दो साम्राज्यवादी दादाओं की जंग में पिस रही दुनिया, WHO के अस्तित्व पर सवाल
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर लगभग 80 के दशक तक चीन ने खुद को साम्राज्यवाद के शिकार के तौर पर पेश किया है। आज चीन के साम्राज्यवादी रवैये से दुनिया के कई देशों की संप्रभुता पर खतरा है...
वरिष्ठ पत्रकार विश्वदीपक का विश्लेषण
जनज्वार। उस वक्त जबकि दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है और मानव सभ्यता के कई आयाम डायनोसौर की तरह विलुप्त होने की कगार पर हैं, विश्व मंच पर दो साम्राज्यवादी (शक्तियों) दादाओं का ग़ैर जिम्मेदाराना प्रहसन जारी है। ये दो साम्राज्यवादी दादा हैं– अमेरिका और चीन। अमेरिका पुराना दादा है जबकि चीन नया, नवेला उभरता हुआ दादा।
पिछले करीन तीन महीने से, इन दो साम्राज्यवादी दादाओं के बीच खेले जा रहे प्रहसन के विषय यूं तो कई हैं और आपस में एक दूसरे से गुत्थमगुत्था भी हैं, लेकिन सबसे अहम है कोराना महामारी से उपजे वैश्विक संकट को लेकर डब्ल्यूएचओ यानि विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका।
फिर भी पोटस के नाम से मशहूर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का शुक्रवार यानि 29 मई 2020 की प्रेस ब्रीफिंग के दौरान यह कहना कि अमेरिका डब्लूएचओ (WHO) से अपने सारे रिश्ते खत्म कर रहा है–धमकी ज्यादा लगता है।
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असल में यह पूरी दुनिया जानती है कि अमेरिका डब्लूएचओ या डब्लूएचओ जैसी दूसरी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक (WHO-वर्ल्ड बैंक मिलकर एक जोड़ी की तरह काम करते है) से संबंध विच्छेद वहन नहीं कर सकता। वजह यह है कि अमेरिका जिस सोच का नाम है, उसे दुनिया में फैलाने का काम इन्हीं संस्थाओं ने किया है। क्या बिना डब्ल्यूएचओ, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के अमेरिका का विचार जीवित रह सकता है ? नहीं।
बहरहाल, यह जानना भी दिलचस्प है कि आज अमेरिका जिस डब्ल्यू से अपने संबंध विच्छेद का ऐलान कर चुका है, उसकी स्थापना के पीछे उसका बहुत बड़ा योगदान है। 194 सदस्यों वाली यह संस्था पैदा ही नहीं हुई होती अगर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद पैदा हुए हालात पर एक मत नहीं हुए होते।
दरअसल अमेरिका की 118 साल पुरानी संस्था Pan American Health Organization (PAHO) और फ्रांस की सरकार ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं के शुरुआती दशकों में दुनिया को महामारियों से बचाने के लिए एक संस्था की स्थापना के बारे में लगातार कई दशकों तक विचार-विमर्श किया।
नतीजतन जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑप नेशंस (League of Nations) की स्थापना की गई तो युद्ध की विभीषिका, महामारी और घायलों के इलाज के लिए एक स्वास्थ्य संगठन की भी स्थापना की गई। यही संगठन आगे चलकर - जब लीग ऑफ नेशंस का नाम बदलकर यूनाइटेड नेशंस (United Nations) हो गया – डब्ल्यूएचओ के नाम से जाना गया।
दुनिया भर में चल रहे दूसरे एनजीओ की तरह डब्ल्यूएचओ भी अपने अस्तित्व के लिए अब तक मुख्य रूप से अमेरिका और पश्चिमी देशों की मदद पर निर्भर रहता आया है लेकिन पिछले कुछ सालो जैसे - जैसे चीन का आर्थिक प्रभुत्व बढ़ा है और चीन ने खुलेआम साम्राज्यवाद की राह पर छलांग लगाई है, डब्ल्यूएचओ की आंतरिक संरचना और उसकी फंडिंग में भी बदलाव हुआ है।
(यहां यह याद रखना बेहद ज़रूरी है कि बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर लगभग 80 के दशक तक चीन ने खुद को साम्राज्यवाद के शिकार के तौर पर पेश किया है। यहां तक कि चीन के आचार-व्यवहार में इस सोच के लक्षण आज भी दिखाई पड़ जाते हैं। आज चीन के साम्राज्यवादी रवैये से दुनिया के कई देशों की संप्रभुता पर खतरा खड़ा हो गया है। इस पर चर्चा कभी बाद में होगी)।
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फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक WHO को सबसे ज्यादा आर्थिक अनुदान आज भी (जबकि ट्रंप ने बजट कट का ऐलान पहले ही कर दिया था) अमेरिकी सरकार के खजाने से मिलता है। लगभग – 116 मिलियन डॉलर सालाना।
