योग बाजार के जितना करीब जाएगा, उतना ही उसमें से योग तत्व खत्म होता जाएगा
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नारद जी अंतरिक्ष में भ्रमण कर रहे थे, उसी समय उनकी मुलाकात ऋषि पर्वत से हुई। दोनों भाइयों में अनेक विषयों पर बातचीत के क्रम में पृथ्वी लोक की बात चली। ऋषि पर्वत ने कहा भाई आज कल पृथ्वी में सतयुग से भी ज्यादा योग चल रहा है। नारद जी ने पूछा तब क्या पृथ्वी पर सतयुग आ गया है?
पर्वत- नहीं भाई घोर कलयुग है। अनाचार,अत्याचार,भ्रष्टाचार, गैंगरेप, बच्चे अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। जीवन दायिनी नदियाँ तो नष्ट होती जा रही हैं।
नारदजी - चलो देखें ये विपरीत धारणायें कैसे हो रही हैं?
नारद और पर्वत सबसे पहले योग के देश भारतवर्ष आये। आते ही चारों ओर पतंजलि का साइन बोर्ड देख कर पहले गदगद हुए कि जब योग का सूत्रकार पतंजलि का प्रभाव होगा तो योगश्चित्तवृत्ति निरोधः" यानी चित्त के वृत्तियों का निरोध होने पर तो समस्त समस्याओं का समाधान हो जाएगा। परन्तु यह भ्रम तत्काल दूर हुआ कि पतंजलि ऋषि के नाम पर जो चित्त की वृत्तियों का विस्तार हो कर एक साम्राज्य स्थापित किया गया है, यह योग तो पतंजलि के योग का उल्टा है।
पर्वत ने कहा कि देखो भाई देश के समस्त राजा लोग भी राजमहल छोड़ कर सड़क और मैदान में हज़ारों लोगों के साथ योग की तैयारी कर रहे हैं। नारद जी जो भक्त और योग के ज्ञाता हैं इसे ध्यान से देखने लगे।
नारद जी बोले- अरे!! पर्वत यह तो योग के नाम पर धंधा है। यदि इसे योग कहेंगे तो जितने भी जीव है सब योगी है। ध्यान से देखो कोई सलभासन कर रहा है तो कोई मयूरासन, कूकूटासन या फिर किसी अन्य जानवर व पक्षियों का आसन या फिर स्वास क्रिया। ध्यान रखो ईश्वर ने प्रत्येक जीव को उसकी सुरक्षा के लिए एक विशेष उपाय दिया हैं साथ ही साथ उसकी जड़ता भी उसमें निहित है इसलिए प्रत्येक जीव में स्वस्थता के गुण के साथ पाश्विक वृत्ति भी है।
आज के तथाकथित ये योगी इन जानवर व पक्षियों के रहन-सहन को ही योग का नाम देकर इन्हें पूरा योग का दर्जा देकर सही योग को नष्ट करने का एक कलियुगीय चेष्टा कर रहा है। जानवर व पक्षियों में जो पाश्विक भोग का लक्ष्य है मनुष्य भी यदि अपने भौतिक देह को ही सर्वोपरि समझ लेगा तो वह पशु से भी बदत्तर हो जाएगा। इन्हीं तत्वों का सूक्ष्म जगत में व्यापतता के कारण जो कभी नही सुना गया था वह गैंगरेप व बच्चियों के साथ हुए अत्याचार की घटनाएं देखने को मिल रही है।
तुम्हे याद है? जब इन्द्र व विरोचन दोनों प्रजापति के पास गए और 32 साल ब्रह्मचर्य पूर्वक वास करने पर प्रजापति के द्वारा दिये गए उपदेश से विरोचन अपने शरीर को ही ब्रह्म समझ कर लौट गए और अपने लोगों को इस शारीरिक तृप्त को ही ब्रह्मज्ञान का प्रतिफल बताये। परंतु इन्द्र ने 101 साल ब्रह्मचर्य पूर्वक वास करने पर स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर के परे जाकर ब्रह्मज्ञान को प्रतिष्ठित किये।
