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राजनीति

मोहन भागवत में अगर साहस हो तो वे राहुल के प्रति आभार व्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने RSS के साथ-साथ भाजपा को भी बचा लिया है खत्म होने से

Janjwar Desk
6 Jun 2024 7:26 AM GMT
मोहन भागवत में अगर साहस हो तो वे राहुल के प्रति आभार व्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने RSS के साथ-साथ भाजपा को भी बचा लिया है खत्म होने से
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हर तरह की क़ीमत चुकाकर सत्ता में बने रहना मोदी के लिए इसलिए ज़रूरी हो गया है कि निहित स्वार्थों के जिस साम्राज्य को उन्होंने पिछले दस वर्षों में अपने इर्द-गिर्द खड़ा कर लिया है वह उनकी अनुपस्थिति में सांस लेने की कल्पना भी नहीं कर सकेगा...

वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी

Election 2024 Result : चार जून के ऐतिहासिक दिन मुंबई की ‘दलाल स्ट्रीट’ से जुड़े लाखों शेयर कारोबारी तबाह हो गए! निवेशकों को अनुमानित तौर पर तीस लाख करोड़ से अधिक का नुक़सान हो गया! सत्ता-प्रायोजित ‘एग्जिट पोल्स’ के चलते इतना सब हुआ पर मतगणना के नतीजों में मुल्क बच गया! चुनावी नतीजों में जनता ने नरेंद्र मोदी के बजाय राहुल गांधी पर ज़्यादा भरोसा जताया। कांग्रेस के युवा नेता ने भी भरोसे को टूटने नहीं दिया। मुल्क अधिनायकवाद की देहरी पर पहुँचने के पहले ही अपनी ज़मीन पर लौट आया!

पंद्रह अगस्त 1947 के 77 साल बाद 4 जून 2024 का दिन देश के लिए दूसरी आज़ादी हासिल करने का अवसर बन गया। चुनावों के सात चरणों में छुपे देश के दूसरे विभाजन के ‘जनमत संग्रह’ को नागरिकों ने साहस के साथ नकार दिया। नया विभाजन अगर सफल हो जाता तो पहले वाले से ज़्यादा ख़तरनाक साबित होता। हरेक शहर में गोधरा रेलवे स्टेशन और अहमदाबाद की गुलबर्ग कॉलोनी की तलाश होने लगती। पूरा मुल्क हरिद्वार जैसी ‘धर्म संसदों’ से पट जाता। दावों के साथ कहा जा सकता है कि अब कोई अनंत हेगड़े, लालूसिंह और ज्योति मिर्धा संविधान को बदलने की ज़रूरत समझाने की जुर्रत नहीं कर सकेगा!

राहुल गांधी ने न सिर्फ़ एक नई कांग्रेस को जन्म देकर युवा नेताओं की एक नई टीम खड़ी कर दी, अगले साल स्थापना के सौ साल पूरे कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और 45 साल पुरानी भारतीय जनता पार्टी को भी ख़त्म होने से बचा लिया। मोहन भागवत में अगर साहस हो तो वे राहुल के प्रति आभार व्यक्त कर सकते हैं। वे ऐसा करेंगे नहीं!

लोकसभा के चुनावों के साथ लोकतंत्र की बची हुई साँसें जुड़ गईं थीं। लड़ाई में केवल साधन-संसाधनहीन जनता ही राहुल के साथ थी। बाक़ी सब सत्ताएँ, सेनाएँ और साधन-संसाधन सरकार की क़ैद में नज़रबंद थे। सत्ता मानकर चल रही थी कि डरी-सहमी जनता इवीएम के ज़रिए सिर्फ़ कातरता और कायरता उगलने वाली है। उसे पक्का भरोसा था कि जिस अस्सी करोड़ जनता के हाथों में मुफ़्त अनाज के कटोरे थमा दिये गए हैं, वह पूँजीपतियों की ग़ुलाम हुकूमत के हाथों में तीसरी बार भी बहुमत थमा देगी। जनता ने ऐसा नहीं होने दिया। पहले जनता डरी हुई थी। अब हुकूमत सहमी हुई है।

