NRC और CAA के नाम पर योगी की पुलिस सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा सील कर रही प्रॉपर्टी
योगी सरकार कर रही सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सरेआम अवमानना, पुलिस को अचल संपत्ति को अटैच करने का नहीं है कोई अधिकार
जेपी सिंह की टिप्पणी
जनज्वार। उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने इसी साल सितंबर में मुंबई के एक मामले में धारा 102 सीआरपीसी को परिभाषित करते हुए कहा कि किसी भी अचल संपत्ति को अटैच करने का अधिकार पुलिस के पास नहीं है। जांच के दौरान पुलिस सिर्फ उस संपत्ति को जब्त कर सकती है जो गैरकानूनी तरीके से अर्जित किया गया हो।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि लोकतंत्र में पुलिस को जरूरत से ज्यादा अधिकार नहीं दिए जा सकते। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश की पुलिस प्रदर्शनकारियों की प्रॉपर्टी सील कर रही है। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में पुलिस बड़े पैमाने पर प्रदर्शनकारियों पर कानूनी कार्रवाई कर रही है। लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। ज्यादातर मुकदमे धारा 144 सीआरपीसी के उल्लंघन, दंगा और आगजनी के हैं।
नागरिकता कानून का पूरे देश में बहुत बड़े स्तर पर विरोध हो रहा है। कांग्रेस, लेफ्टफ्रंट सहित कई राजनीतिक दल, वकील, बुद्धिजीवी, छात्र समुदाय और आम नागरिक इसके विरोध में सड़क पर उतर आये हैं। प्रयागराज सहित उत्तर प्रदेश के अधिकांश जिलो में इस कानून के खिलाफ लोग सक्रिय विरोध कर रहे हैं। इस दौरान उत्तर प्रदेश के कई जगह से हिंसा की भी खबरें आई।
उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐसे प्रदर्शनकारियों की प्रॉपर्टी सील करने के आदेश दिए हैं और स्थानीय स्तर पर प्रॉपर्टी सील भी की जा रही हैं। सरकारी और गैर सरकारी संपत्ति को जलाने या नुकसान पहुंचाने का आरोप है। पुलिस ने संपत्ति को हुए नुकसान की रिकवरी के लिए लोगों से पैसा लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। आरोपियों की अचल संपत्ति, खास तौर पर दुकानों को सील किया जा रहा है। हालांकि पुलिस और प्रशासनिक अमला यह बताने को तैयार नहीं है कि किस कानून की किस धारा के तहत यह कार्रवाई की जा रही है?
संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों की प्रॉपर्टी सील करने की उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई की वैधता पर उच्चतम न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने सवाल उठाते हुए कहा है कि राज्य सरकार की कार्रवाई अवैध है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) इसकी इजाजत नहीं देती।
काटजू ने कहा है कि आईपीसी की धारा 147 के तहत जो कोई भी उपद्रव करने का दोषी होगा, तो उसे कारावास भेजने का प्रावधान है। जिसे दो वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। वहीं धारा में यह भी कहा गया है कि आरोपी को आर्थिक दंड या दोनों से दंडित किया जाए। आईपीसी में कहीं भी यह नहीं लिखा कि बिना ट्रायल या सुनवाई के आरोपी की प्रॉपर्टी को सील किया जाए।
अपने फेसबुक पोस्ट में जस्टिस काटजू ने कहा कि उनकी दृष्टि में यूपी सरकार की कार्रवाई पूरी तरह से अवैध है। संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले कथित दंगाइयों को इसके भुगतान के लिए जोर जबदस्ती करना बिना सुनवाई और ट्रायल के नहीं किया जा सकता। मुजफ्फरनगर में प्रशासन ने कथित उपद्रवियों से जुड़ी 50 दुकानों को सील कर दिया है। ऐसा करना पूरी तरह से अवैध है, क्योंकि बिना मामले की सुनवाई और कोर्ट के आदेश के ऐसा किया गया।
जस्टिस काटजू ने कहा कि ऐसा लगता है कि यूपी सरकार खुद से ही कानून बना रही है,जो कि एक मार्च 1933 के जर्मन रीचस्टैग (जर्मन संसद) द्वारा पारित सक्षम अधिनियम की याद दिलाता है, जिसने हिटलर सरकार को संसद की अनुमति के बिना कानून बनाने की इजाजत दे दी थी। यदि यह गैर-कानूनी चलन भारत में भी शुरू हो गया और भारतीय न्यायपालिका इसे नहीं रोकेगी तो जल्द ही इस देश में नाजी युग शुरू हो जाएगा। हाल के घटनाक्रम से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट भीष्म पितामह की तरह आंख बंद किए हुए ठीक वैसे ही जब द्रौपदी का सभी के सामने चीरहरण किया गया था।