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यह योग जो आज पृथ्वी पर प्रदर्शित किया जा रहा है वह तो ब्रह्मचर्यवान योगियों के लिये मात्र शरीर को किसी व्याध से मुक्त करने का एक औषधि था। वह भी यदि ब्रह्मचर्य व्रत के बिना किया जाएगा तो परिणाम वही होगा जो आज देखा जा रहा है।
नारद जी ने आगे कहना प्रारम्भ किया - सुनो पर्वत, जीव का क्रमिक विकास होकर अंत में मानव योनि में जन्म होता है। मानव भी एक पशु ही है परंतु इसमें विवेक का उदय संभव है।मानव यदि विवेकहीन हो जाय तो पशु से भी बदतर है। वैसे जीव के 6 शत्रु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर। जानवरों में मद और मत्सर नगण्य होता है।
बच्चों से मोह उसके बच्चे के जन्म के कुछ दिन तक ही रहता है। क्रोध और काम उदर पूर्ति की निवृत तक रहता है। जानवरों का विशेष रहन—सहन तथा स्वास क्रिया उसके इन्हीं जड़ता के कारण उसे नियंत्रित करता है। जैसे मोर का शारीरिक गठन उसमें साँप और छिपकिली जैसे बिषैली पदार्थ को पचाने की सामर्थ्य देता है साथ-साथ उसकी जड़ता ऐसी होती है कि यदि छिपकली बिना चेष्टा के जमीन पकड़ ले तो मोर के पहचान में नहीं आ सकता।
परन्तु मनुष्य में मद और मत्सर के अलावा काम, क्रोध, लोभ और मोह व्यापक रूप में विद्यमान रहता है यदि यम और नियम को पूर्णता से पालन किये बिना मानव इन हठयोग के आसन व क्रिया या फिर इन कसरतों को करेगा तो इन पर पाश्विक गुण जैसे काम, क्रोध, और लोभ पूरा व्याप्त होगा।
अधिकांश पशुओं का लोभ केवल उधर पूर्ति तक होती है परंतु मानव उदरपूर्ति के अलावा अपरिग्रह वृत्ति के अभाव में संग्रह करने लगता है तथा इन तथाकथित योगियों के विशाल साम्राज्य को देखते हुए यह प्रमाणित भी होता है।
पशुओं का क्रोध उसके उदर तृप्ति के लिए है तथा उसमें बाधा होने पर वह उग्र होता है। परंतु मानव को सिंहासन आदि आसन से सिंह आदि की क्रूरता अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए विरोधियों को रास्ते से हटाने की प्रवृत्ति में वृद्धि करता है।
पशुओं में काम की प्रवृत्ति मात्र ऋतु काल मे होता है परंतु मानव में यह प्रवृत्ति हमेशा रहता है तथा दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रत के अभाव में केवल इन आसनों में आसक्त व्यक्तियों या फिर इनके प्रभाव से अंतरिक्ष में इस काम वासनात्मक प्रवृत्ति का प्रभाव है कि आज मनुष्य कुत्ता और बिल्ली की तरह भोग की ओर अग्रसर हुआ है।
पर्वतजी ने प्रश्न किया कि भाई नारद भारतवर्ष में तो व्यभिचार को रोकने के लिए बड़े कठोर कानून बने हुए है परंतु उसके बाद यह घटना रोकने के बजाय अनेक गुणित हो कर बढ़ गया है। इसका क्या कारण है, नारद जी ने कहा- भाई, पर्वत यह कानून की भाषा तो विवेक युक्त मानव ही समझेगा परंतु यह पाश्विक वृत्ति जब मनुष्य में घर कर जाएगा तो वह पशु से भी बदतर हो जाएगा और यह देखा भी जा रहा है। इसका समाधान के लिए तो दूसरे दिन बात करेगें परंतु अभी हम कारण ढूंढ रहे हैं कि किन-किन कारणों से मानव आज दानव होता जा रहा है।
