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संस्कृति

जेएनयू पर युवा कवि संदीप कुमार की कविता 'वेश्याओं का अड्डा', आपको थोड़ा इंसान बना देगी

Prema Negi
21 Nov 2019 7:51 AM GMT
जेएनयू पर युवा कवि संदीप कुमार की कविता वेश्याओं का अड्डा, आपको थोड़ा इंसान बना देगी
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रोहतक के युवा कवि संदीप कुमार की कविता 'वेश्याओं का अड्डा'

तुम्हें इतने बारीक और निर्जीव कंडोम नजर आ गए, फिर नजीब आज तक क्यों नहीं दिखा?

बिका हुआ मीडिया

खरीदे गए ट्रोलर

पेड IT cell वर्कर

और व्हाट्ससेप यूनिवर्सिटी पासआउट

अपने स्कैन कैमरों के साथ

उतर जाते हैं

JNU के टॉयलेटों में

और चंद घंटों में

संडास में लिपटी लाखों कंडोमों का रिकॉर्ड

जनता के सामने रख देते हैं

और जनता है कि चुपचाप मान लेती है

एक बार भी पलट कर नहीं पूछती -

तुम्हारे संडास में धंसे हाथ कहां हैं?

वो नहीं पूछते -

तुम्हें इतने बारीक और निर्जीव कंडोम नजर आ गए

फिर नजीब आज तक क्यों नहीं दिखाई दिया?

जिन्हें JNU में लड़कियां, लड़कियां नहीं

वेश्याएं नजर आती हैं

उन्हें कभी दिखाई नहीं देती

अपने घर के बगल में या फिर घर में ही

लड़कियों, महिलाओं के साथ होती यौनिक हिंसा

उन्हें नहीं दिखाई देते

छोटे छोटे कसबों में उग आए

कुकरमुतों की तरह होटल

और उन होटलों में

खाकी वर्दी के साथ मिलकर

होते देह व्यापार।

JNU की लड़कियां उन्हें लड़कियां नहीं,

वेश्याएं क्यों नजर आती हैं?

इसका उत्तर

उनकी महान पुरात्तन धार्मिक संस्कृति में मिलेगा

जहां साफ साफ लिखा है "औरत"

बचपन में पिता,

जवानी में पति,

बुढ़ापे में बेटे के अधीन रहे।

लेकिन इन्हें चिढ़ है कि -

JNU की लड़कियां

राजधानी की सड़कों पर

पुरुष मित्रों के साथ

हाथों में हाथ डालकर चलती हैं

और फ्री शिक्षा के लिए

आंदोलनों में भाग लेती हैं

इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाती हैं

इन्हें गुस्सा है कि

JNU की लड़कियां

पर्दे को परचम बना रही हैं

इन्हें ऐतराज है कि

JNU की लड़कियां

पितृसत्ता की आंखों में आंख डालकर

बराबरी की बात करती हैं

और एक बड़ा कारण है कि -

JNU की लड़कियां

इन्हें वेश्याएं नजर आती हैं

क्योंकि वो अपना जीवनसाथी

किसी धर्म

किसी जाति

किसी क्षेत्र

किसी भाषा से ऊपर उठकर

विचारों की आपसी सहमति से चुनती हैं।

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