पंजाब में एससी/एसटी 33 फीसदी से ज्यादा, मगर पूरा बसपा वोटबैंक नहीं, अकालियों के साथ गठबंधन क्या करेगा कमाल?
(कृषि कानूनों पर अकाली और भाजपा का मोगा डिक्लेरेशन टूट गया। अब दोनों पार्टियों की राह अलग अलग है।)
चंडीगढ़ से मनोज ठाकुर की रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो। तीन कृषि कानूनों पर अकाली दल ने अपने पारंपरिक सहयोगी भाजपा से सियासी रिश्ता तोड़ लिया। लगभग बीस साल तक दोनों पार्टियां पंजाब में साथ साथ चुनाव लड़ती रही। 1997 में पहली बार चुनाव लड़ा था।
अकाली और भाजपा के बीच यह गठबंधन इतने साल यूं ही नहीं चला। इसके सियासी मायने थे। अकाली दल और भाजपा के बीच 1996 में मोगा डेक्लरेशन में तीन बातों पर जोर दिया गया। पंजाब की पहचान, आपसी सौहार्द और राष्ट्रीय सुरक्षा। 1984 के दंगों के बाद सूबे का माहौल काफी खराब हो गया था। सिख चेहरा अकाली दल और नान सिख चेहरा भाजपा आपस में मिल कर इस सौहार्द को कायम करने का काम करेंगे।
लेकिन कृषि कानूनों पर अकाली और भाजपा का मोगा डिक्लेरेशन टूट गया। अब दोनों पार्टियों की राह अलग अलग है। दो दशक तक सहयोगी के साथ चुनाव लड़ने वाले अकाली दल को एक बार फिर से किसी साथी की तलाश थी। यह तलाश ही उन्हें बहुजन समाज पार्टी के नजदीक लेकर पहुंची।
अकाली दल अपने सिख वोटर्स के दम पर अकेले सत्ता में आने का दम नहीं रखता। इसलिए उन्हें ऐसे सहयोगी की तलाश रहती है, जो उनके वोट काटने की बजाय बढ़ाए। इस खाके में बीजेपी माफी मुफीद बैठती थी। लेकिन कृषि कानूनों पर भाजपा का साथ छोड़ना अकाल दल की मजबूरी था। क्योंकि अकाली दल यदि यह निर्णय न लेता तो पंजाब के किसानों का गुस्सा उनके प्रति भी भड़क उठता। किसानों का गुस्सा और रोष दोनो अकाली दल झेलने की स्थिति में नहीं है। इसलिए बीजेपी से अलग होना उनकी मजबूरी और जरूरी दोनो है। बसपा से अकाली दल का लगभग 25 साल पहले भी गठबंधन रहा है। अकाली दल और बसपा 1996 लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन कर चुके हैं। 1996 लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन ने पंजाब की 13 में से 11 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। बीएसपी चुनाव में सभी तीन सीटों और अकाली दल 10 में से 8 सीटों पर जीते थे।
तो क्या इस बार बसपा अकाली दल की सियासी नैया पार लगा पाएगी? पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक संतोष सिंह कहते हैं मुश्किल है। क्योंकि अकाली दल सत्ता से बाहर होते ही जमीनी पकड़ बनाने में नाकामयाब रहा है। पूर्व सीएम प्रकाश सिंह बादल उम्रदराज हो गए हैं। उनकी जगह उनके बेटे और पूर्व डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल में अपने पिता की तरह लोगों को जाड़ने की कला नहीं है। वह संतोष सिंह ने बताया कि सुखबीर बादल से मिलना काफी मुश्किल काम है। इसके विपरीत उनके पिता प्रकाश सिंह बादल से सीएम रहते हुए भी लोग आसानी से मिल लिया करते थे।
इसमें दो राय नहीं कि पंजाब में एससी एसटी वर्ग 33 प्रतिशत से ज्यादा है, लेकिन यह सारा बसपा का वोट बैंक नहीं है। इसमें आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का भी हिस्सा है। अकाली दल बसपा ने जो गठबंधन किया है, इसके मुताबिक पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में से 20 सीटों पर बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी जबकि बाकी 97 सीटों पर अकाली दल चुनाव लड़ेगा। इस गठबंधन के माध्यम से अकाली दल की नजर पंजाब के करीब 33% बड़े दलित वोट बैंक पर है। बीएसपी को दी गई सीटों में से मुख्य रूप से करतारपुर, जालंधर वेस्ट, जालंधर नॉर्थ, फगवाड़ा, होशियारपुर शहर, टांडा, दसूहा, चमकौर साहिब, लुधियाना नॉर्थ विधानसभा सीटें शामिल है।
पंजाब के राजनीति उतार चढ़ाव पर नजर रखने वाले पंजाबी के वरिष्ठ स्तंभकार सुखबीर सिंह न बताया कि तब और आज के हालात में काफी अंतर आ गया है। पंजाब की सियासी तासीर बदल चुकी है।