Election 2024 : स्विस बैंकों से कालाधन वापसी का मोदी का वादा सिर्फ जुमला, घपलों-घोटालों को मिला और ज्यादा बढ़ावा
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अंजनी कुमार की टिप्पणी
यह राजनीतिक सिद्धांत का आरम्भिक पाठ है कि प्रत्येक राजनीतिक दल एक आर्थिक-सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी कार्यवाही ऊपर तौर पर सांस्कृतिक चिन्हों के माध्यम से नारे गढ़ती है। भाषणों में सामाजिक बदलाव और बेहतरी की बात करती है और घोषणापत्र में उन आर्थिक और राजनीतिक प्रावधानों की बात करती है जो राज्य की मूल आत्मा होती है, लेकिन पिछले 20 सालों में भारत की राजनीति में इस अवस्थिति में तेजी से बदलाव आया है। खासकर, जब गृहमंत्री अमित शाह ने 2014 में भाजपा द्वारा कुछ वादा पूरा न करने के बारे में जब कहा कि चुनावी जुमला थे।
पिछले दस सालों में भाजपा कई बार अपने वादों के आधार पर कई ऐसे निर्णयों को अध्यादेश और कानून बनाकर लागू किया, जिनका असर भारतीय राजनीति पर ही नहीं, समाज और राज्य की संरचना पर गंभीर डाला। जबकि कई ऐसे वादों को पूरा नहीं किया गया जिसकी बेहद सख्त जरूरत थी। खासकर, भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों को हल करने के लिए जन अदालतों के निर्माण एक ऐसा ही वादा था। स्विस बैंकों में जमा काला धन की वापसी और भ्रष्टाचार में लिप्त व्यवसायियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई। निश्चय ही ये जुमला नहीं थे। ये भारतीय अर्थव्यवस्था से उपजी वह वित्तीय अनियमितताएं थीं, जिसे हल करना जरूरी था, लेकिन पिछले दस सालों में हम देख रहे हैं कि इस तरह की अनियमितताओं को न सिर्फ बढ़ावा मिला है, ऐसे घपलों को निममित करने के लिए प्रावधान लाये गये।
अडानी से जुड़ा मसला भी इसी तरह का है, जिन्होंने पिछले 10 सालों में शेयर प्रबंधन में बाजी मारते हुए दुनिया के सबसे धनी लोगों की श्रेणी में जा खड़े हुए। निश्चय ही यह जुमला नहीं था। यह वादों की वादाखिलाफी ही नहीं थी। यह झूठ बोलना था, क्योंकि इसे रोकने का प्रथा तो दूर इसे बढ़ावा देने वाले निर्णय और उसके पक्ष में जा खड़े होने की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है।
ऐसे में यह कहना बेहद मुश्किल है पार्टियां जिन घोषणापत्रों और वादों को सामने लेकर आ रही हैं, उनका वे प्रतिनिधित्व करती भी हैं या नहीं। प्राथमिक स्तर पर तो साफ है कि ऐसा नहीं है। ऐसी स्थिति पिछले 20 सालों में पैदा हुई है, ऐसा नहीं है।
नेहरूवियन समाजवादी लोकतंत्र तेलगांना के किसान आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर पाया। वहां भूमि सुधार को लागू करने की बजाय किसानों आंदोलन का दमन और बड़े पैमाने पर किसान कार्यकर्तााओं की हत्याएं की गई। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने जब केरल में दुनिया में पहली बार लोकतंत्र में वोट की राजनीति का सहारा लेकर सत्ता में आई, तब भी सारे राजनीतिक मूल्यों, संविधान के प्रावधानों को एक किनारे करते हुए उसकी सरकार को बर्खास्त कर दिया। यही स्थिति जम्मू-कश्मीर की थी, जहां की सबसे बड़ी पार्टी के नेतृत्व को सालों जेल में बंद रखा गया और उन्हें मौत के मुंह की ओर ठेला गया।
भाषा, संस्कृति, जातीयता की पहचानों के आधार पर भारतीय राज्य के पुनगर्ठन का वादा कांग्रेस सत्ता में आते ही भूल गई और यह भूलने वाले कोई और नहीं ‘महान’ नेहरू ही थे। हिंसा और दमन के सहारे ऐसे राज्यों का गठन होते होते 21वीं सदी आ गई और आज भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई।
