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भीड़ द्वारा ख़ौफ़ फैलाकर किसी को भी सड़क पर मौत के घाट उतार देना, किस तरह आम हो गया, ये भी हमने पिछले कुछ महीनों में देखा है। ध्रुवीकरण की राजनीति ने नफरत को जायज कर दिया है और देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं....
गौरव कुमार
इस आजादी पर इत्मीनान से एक बार सोचिए कि क्या सही मायनों में प्रत्येक नागरिक को आजादी की जिंदगी नसीब हुई है। क्या समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना हम उतने पुरजोर तरीके से कर पाए जिसके लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दशकों तक कुर्बानी हुई?
लोककल्याणकारी राज्य की उस अवधारणा का क्या जो हर नागरिक को उसके जीवन के मूलभूत सिद्धान्तों को उपलब्ध कराने के लिए इस सिस्टम को बाध्य बनाता है। केंद्रीय मंत्री द्वारा लोकसभा में पेश की गई जानकारी में वर्ष 2011-12 के आंकड़े के मुताबिक देश में करीब 27 करोड़ लोग (21.92%) गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं।
शेड्यूल ट्राइब के 45.3% और शेड्यूल कास्ट के 31.5% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। 125 करोड़ की जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा आजाद भारत में दिन—प्रतिदिन खाने को लेकर मशक्कत कर रहा है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ये गम्भीर समस्याओं को सूची में शामिल होना चाहिए।
अफसोस दो वक्त की रोटी आबादी के 20 प्रतिशत हिस्से तक पहुंच पाना भी सपने सा है। ऐसे में हमें अपने "सपनों के भारत" को स्थापित करने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता है।
एक न्यूज रिपोर्ट की मानें तो ग्रामीण भारत के लिए एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर)-2017 जारी की गई। यह रिपोर्ट देश के 24 राज्यों के 28 जिलों के 30 हजार बच्चों के बीच किए गए सर्वे के आधार पर तैयार की गई है। इसमें देश में पहली बार आठवीं से लेकर 12वीं कक्षा तक के छात्र-छात्राओं के सामान्य और बौद्धिक ज्ञान से संबंधित कई चौंकाने वाली बातें सामने आई हैं।
उदाहरण के लिए सर्वे में शामिल 36 फीसदी किशोर अपने देश की राजधानी का नाम नहीं जानते। सोचकर देखिए आजाद भारत की राजधानी का नाम भी बताने में मुश्किल झेलने वाले बच्चो को बुनियादी शिक्षा पाने की आजादी किस हद तक मिल पाई।
किसी भी देश को एकता के सूत्र में बांधने के लिए भाईचारा महत्वपूर्ण विषय होता है। ये विषय राजनीतिक होकर दूषित हो जाये, तो यह चिन्ताजनक बात है। देश के विभिन्न हिस्सों को दंगों की प्रयोगशाला बनाकर अपनी राजनीति चमकाने वाले सियासतदानों ने एक नागरिक को उसके जीवन जीने के अधिकार से कितनी बार वंचित किया, क्या आजाद भारत की समृद्धि में ये राजनेता गुनाहगार नहीं?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) मुताबिक 2013 में भारत में 72,126 दंगे दर्ज हुए थे। एनसीआरबी के मुताबिक भारत में साल 2000 से 2013 के बीच हर साल औसतन 64,822 दंगे हुए हैं। हालांकि इन आंकड़ों में सभी तरह के दंगे शामिल हैं, जहां गैरकानूनी तरीके से भीड़ ने जबरन बल इस्तेमाल किया हो।
भीड़ द्वारा ख़ौफ़ फैलाकर किसी को भी सड़क पर मौत के घाट उतार देना, किस तरह आम हो गया, ये भी हमने पिछले कुछ महीनों में देखा है। ध्रुवीकरण की राजनीति ने नफरत को जायज कर दिया है और देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी को उत्साह से मनाने वाले लेखक जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हिमायती थे, जिनमे कलबुर्गी, गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे व नरेंद्र दाभोलकर जैसे तमाम नाम शामिल हैं। आजाद भारत में स्वतन्त्र लेखन का इस तरह गला घोंटा जाना विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक सवाल की तरह खड़ा है।
विश्वविद्यालय की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करके कई नेताओं ने मूल्यवान राजनीति को नई दिशा देने का प्रयास किया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कहीं भी कोई भी खड़े होकर विश्वविद्यालयों की इन तार्किक आवाज को देशद्रोह के कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है।
छात्रों को अपनी फेलोशिप से लेकर शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ सड़कों पर उतरने को मजबूर होना पड़ता है। कभी शिक्षा के लिए संसाधन तो कभी विश्वविद्यालय के लिए जमीन, शिक्षकों की कमी जैसे मुद्दों पर सरकार से उलझना पड़ता है। वो भी ऐसे देश में जिसके संविधान में "समाजवाद" शब्द को प्रस्तावना में जगह दी गयी। समाजवाद का सीधा अर्थ संसाधनों का समाज के नागरिकों के बीच उचित वितरण से है। सोचिए क्या आजादी के 71वें पड़ाव में इस अर्थ को आप अपने बीच पाते हैं।
रविन्द्रनाथ टैगोर ने हमेशा मानवता को देशप्रेम ऊपर से रखा। वो मानवतावादी विचारों के समर्थक थे। महात्मा गांधी जिनका स्वराज ग्रामीण भारत की समृद्धशाली जीवनशैली से था, जिसमें जल,जंगल और जमीन पर ग्रामीण का हक जैसे तत्व शामिल है। भगत सिंह जो तार्किक युवाओं के राजनीति में आने को लेकर अपना मजबूत पक्ष रखते हुए तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं को जबाब देने के लिए हमेशा लिखते रहे, जिसका प्रमाण है- उनका लिखा हुआ लेख "विद्यार्थी व राजनीति"।
हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जिनकी भारत में खोज थी - "बहुआयामी राष्ट्र की सोच", जो विविधता में एकता के अर्थ को समाहित किये हुए है। आजाद भारत की स्थापना इन्ही मूल्यों के साथ की गयी, आज 71वें साल में यह मूल्य अगर हम पूर्ण रूप से नहीं पा सके तो हमें मानना होगा कि हमारे महापुरुषों के सपनों के भारत की तस्वीर अभी भी अधूरी है। एक सच्चा देशप्रेमी सही अर्थों में वही है जो अपने देश मे व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे।