून या रवीश कुमार कुमार जैसी सुविधाओं और स्टूडियो के तमाम जोखिम के बीच जुटे हुए हैं अपने मिशन पर...
स्वतंत्र कुमार की रिपोर्ट
मोदी सरकार एबीपी न्यूज़ की रिपोर्टिंग खासकर 'मास्टर स्ट्रोक' से कितना डरी हुई है, इसका अंदाज़ा लग ही गया होगा। पहले एबीपी न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर का इस्तीफा ले लिया गया। फिर एबीपी के स्टार एंकर और वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने चैनल को अलविदा कह दिया।
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चैनल सूत्रों के मुताबिक मोदी सरकार का एबीपी चैनल प्रबंधन पर इतना ज्यादा दवाब बनाया जा रहा था कि चैनल को मिलिंद खांडेकर का इस्तीफा लेना पड़ा। इसी कड़ी में चैनल में इस कदर माहौल खराब हो गया कि पुण्य प्रसून को इस्तीफा देना पड़ा।
वहीं चैनल के मशहूर एंकर और मोदी सरकार का असल चेहरा दिखाने के लिए ख्यात अभिसार शर्मा को भी लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है। हालांकि इसमें भी चैनल सूत्रों का कहना है कि अभिसार की भी चैनल से छुट्टी कर दी गई है।
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मोदी सरकार की इतनी घटिया हरकतों और मीडिया विरोधी चेहरे ने इंदिरा के समय की इमरजेंसी की यादों को ताजा कर दिया है जब मीडिया को झुकने के लिए कहा गया था और मीडिया रेंगने लगा।
सोशल मीडिया पर मोदी सरकार और एबीपी के लोग जमकर भड़ास निकाल रहे हैं। उस दौर में इंडियन एक्सप्रेस ने ही इंदिरा की इमरजेंसी का मुकाबला किया था, अब देखना होगा इस मोदी काल में कौन सा मीडिया हाउस मुकाबला करेगा या सब रेंगने लगेंगे।
वैसे आज के दौर में अल्टरनेट मीडिया भी है, जिसके सहारे मीडिया की आज़ादी को बचाया जा सकता है। मगर असल सवाल वही है कि पत्रकार हिम्मत कितनी दिखाते हैं।
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हालांकि सरकार के खिलाफ स्टैंड लेकर शुरू से चल रहे एनडीटीवी का उदाहरण भी सबके सामने है। कई सालों से चैनल को सरकारी विज्ञापन देना बंद कर दिया गया है। चैनल को चलाने के लिए एनडीटीवी को कई बार कर्मचारियों की छंटनी भी करनी पड़ी। इसके अलावा कैमरामैनों को हटाकर पत्रकारों को मोबाइल फोन से ही जर्नलिज्म करने के लिए कहा गया है, ताकि ख़र्चा कम हो। इससे पहले इसी चैनल पर एक महीने का बैन लगाने का फरमान भी सरकार ने सुनाया था, लेकिन पत्रकारों के एकजूट होने और पब्लिक के गुस्से के आगे सरकार झुक गई थी और सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था।
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पुण्य प्रसून, अभिसार, मिलिंद खांडेकर, रवीश कुमार तो वो चेहरे हैं जिनके सामने चुनौतियां उस तरह की नहीं हैं जितनी छोटे स्तर पर शुरुआत करने वाले और तमाम जोखिम उठाकर पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के सामने जो सुविधाओं के अभाव में सच और अच्छी पत्रकारिता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। एक ऐसे दौर में जब मुख्यधारा की मीडिया पर अघोषित आपातकाल, सेंसरशिप लगभग लगा दी गई है, असल सवालों को उठाने की उम्मीद इन्हीं जोखिम उठाने वाले पत्रकारों से है।
अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाकर सच दिखाने, कहने, लिखने वाले इन पत्रकारों के लिए अभी भी पूरा मीडिया, आमजन एकजुट नहीं हुआ तो सिवाय पेड मीडिया के कुछ नहीं बचेगा और सरकारों की जनविरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार, तमाम घोटाले उजागर करने वाले पत्रकार होंगे जेल की सलाखों के पीछे। या फिर उनका किसी और तरीके से मुंह बंद कर दिया जाएगा।
ऐसे पेड पत्रकारिता के दौर में जो लोग जोखिम उठाकर सच्ची खबरें सामने लाते भी हैं उनके सामने भयंकर आर्थिक संकट मुंह बाये खड़ा है। पीत पत्रकारिता को ठोकर मार फिर भी ये पत्रकार अपने मिशन पर जुटे हुए हैं तो इसे जनमीडिया बनाने की सख्त जरूरत है, ताकि खबरें दबाई न जा सकें, आम जन तक पहुंचें। यह तभी संभव होगा जब आमजन से लेकर सरोकारों की बात करने वाले लोग ऐसे पत्रकारों के साथ खड़े होंगे।
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गौरतलब है कि आज सोशल मीडिया भी सच को उजागर करने का एक बड़ा प्लेटफॉर्म बन चुका है, उस पर भी सरकार ने लगाम लगाने की तैयारी कर ली थी। मगर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद केंद्र सरकार ने आज सोशल मीडिया कम्युनिकेशन हब स्थापित करने के प्रस्ताव को वापस ले लिया है।