हालांकि दानदाताओं की सूची में चीन 57 मिलियन डॉलर के साथ दूसरे नंबर पर है लेकिन अमेरिका और चीन के बीच करीब तीन गुना का फर्क है। और इस फर्क के राजनीतिक मतलब क्या हैं – अमेरिका और चीन दोनों अच्छी तरह से समझते हैं। 41 मिलियन डॉलर सालाना दान के साथ डब्लूएचओ को मदद देने वालों में जापान तीसरे नंबर पर है। चौथे नंबर पर जर्मनी, पांचवे पर ब्रिटेन फिर फ्रांस और इटली हैं। कहा जा सकता है कि WHO का अस्तित्व अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों के अनुदान पर ही टिका है।
लेकिन यहां पर एक विपर्यय है और यही विपर्यय ट्रंप के गुस्से और हालिया बयान की वजह भी है। विशुद्ध सामंतवादी लहजे में जहां अमेरिका WHO से अपने प्रति वफादारी की मांग करता है, वहीं इसके प्रमुख के पद पर बैठे इथोपिया के टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस का चीन के प्रति झुकाव जग जाहिर है।
इथियोपियन पीपुल्स रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (Ethiopian People's Revolutionary Democratic Front) के खाते से इथोपिया के विदेश मंत्री बनने वाले ग़ैबरेयेसस ने अमेरिका के हमनवां कहलाने वाले लंदन में हालांकि अपना अच्छा खासा वक्त बिताया है, लेकिन उनका वैचारिक झुकाव (माओवाद) वामपंथ की ओर है - इसमें भी कोई दो राय नहीं। इसी बिंदु पर जहां चीन से उनका नैसर्गिक वैचारिक मिलान होता है, वहीं अमेरिका के साथ ग़ैबरेयेसस को बैलेंस की जद्दोजहद करनी पड़ती है।
डब्लूएचओ (WHO) से अमेरिकी नराज़गी की एक वजह यह भी है कि इथोपिया समेत अफ्रीका के दूसरे देशों में चीन ने हाल के वर्षों में भारी भरकम निवेश करके एक उद्धारक की छवि हासिल की है। अमेरिका को मालूम है कि चीन का यह विस्तार, संसाधनों से समृद्ध अफ्रीका में उसके प्रभुत्व के लिए खतरनाक है। लिहाजा नाराज़गी चीन से है, लेकिन गुस्सा ग़ैबरेयेसस और WHO पर निकल रहा है।
उधर चीन ने अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए हाल ही में अफ्रीका के जिबूती नाम के छोटे से देश में विशाल सैन्य ठिकाना स्थापित किया है। इतना ही नहीं, चीन ने जिबूती को इथोपिया की राजधानी एडिस एबाबा से जोड़ने के लिए रेलवे लाइन में भारी निवेश किया है। यहां एक बार फिर से यह याद करना ज़रूरी है कि डब्लूएचओ के वर्तनाम प्रमुख, ग़ैबरेयेसस इथोपिया के विदेश मंत्री रह चुके हैं।
यह बात अलग है कि जिबूती में ही दूसरे देशों समेत अमेरिका का भी सैन्य ठिकाना हैं लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि चीन ने अमेरिका से बड़ा सैन्य अड्डा स्थापित करके सीधे दुनिया के सबसे बड़े दादा को उसके मोहल्ले में घुसकर चुनौती दी है लेकिन मामला पेचीदा हो चुका है। ट्रंप की धमकी के पीछे कई तत्व काम कर रहे हैं।
अमेरिका में चुनाव हैं और ट्रंप को चुनाव जीतना है। इसीलिए वो चीन को अमेरिका के दुश्मन की तरह पेश करते हुए, साम्राज्यवादी-राष्ट्रवाद की आग को धधकाए रखना चाहते हैं, उधर चीन को भी हांगकांगसमेत ताइवान और वियतनान को रौंदकर अपने क्षेत्र का विस्तार करना है और लोकतंत्र की भ्रूण हत्या करते रहना है, इसीलिए वो अमेरिका का डर बनाए रखना चाहता है।
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भारत के साथ चीन का सीमा विवाद इसी कड़ी का एक हिस्सा भर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन ने कोरोना महामारी की जानकारी दुनिया से छिपाई और बाद में तथ्यों-सबूतों को मिटाने की कोशिश की और चीन के इस कारनामे की जानकारी डब्लूएचओ प्रमुख ग़ैबरेयेसस को नहीं थी – यह मानने का कोई कारण नहीं।
बहरहाल, जैसा कि अब तक इतिहास साबित करता आया है, साम्राज्यवाद पहले आर्थिक विकास का झुनझुना लेकर आता है फिर उसके पीछे सेनाओं की टुकड़ियां चलती हैं फिर आता है गोला बारुद शोषण का सिलसिला।
एशिया-अफ्रीका में संसाधनों की लूट के लिए पहले अमेरिका और अब चीन ने यही रास्ता अपनाया है। WHO एक बहाना है। सवाल यह है कि दो दादाओं (जिनमें से एक को करीब-करीब पागल और दूसरे को चुप्पा सनकी कहा जाता है) की लड़ाई में डब्लूएचओ बचेगा क्या ?
तमाम तरह की आलोचनाओं के बाद भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि WHO प्रयासों से दुनिया को पोलियो, टीबी, चेचक, हैजा जैसी महामारियों से लड़ने में मदद तो मिली ही है। हमारे लिए बेहतर होगा कि कम से कम डब्लूएचओ को साम्राज्यवादी मसूंबों की युद्ध भूमि न बनने दें।