गौरतलब है कि यूपी सरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के एक फैसले का हवाला दे रही है।मोहम्मद शजाउद्दीन बनाम यू.पी. सरकार के फैसले में हाईकोर्ट ने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की स्थिति को लेकर एक दिशा—निर्देश दिया है।
इसमें कहा गया है कि जब किसी विरोध प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचता है तो पुलिस अपनी एक रिपोर्ट तैयार करेगी। जिम्मेदार लोगों को चिन्हित करेगी, फिर सरकार एक कमेटी या अथॉरिटी नियुक्त करेगी। उस कमेटी के सामने आरोपी को अपनी सफाई पेश करने का मौका दिया जाएगा।
अगर ये साबित होता है कि उसी व्यक्ति की वजह से संपत्ति को नुकसान हुआ है तो फिर उस व्यक्ति को उतना पैसा देना होगा। नुकसान की रकम कमेटी आकलन करने के बाद तय करेगी। अगर 30 दिन के अंदर वो आरोपी पैसा जमा नहीं करता है तो उसकी प्रॉपर्टी अटैच की जा सकती है। इस दौरान आरोपी हाईकोर्ट में कमेटी के फैसले को चुनोती दे सकता है, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट से पहले 2009 में उच्चतम न्यायालय ने इस बाबत दिशानिर्देश बना दिया था।जब हाईकोर्ट और उच्चतम न्यायालय के फैसलों में विरोधाभास हो तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला अमल में आएगा।
उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल 2009 में आंध्र प्रदेश के एक मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए एक दिशा निर्देश दिया था,जिसमें कहा था कि जब तक सरकार इस पर कोई कानून नहीं बनाती तब तक ये दिशा निर्देश देश भर में लागू होगा। ये आदेश रिटायर्ड जस्टिस के.टी. थॉमस और न्यायविद फली नरीमन की दो अलग-अलग रिपोर्ट के आधार पर दिए गए थे।
उच्चतम न्यायालय के मुताबिक जब भी किसी सार्वजनिक या निजी संपत्ति का विरोध प्रदर्शन के दौरान नुकसान होता है तो हाईकोर्ट खुद इसका संज्ञान लेगी या फिर पुलिस हाईकोर्ट में कार्रवाई के लिए अर्जी देगी। उहाईकोर्ट फिर इस मामले में एक कमेटी का गठन करेगी जिसमें हाईकोर्ट के सिटिंग या रिटायर्ड जज सदस्य होंगे। संपत्ति के नुकसान का आंकलन ऐसी कमेटी करेगी, जिसमें एक हाईकोर्ट के जज या जिला न्यायाधीश भी हों।
अब इसे देखते हुए यह पूरी तरह साफ़ है कि जब तक नुकसान का आंकलन कमेटी नहीं कर लेती, दोषियों को चिन्हित नहीं कर लिया जाता, और वो दोषी साबित नहीं हो जाता, तब तक प्रॉपर्टी जब्त करने का कोई सवाल ही नहीं होता। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सारा अधिकार पुलिस को दे दिया, जिससे उसका गलत इस्तेमाल हो सकता है।
पुलिस की बर्बरता को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश दिया था। कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि किसी भी रैली या प्रदर्शन की इजाजत न देना पुलिस का अधिकार है लेकिन पुलिस को ये देखना होगा कि उसके इस कदम से लोगों के प्रदर्शन करने या बोलने की आजादी का हनन तो नहीं हो रहा।संविधान में जो अधिकार दिए गए हैं उसे पुलिस अपनी ताकत से नहीं रोक सकती। धारा 144 का इसतेमाल कभी कभी और बड़ी सावधानी से होना चाहिए।
धारा 144 के तहत एक जगह तीन से ज्यादा लोगों के इकठ्ठा होने पर पाबंदी होती है। पुलिस ऐसा तब करती है जब उसे कोई हिंसा या अन्य गड़बड़ी की आशंका हो। पुलिस इससे भी आगे जा कर इंटरनेट, सोशल मीडिया और यहां तक कि केबल टीवी पर भी रोक लगा सकती है। धारा 144 का इस्तेमाल लोगों के विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए किया जाता है।
धारा 144 का मतलब ये नहीं है कि पुलिस के पास हर तरह का बल इस्तेमाल करने का लाइसेंस मिल गया हो।लोगों को हटाने के लिए कितना बल इस्तेमाल किया जाता है इसकी एक सीमा होती है। इसे अनुपातिकता के पयमाने पर देखा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 में बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में हो रहे अनशन से जुड़े मामले दिए गये अपने फैसले में कहा था वहां जब बाबा रामदेव अपने समर्थकों के साथ काला धन और लोकपाल के मुद्दे पर अनशन पर बैठे थे, तब रात में दिल्ली पुलिस ने लोगों को हटाने के लिए बल का इस्तेमाल किया था।