सात चरणों में मतदान के बाद नतीजों के ज़रिए प्रकट हुआ जन-विरोध इस बात के प्रति भी हो सकता है कि मतदाता ने जिस व्यक्ति को अपने जैसा ही हाड़-मांस का शरीर समझकर सत्तारूढ़ किया उसने देखते ही देखते अपने आप को परमात्मा के अविश्वसनीय अवतार में परिवर्तित कर लिया। अपनी छवि को मतदाताओं की आँखों में तलाश करने के बजाय सड़कों के किनारे लगे बैनरों, पोस्टरों, बड़े-बड़े होर्डिग्स और कट-आउट्स में तलाशना शुरू कर दिया।

हर तरह की क़ीमत चुकाकर सत्ता में बने रहना मोदी के लिए इसलिए ज़रूरी हो गया है कि निहित स्वार्थों के जिस साम्राज्य को उन्होंने पिछले दस वर्षों में अपने इर्द-गिर्द खड़ा कर लिया है वह उनकी अनुपस्थिति में सांस लेने की कल्पना भी नहीं कर सकेगा। लाखों-करोड़ों भक्तों-समर्थकों की एक ऐसी जमात उन्होंने अपने ऊपर आश्रित कर ली है जो उनके सत्ता से बाहर हो जाने पर अपने अस्तित्व की ही व्यर्थता का अनुभव कर सकती है। सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े रहे पूँजीपतियों के समूहों को इनमें प्रमुखता से शामिल किया जा सकता है। इनके बारे में राहुल गांधी का आरोप रहा है कि ये ही सत्ता के असली मालिक हैं। मोदी तो केवल मुखौटा हैं। चुनाव परिणामों के बाद प्राप्त हुई प्रतिक्रियाओं और शेयर बाज़ार की तबाही में इस सचाई की तलाश की जा सकती है।

विपक्षी गठबंधन ने सरकार बनाने का दावा पेश करने में जल्दबाज़ी न दिखाते हुए उचित वक्त पर उचित कदम उठाने का जो निर्णय अपनी पहली बैठक में लिया है, वह इसलिए सही है कि एक लंबी गुमनामी के बाद आंध्र की सत्ता में लौटे चंद्रा बाबू नायडू और घोर अवसरवादी नीतीश कुमार के समर्थन की बैसाखियों पर अब ज़िंदा रहने वाली एनडीए सरकार को अपने अंतर्विरोधों के बोझ से ही ध्वस्त होने के लिए कुछ वक्त ज़रूर दिया जाना चाहिए। पिछले दस सालों में भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं की रगों में जमा हुए असंतोष और नाराज़गी के मवाद को भी इस दौरान सार्वजनिक रूप से फूट पड़ने का अवसर मिल जाएगा। बंद कमरों में उसकी शुरुआत भी शायद हो चुकी हो!

चार जून के नतीजों ने इतना भर तो कर ही दिया कि पाँच जून के सूर्योदय के साथ ही मुल्क की ज़िंदगी में बदलाव दिखना शुरू भी हो गया। भारत को अब एक हिन्दू राष्ट्र घोषित नहीं किया जा सकेगा। संविधान नहीं बदला जा सकेगा। नए मंदिर बनेंगे, पर स्थापित धार्मिक स्थलों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी। संसद में विपक्ष के सवालों के जवाब भी मिलेंगे और प्रधानमंत्री को बोलना भी पड़ेगा।

उपसंहार: चार जून के सूर्योदय के समय कितने लोगों ने कल्पना की होगी कि सूर्यास्त होने तक उस स्वप्नदर्शी अधिनायकवादी सत्ता के अंधकार में डूबने का काल प्रारंभ हो जाएगा जो अगले सौ सालों तक राज करने का जनता से अधिकार प्राप्त करना चाहती थी?

(इस लेख को shravangarg1717.blogspot.com पर भी पढ़ा जा सकता है।)

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