यहां सिर्फ और सिर्फ वह ऐतिहासिक हवाला दे रहे हैं, जिससे कि यह बात स्पष्ट हो कि भारतीय लोकतंत्र में एक राजनीतिक पार्टी किस तरह का प्रतिनिधित्व करती है और किस तरह अपने ही वादों से मुकर हो जाती है। ऐसे में एक राजनीतिक पार्टी किस आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक का पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रही है, तय करना मुश्किल होता है। फिर भी, इस संदर्भ में 1970 के दशक में उभरकर आये क्षेत्रीय दलों की व्याख्या राजनीतिक सिद्धांतकारों, जिसमें प्रो. रजनी कोठारी मुख्य हैं; ने किया। इसे मध्यम और धनी किसानों और शहरी वर्गों का राजनीतिक उदय माना गया। इसमें यह भी माना गया कि यह भारत के लोकतंत्र की एकीकृत संरचना में अपनी हिस्सेदारी मांग के साथ आया था। यानी यह फेडरलिज्म की संवैधानिक मान्यताओं के पक्ष में था जिससे वह अपनी स्थानीय आकांक्षाएं पूरी कर सके।
हालांकि इसी दौर में एक अखिल भारतीय स्तर का नक्सलबाड़ी आंदोलन उठ खड़ा हुआ और इसे 2004 में भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा भी घोषित कर दिया, का विश्लेषण इन्हीं मानदंडों पर नहीं हो सका। जबकि इस धारा से कई ऐसी बड़ी पार्टियों का उदय हुआ जो इन क्षेत्रीय दलों से कई गुना अधिक बड़े थे। इनमें से कई पार्टियों को आतंकवाद संबंधित प्रावधानों के सहारे प्रतिबंधित कर दिया गया। इन पर जो सरकारी रिपोर्टें जारी की गई उसमें साफ-साफ कहा गया था कि इन पार्टियों की जड़ों में भूमि स्वामित्व, संसाधनों पर अधिकार, श्रम और श्रमिक जीवन का सामंती शोषण, साम्राज्यवादी लूट, बेरोजगारी, सूदखोरी और राजनीतिक अवसर की कमी मुख्य है। ये सारे रिपोर्ट यह साबित कर रहे थे कि ये क्लासिकल संदर्भों में राजनीतिक पार्टी हैं। अब भी इन पार्टियों की सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों में व्याख्या बाकी है।
हम भारत की लोकतंत्र की मान्य राजनीतिक दलों के उभार और उनके शासन में आने की स्थितियों के बारे में बात करें। भारत में पहला राजनीतिक गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ 1970 में उभरे उन राजनीतिक दलों के बीच हुआ, जिसे सिद्धांतकारों ने एक नया उभार माना था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में नया उभरकर आया कांग्रेस अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए सरकारी एजेंसी का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटा और अंततः यह तानाशाही में बदल गया। इसके खिलाफ भारत का सबसे बड़ा गठबंधन जनता पार्टी अस्तित्व में आई। इसकी आधार भूमि ये क्षेत्रीय दल थे और इन्हीं के वोट से यह गठबंधन सत्ता में आई। जनता पार्टी जल्द ही बिखर गई और क्षेत्रीय दल अपने अपने वोट क्षेत्र में चले गये।
ऐसी स्थिति में आरएसएस ने जिस अखिल भारतीय स्तर के हिंदुत्ववादी राजनीति का जो फासीवादी मंसूबा पाल रखा था, उसके सिवाय एक अखिल भारतीय पार्टी बनने का दावा किसी और का नहीं दिख रहा था। इसके लिए वोट का समीकरण इन क्षेत्रीय दलों के भीतर से जाता था। यह हिंदुत्व का भारतीय लोकतंत्र में वोट सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया थी। आप अपनी जाति को आगे बढ़ाओ, क्षेत्रीय हितों को पूरा करो लेकिन हिंदुत्वकरण की प्रक्रिया में साथ आओ। इसके लिए एक तरफ कांग्रेस विरोध का महौल बनाने का सिलसिल शुरू हुआ और दूसरी ओर हिंदू बनाम मुस्लिम का विभाजक सामाजिक, सांस्कृतिक विभेद पैदा किया गया।
