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विमर्श

सिर्फ 10 प्रतिशत के पास देश की 76 प्रतिशत धन संपदा

Janjwar Team
7 Aug 2017 12:13 AM GMT
सिर्फ 10 प्रतिशत के पास देश की 76 प्रतिशत धन संपदा
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देश से गरीबी खत्म करने का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मोदी स्वयं 1.60 लाख रुपए तो उनके मंत्रीगण भी लाखों रुपए मासिक वेतन देश के खजाने से उठाते हैं...

मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार

उत्तराखण्ड में प्रति व्यक्ति आय 1.60 लाख रुपए के आंकड़े को पार कर चुकी है, जो कि देश के प्रति व्यक्ति आय 1.30 लाख के औसत से बहुत ज्यादा है। इसके लिए भाजपा सरकार स्वयं अपनी पीठ ठोक रही है। इससे पूर्व की कांग्रेस सरकार भी उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से ज्यादा होने पर स्वयं अपने मुंह मियां मिटठू बनती रही है।

देश की प्रति व्यक्ति आय 1.30 लाख को ही यदि हम राष्ट्रीय औसत मानकर विचार करें तो इसका मतलब है 5 व्यक्तियों के परिवार की सालाना आय 6.50 लाख रुपए हो गयी है। यानि की देश के एक परिवार की मासिक आमदनी कम से कम 54 हजार रुपए हो चुकी है। अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब एक परिवार के हिस्से की मासिक आय 54 हजार रुपए है तो फिर भी देश बहुलांश आबादी को गरीबी व अभाव में जीवन क्यों व्यतीत करना पड़ रहा है।

पिछले दिनों दिनो आक्सफाॅम द्वारा प्रकाशित रिर्पाेट उसका खुलासा कर देती है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के 84 अरबपति घरानों के पास देश की 58 प्रतिशत आबादी के पास मौजूद सम्पत्ति से भी अधिक सम्पत्ति है। क्रेडिट स्यूसेस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट का कहना है कि देश के ऊपरी आय वाले 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की 76.3 प्रतिशत धन संपदा है।

देश में अमीर और अमीर होते जा रहे हैं। एक तरफ जो यह धन संपदा के महल खडे़ हुए हैं, दरअसल यही देश ही गरीबी-बदहाली की जड़ में हैं।

दुनिया के देशों में आय असमानता को लेकर भारत का स्थान रूस के बाद दूसरा है, परन्तु भूख गरीबी के बारे में बताने वाले विश्व हंगर इंडैक्स में भारत 118 देशों की सूची में बहुत पीछे 97वें नम्बर पर है। भारत के पड़ोसी नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका बांग्लादेश जैसे मुल्क इस सूची में भारत से आगे हैं।

देश के प्राइवेट सेक्टर के मजदूरों को जहां न्यूनतम वेतन 8-10 हजार रुपए पाने व स्थाई नौकरी तक के लाले पड़े हुए हैं, वहीं देश में लार्सन एंड टूर्बो के सीईओ एम. नायक 66.14 करोड़, कुमार मंगलम बिड़ला 49.62 करोड़, इंफोसिस के सीईओ 48.73 करोड़, ल्युपिन लि. के सीईओ देश बंधु गुप्ता 44.8 करोड़, राहुल बजाज 22.32 करोड़, मुकेश अंबानी 15 करोड़ से भी अधिक वार्षिक वेतन उठाते हैं।

सरकार ने देश में मिड-डे-मील योजना के अंतर्गत स्कूलों में खाना बनाने के लिए जो भोजन माताएं रखी हैं उन्हें सरकार 15 सौ रुपए का मासिक (सालाना 18 हजार रुपए) वेतन देती है। देश में आय का गैप कितना बड़ा है इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।

सन टीवी नेटवर्क की महिला एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर कलानीधि मारन का वार्षिक वेतन 59.89 करोड़ है। कहने को तो भोजन माता व कलानधि मारन दोनों महिलाएं हैं, परन्तु इनकी आय के बीच सात समुन्दर जितना फासला है। हिसाब-किताब लगाकर देखिए कलानिधि मारन को एक भोजन माता के मुकाबले 33 हजार दो सौ बहत्तर गुना ज्यादा पैसा मिलता है। देश का संविधान उक्त दोनों को बराबरी का अधिकार देता है। परन्तु उक्त दोनों के बीच क्या कोई समानता हो सकती है।

सरकारी विभागों मे परमानेंट नौकरी के स्थान पर जो लोग आउट सोर्सिंग पर रखे गये हैं, उन्हें 8 हजार रुपए मासिक तनख्वाह भी बड़ी मुश्किल से मिलती है। आंगनबाड़ी कार्यकत्री, आशा वर्कर आदि को तो सरकार न्यूनतम वेतन देने के लिए भी तैयार नहीं है। इसके बरक्स सरकारी विभाग के सचिव स्तर के अधिकारियों का वेतन 90 हजार रुपए से भी अधिक है।

देश से गरीबी खत्म करने का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मोदी स्वयं 1.60 लाख रुपए तो उनके मंत्रीगण भी लाखों रुपए मासिक वेतन देश के खजाने से उठाते हैं।

