जेएनयू पर युवा कवि संदीप कुमार की कविता 'वेश्याओं का अड्डा', आपको थोड़ा इंसान बना देगी
रोहतक के युवा कवि संदीप कुमार की कविता 'वेश्याओं का अड्डा'
तुम्हें इतने बारीक और निर्जीव कंडोम नजर आ गए, फिर नजीब आज तक क्यों नहीं दिखा?
बिका हुआ मीडिया
खरीदे गए ट्रोलर
पेड IT cell वर्कर
और व्हाट्ससेप यूनिवर्सिटी पासआउट
अपने स्कैन कैमरों के साथ
उतर जाते हैं
JNU के टॉयलेटों में
और चंद घंटों में
संडास में लिपटी लाखों कंडोमों का रिकॉर्ड
जनता के सामने रख देते हैं
और जनता है कि चुपचाप मान लेती है
एक बार भी पलट कर नहीं पूछती -
तुम्हारे संडास में धंसे हाथ कहां हैं?
वो नहीं पूछते -
तुम्हें इतने बारीक और निर्जीव कंडोम नजर आ गए
फिर नजीब आज तक क्यों नहीं दिखाई दिया?
जिन्हें JNU में लड़कियां, लड़कियां नहीं
वेश्याएं नजर आती हैं
उन्हें कभी दिखाई नहीं देती
अपने घर के बगल में या फिर घर में ही
लड़कियों, महिलाओं के साथ होती यौनिक हिंसा
उन्हें नहीं दिखाई देते
छोटे छोटे कसबों में उग आए
कुकरमुतों की तरह होटल
और उन होटलों में
खाकी वर्दी के साथ मिलकर
होते देह व्यापार।
JNU की लड़कियां उन्हें लड़कियां नहीं,
वेश्याएं क्यों नजर आती हैं?
इसका उत्तर
उनकी महान पुरात्तन धार्मिक संस्कृति में मिलेगा
जहां साफ साफ लिखा है "औरत"
बचपन में पिता,
जवानी में पति,
बुढ़ापे में बेटे के अधीन रहे।
लेकिन इन्हें चिढ़ है कि -
JNU की लड़कियां
राजधानी की सड़कों पर
पुरुष मित्रों के साथ
हाथों में हाथ डालकर चलती हैं
और फ्री शिक्षा के लिए
आंदोलनों में भाग लेती हैं
इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाती हैं
इन्हें गुस्सा है कि
JNU की लड़कियां
पर्दे को परचम बना रही हैं
इन्हें ऐतराज है कि
JNU की लड़कियां
पितृसत्ता की आंखों में आंख डालकर
बराबरी की बात करती हैं
और एक बड़ा कारण है कि -
JNU की लड़कियां
इन्हें वेश्याएं नजर आती हैं
क्योंकि वो अपना जीवनसाथी
किसी धर्म
किसी जाति
किसी क्षेत्र
किसी भाषा से ऊपर उठकर
विचारों की आपसी सहमति से चुनती हैं।