संसद का शीतकालीन सत्र गया भाड़ में, मंत्री—प्रधानमंत्री जुटे गुजरात चुनाव में
बीच चुनाव में सरकार नहीं चाहती कि संसद में उठे नोटबंदी और जीएसटी पर कोई सवाल, यही सवाल गुजरात में भाजपा की कर सकते हैं खटिया खड़ी, संसद के इतिहास में पहली बार टाला जा रहा है शीतकालीन सत्र
अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार
सरकार द्वारा देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद की उपेक्षा, उससे मुंह चुराने की या उसका मनमाना इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। केंद्र में जिस किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसकी कोशिश संसद का कम से कम सामना करने की ही रही है।
लेकिन इस वर्ष अब तक संसद का शीतकालीन सत्र न आयोजित कर भाजपा सरकार ने तो एक नया ही इतिहास रच दिया है। भारत के 65 वर्ष के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका है जब नवंबर का आधा महीना बीत जाने के बावजूद संसद का शीतकालीन सत्र अभी तक शुरू नहीं हुआ है और न ही यह तय हुआ है कि वह कब होगा या होगा ही नहीं।
आमतौर पर संसद का शीतकालीन सत्र हर वर्ष नवंबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में किया जाता है, लेकिन इस वर्ष दूसरा हफ्ता बीत जाने के बावजूद न तो सत्र शुरू हुआ है और न ही उसके शुरू होने की तारीख का एलान हुआ है। अभी तक कैबिनेट की संसदीय मामलों की समिति की बैठक भी नहीं बुलाई गई है जिसमें संसद के सत्र की तारीख तय होती है।
सरकार के इस रवैये ने विपक्ष को यह आरोप लगाने का मौका दे दिया कि गुजरात के विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार विपक्ष के सवालों से बचने के लिए इस बार या तो सत्र नहीं बुलाएगी या फिर चुनाव के बाद औपचारिकता पूरी करने के लिए बेहद संक्षिप्त सत्र आयोजित करेगी।
विपक्ष का यह आरोप निराधार भी नहीं है, क्योंकि नोटबंदी के मुद्दे पर सरकार अपनी 'उपलब्धियों’ का बखान करने वाले व्यापक प्रचार अभियान और जीएसटी पर कुछ कदम पीछे हटने के बावजूद अभी भी सवालों से घिरी हुई है। सरकार के इन दोनों अहम फैसलों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है। औद्योगिक उत्पादन और निर्यात दर में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है।
देशभर में कारोबारी तबके का काफी बड़ा हिस्सा निराश और परेशान है। किसानों के आत्महत्या करने की खबरें भी इधर-उधर से लगातार आ ही रही हैं। बैंकों के एटीएम अभी भी लोगों को भटकने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कई वस्तुओं पर जीएसटी की दरें कम करने के अपने झिझक भरे फैसले और थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़़ों के सहारे सरकार भले ही महंगाई कम होने के दावे करे लेकिन खुदरा बाजार में आवश्यक वस्तुओं के दाम अभी भी ऊंचाई पर हैं।
नोटबंदी से कालेधन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाने और आतंकवाद तथा नक्सलवाद की कमर तोड़ देने का सरकारी दावा मजाक बनकर रह गया है। इन सारे सवालों के अलावा फ्रांस से रॉफेल विमानों की विवादास्पद खरीद का मामला भी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है।
विपक्ष के वरिष्ठ सांसद और जनता दल यू के विभाजित धड़े के नेता शरद यादव का कहना है कि अगर संसद का सत्र बुलाया होता तो विपक्ष इन सवालों पर सरकार से जवाब तलब करता और सरकार के लिए जवाब देना आसान नहीं होता। उनका कहना है कि सरकार अपनी जवाबदेही से बचने के लिए ही संसद का सामना करने से कतरा रही है।
विपक्ष का आरोप और तमाम सवाल अपनी जगह, मगर हकीकत यही है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव में इस बार भाजपा को कड़ी चुनौती मिल रही है। अपने इस सबसे मजबूत किले को बचाना भाजपा और सरकार के लिए नाक का सवाल बना हुआ है। इस चुनाव को जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते हैं।
इस सिलसिले में वे चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था के दुरुपयोग का आरोप भी झेल चुके हैं और संसद सत्र के आयोजन को लेकर नियम और परिपाटी की अनदेखी या संसद की अवमानना का आरोप झेलने के लिए भी तत्पर दिखाई दे रहे हैं। यही नहीं, वे खुद भी बार-बार गुजरात जा रहे हैं।
उनके ज्यादातर मंत्री और सांसद तो गुजरात में ही ड़ेरा ड़ाले हुए हैं। जाहिर है कि ऐसे में अगर सरकार संसद का सत्र बुला लेती तो प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्रियों और सांसदों को दिल्ली में ही रहना होता, जिससे गुजरात में पार्टी का चुनाव अभियान कमजोर पड़ जाता।
सरकार भले ही इस बारे में विपक्ष की ओर से हो रही अपनी आलोचना और संसद का सत्र बुलाने की मांग की उपेक्षा कर रही है मगर विपक्ष इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं है। इस बारे में विभिन्न विपक्षी दलों के नेता आपस में संपर्क बनाए हुए हैं।
बताया जाता है कि विपक्ष इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रपति से मिलने और सरकार पर दबाव बनाने के लिए संसद परिसर अथवा गांधी समाधि पर सामूहिक धरना देने पर भी विचार कर रहा है। हालांकि इस बात के आसार कम ही हैं कि विपक्ष की इस कवायद का सरकार पर कोई असर होगा, फिर भी विपक्ष चाहता है कि सरकार के इस रवैये को भी वह एक मुद्दे के तौर पर गुजरात चुनाव तक उठाते हुए सरकार पर हमले किए जाए।
जो भी हो, बहरहाल संसद के प्रति सरकार का यह रवैया आपातकाल के उस दौर की याद दिलाता है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए संविधान संशोधन के जरिये लोकसभा का कार्यकाल ही एक वर्ष के लिए बढा कर संसदीय लोकतंत्र को एक तरह से बंधक बना लिया था।
उस वक्त सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके जयप्रकाश नारायण ने विपक्षी दलों के सभी लोकसभा सदस्यों से अपील की थी कि वे सरकार के इस अलोकतांत्रिक और अनैतिक फैसले पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दें, लेकिन उनकी इस अपील पर सोशलिस्ट पार्टी के दो सांसदों मधु लिमये और शरद यादव के अलावा किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था। जेपी की अपील को अनसुना करने वालों में तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।
आपातकाल के उस दौर और मौजूदा दौर में मोटा फर्क यही है कि उस वक्त सरकार हर अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक काम संविधान में मनमाना फेरबदल करके और कानूरी उपायों का सहारा लेकर कर रही थी और मौजूदा सरकार वैसे ही कामों को संविधान, संसद, नियमों और परंपराओं को नजरअंदाज करके अंजाम दे रही है।
(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अनिल जैन पिछले तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। उन्होंने नई दुनिया, दैनिक भास्कर समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है।)