पिछले 25 वर्षों से भारत की सरकारों को अमेरिका व यूरोप के देशों की नकल करने की होड़ लगी हुयी है। जब जनता के अधिकारों व सुविधाओं में कटौती करनी होती है, तो देश की सरकारें अमेरिका व यूरोप के देशों का उदाहरण देने लगती हैं। परन्तु राष्ट्रीय आय के बंटवारे व गरीबी रेखा के निर्धारण के वक्त हमारे देश की सरकारें यूरोप व अमेरिका की तरफ देखना भूल जाती हैं।

यूरोप के ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय के औसत का 60 प्रतिशत गरीबी रेखा का मानक माना जाता है। वहां पर राष्ट्रीय आय औसत से 60 प्रतिशत से कम आय वाले लोग गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं। मान लिया जाए कि यूरोप के किसी मुल्क की प्रति व्यक्ति आए 100 रुपए वार्षिक है तो जिस व्यक्ति की वार्षिक आय 60 रुपए से कम होगी उसे गरीबी की रेखा के नीचे माना जाएगा।

यदि इस मानक को भारत की प्रति व्यक्ति आय 1.30 लाख सालाना पर अपनाया जाए तो देश की प्रति व्यक्ति आय का 60 प्रतिशत यानी कि 78 हजार वार्षिक ( 214 रुपए प्रतिदिन ) से कम आय वाले व्यक्ति को गरीबी की रेखा से नीचे माना जाएगा। यदि सरकार गरीबी की रेखा का यूरोपीय मानक अपना ले तो देश के 90 करोड़ से भी अघिक लोग गरीबी की रेखा के नीचे दिखाई देंगे।

अमेरिका में गरीबी की रेखा का मानक 4 व्यक्तियों के परिवार के लिए 24600 डालर वार्षिक निर्धारित किया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि अमेरिका में जिस व्यक्ति की दैनिक आय 16.85 डालर (1095 रुपए) प्रतिदिन से कम होगी उसे गरीबी की रेखा के नीचे माना जाएगा।

विश्व बैंक ने गरीबी की रेखा का मानक बेहद कम 1.90 डालर (123 रुपए) प्रतिदिन निर्धारित किया है। परन्तु हमारा देश इस मानक पर भी खरा नहीं है। देश में जो व्यक्ति ग्रामीण क्षेत्र में अपनी जरुरतों पर दिन भर में 32 रुपए तथा शहरों में रहने वाला व्यक्ति 47 रुपए खर्च कर लेता है, उसे सरकार गरीबी की रेखा के नीचे नहीं मानती है।

रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया की 2012 में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की 21.9 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करती है।

इंदिरा गांधी के जमाने से ही देश में गरीबी हटाने की बात चलती आ रही है। देश के प्रधानमंत्री मोदी भी गरीबी हटाने के लिए दिन रात गला फाड़ रहे हैं, परन्तु देश से गरीबी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। देश के पूंजीपतियों के हितार्थ कुछ चतुर-चालाक अर्थशास्त्री गरीबी के लिए बड़ती जनसंख्या को आधार बताकर वास्तविकता पर परदा डालते हैं।

तो भाजपा व उसके अनुषंगी संगठन देश की गरीबी के लिए मुस्लिमों की आबादी को दोषी ठहराकर जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं।

जबकि सच्चाई यह है कि देश के मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति हिन्दुओं के मुकाबले काफी कमजोर है। ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले हिन्दुओं का प्रतिशत 22.6 है तो मुसलमानों का प्रतिशत 26.9 है। वहीं शहरी क्षेत्र में हिन्दुओं की 20.4 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे रहती है तो वहीं मुसलमान आबादी के 38.4 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं।

मामला आइने की तरह साफ है। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा पैसा लेगा तो वह किसी न किसी का हक जरुर मारेगा। यदि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय औसत 1.30 लााख रुपए के मुकाबले सालाना 19.20 लाख रुपए वेतन के रूप में ले रहे हैं तो यह राशि किसी न किसी का हक मारकर ही ली जा रही है।

देश में करोड़ों लोगों के पास रहने के लिए घर नहीं हैं। 2011 की जनगणना हमें बताती है कि देश के भीतर 1.20 करोड़ मकान ऐसे हैं जो कि बिल्कुल खाली पड़े हैं। क्या गरीबी दूर करने के लिए संकल्पबद्ध प्रधानमंत्री इन खाली पड़े आवासों को बेघर लोगों को आबंटित करने का साहस दिखा पाएंगे।

बगैर आर्थिक बराबरी के सामाजिक बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। देश के भीतर जो भी व्यक्ति ईमानदारी के साथ गरीबी हटाने की बात कर रहा है उसे सबसे पहले देश की धन-सम्पदा व राष्ट्रीय आय में व्याप्त गैर बराबरी को मुद्दा बनाना चाहिए तथा इस बात की पुरजोर वकालत करनी चाहिए कि देश के 84 अरबपति घरानों समेत सभी बड़ी पूंजी व सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिया जाए।

राहत के चन्द टुकड़ों से देश की गरीब जनता का भला होने वाला नहीं है। जरूरत है जनता को उसके आर्थिक अधिकार बराबरी के साथ दिये जाए। और यदि अधिकार मांगने से नहीं मिलते हैं तो उन्हें पूंजीपतियों व सरकारों से छीना जाए।

(मुनीष कुमार स्वतंत्र पत्रकार और समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)

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