यह रास्ता जटिल था और इसमें कई राजनीतिक पार्टीयां भाजपा से दूर हो गईं। लेकिन, अंततः अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन अस्तित्व में आ गया। ऐसे में अगला कदम कांग्रेस का उठाना था और उसने सरकार में बाहर से समर्थन हासिल करने की रणनीति छोड़कर एकताबद्ध प्रगतिशील गठबंधन बनाने की ओर गया जिससे कि खिसकते वोट को क्षेत्रीय दलों के माध्यम से बचाया जा सके।
गठबंधन से हासिल वोट पार्टियों की संख्या के समीकरण से व्याख्यायित नहीं होते, ये जटिल हैं। लेकिन इससे भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी बन गई और कांग्रेस लुप्त होने से बच गई, इसका कंकाल सही ढांचा बच गया। भाजपा 2014 में भाजपा की जीत का मुख्याधार ये क्षेत्रीय दल ही थे, लेकिन 2019 तक आते आते मोदी के नेतृत्व में भाजपा इन क्षेत्रीय दलों से मुक्ति पाने की ओर बढ़ गई थी। इन क्षेत्रीय दलों को तोड़ना, नष्ट करना, इनके खिलाफ सरकारी एजेंसियों का प्रयोग इस हद तक चला गया, कि उनके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले नेतृत्व ने गठबंधन की जगह सोशल इंजीनियरिंग पर भरोसा करना ज्यादा मुनासिब समझा। चाणक्य एक दास-समाज वाले राज्य में पैदा होने वाले नीतिकार थे, जिन्होंने मौर्य राज्य की स्थापना में निर्णायक भूमिका निभाया था। भाजपा नेतृत्व अपने गठबंधन सदस्यों को लगभग दास-समाज के नियमों तक पहुंचा दिया। ऐसे में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का उभरकर आना लाजिमी है।
इससे भी अधिक भारत की आर्थिक, राजनीतिक, मीडिया और संस्कृति और अंततः समाज जिस तरह से सट्टेबाजों, वित्तीय घोटालेबाजों और मालिकों, कूपन काटकर अथाह मुनाफा कमाने वाले डिजिटल व्यवसायियों, सूदखोरों, महंगाई बढ़ाकर मुनाफा कमाने वालों और श्रम आधारित उद्योग की जगह सेवा आधारित उद्योगिक एजेंटों पर खड़ी हो गई अर्थव्यवस्था की जिस तरह से पकड़ बढ़ी है, उससे फासीवाद का रास्ता साफ होता है। आधुनिक दुनिया का इतिहास बताता है कि किसी देश में फासीवाद राष्ट्रवाद की पीठ पर चढ़कर आता है और जब यह उतरता है तब सिर्फ एक धर्म के सदस्यों को ही नहीं समाज के सभी उत्पादक समूहों का नाश करता है। इस समय यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति सामने है।
ऐसे में आगामी लोकसभा, 2024 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र की एक ऐसी जमीन पर लड़ा जाने वाला है जिसकी आधारभूमि का राजनीतिक सिद्धांतों में व्याख्या थोड़ी मुश्किल है। लेकिन, जिस फासीवादी राजनीति के खिलाफ गोलबंदी हो रही है, उसकी व्याख्या संभव है। ऐसे में गठबंधन से किसी भी नेतृत्कारी पार्टी के वोट में कुछ खास बदलाव की उम्मीद नहीं है, लेकिन वोट का पुनगर्ठन उन्हें चुनाव की गणित में जीत तक जरूर पहुंचा देगा। जैसा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में देखा गया।
भारतीय लोकतंत्र में गठबंधन का अर्थ राजनीतिक सिद्धांकारों की व्याख्या के अनुसार क्षेत्रीय दल ही है। इन संदर्भों में, कांग्रेस के नेतृत्व में उभरकर आ रहा गठबंधन वोट के समीकरण को तभी जीत तक ले जा सकेगा जब वह इसे राजनीति के साथ सीधा जोड़ सके। भाजपा के नेतृत्व का गठबंधन ऊपर से जरूर पार्टियों का गठबंधन लग रहा है, लेकिन यह सोशल इंजिनियरिंग से गढ़ा गया गठबंधन है जिसमें राजनीतिक विकल्प भाजपा की हिंदुत्व राजनीति और अर्थव्यवस्था मोडानी मॉडल के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं है। यह विकल्पहीनता में विकल्प की तलाश है, जिसके आधार में फासीवादी संकट अंतर्निहित है और एक बड़े विकल्प की मांग कर रहा है।