पर्वत जी ने प्रश्न किया कि भाई नारद आज लोग दूसरे को विस्वास में रख कर लाभ ले लेते हैं। परंतु वे विश्वासघाती सावित होते हैं।नारद जी ने कहा भाई इस योग को करने के लिए भी राज योग के यम और नियम का पालन अत्यावश्यक हो जाता है। अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये यम कह लाते है। इन तथा कथित योगियों में अहिंसा,अस्तेय और अपरिग्रह का अभाव इनके ब्रह्मचर्य में निष्ठा व सत्याचरण के अभाव के चलते होता है। मनुष्य कठोर ब्रह्मचर्य व्रत के अभाव में असत्य का सहारा लेकर पाश्विक गुण हिंसा में आरूढ़ होता है तथा चोरी का एक से एक रास्ता खोजते हुए अनैतिक रूप से अर्जित अपार संपत्ति का स्वामी होता है तथा अपने आप को योगाचार्य व सिद्धयोगी सिद्ध करने के लिए एक से एक हथकण्डा अपनाता है, परिणाम स्वरूप वह विश्वासघाती होता है।
योगी बाह्य व आंतरिक प्रकृति का सामञ्जस्य कर उन प्रकृति के प्रभाव से अपने आप को मुक्त कर स्वयं का अवलोकन कर परा वैराग्य की अवस्था प्राप्त करने के बाद कैवल्य पद को प्राप्त कर परम पुरुष परमात्मा के रूप में अपने आपको देखता है।
इसके इतर जब इन अवस्था के परे रह कर अपने आप को योगी की संज्ञा से विभूषित करने का प्रयास करता है वो आन्तरिक आनंद के साम्राज्य के अभाव में बहिर्गत अनैतिक कृत्यों से उपार्जित धन के साम्राज्य में अपने आपको रख कर झूठ,प्रपंज और विश्वासघात की दुनिया मे अपने आप को घेर लेता है।
ये योगी लोग प्राणायाम की क्रिया में जिस इडा,पिंगला और सुषुम्ना की बात करते है वे बहिर्गत रूप में भी गंगा,यमुना और सरस्वती के रूप में भारतवर्ष में रहकर बहिर्गत योग को प्रदर्शित कर रहा है। सरस्वती तो लुप्त हो गई, यमुना दिल्ली में ही नाले में तब्दील हो गई और गंगा को गंगोत्री के बाद ही नष्ट करने की चेष्टा की जा रही है।पर्वत जी ने कहा -अरे अभी तो भारत वर्ष के राजा स्वयं को योगाचार्य की संज्ञा से विभूषित कर 50 हजार लोगों के साथ योग करने जा रहे है तथा उन्होंने तो शिव की नगरी वाराणसी में यह घोषणा किये हैं कि "अब गंगा से कुछ लेना नहीं बल्कि देना है"।
नारद जी ने कहा- यही तो हम कह रहे हैं कि तथाकथित योगी विस्वासघाती क्यों हो जाते हैं। जिस अनुलोम विलोम की क्रिया ये लोग अंगुलियों से नाक दबाकर करते हैं (सही योगी इसे अपने आंतरिक प्राण को नियमित कर करते हैं) उसमें इडा(गंगा) पिंगला(यमुना) और सुषुम्ना (सरस्वती) नाड़ी की क्रिया हैं। बाहरी प्रकृति में सरस्वती को नष्ट कर यमुना और गंगा को नष्ट करने के निमित्त बन रहे हैं और स्वंय योगी बनने का ढोंग कर रहे हैं।
याद रख पर्वत बाहरी प्रकृति को नष्ट करने वाला कभी भी इस योग में प्रवेश भी नहीं कर सकता। प्रकृति जीवंत है जिसे इस बाहरी प्रकृति की आंतरिक सत्य का भान नहीं होगा वह यदि इस योग के अति बहिरंग भाव हठ योग का सहारा लेकर उसके भी यमऔर नियम के बिना करेगा तो परिणाम वही होगा जो हो रहा है।
(मातृ सदन एक दिव्य आध्यात्मिक संस्था है जो पर्यावरण संरक्षण और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए संघर्ष 1998 से ही योगस्थ हो संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष में मातृ सदन के दो संतों का बलिदान भी हुआ है। मातृ सदन योग के सही रूप को आत्मसात किये हुए है।)