उमेश डोभाल पत्रकारिता पुरस्कार पर पूर्व पत्रकार ने उठाया सवाल, कहा दलित पत्रकार किशोर मानव को क्यों नहीं किया शामिल?
उमेश डोभाल पत्रकारिता सम्मान पर पूर्व पत्रकार ने उठाया सवाल, कहा दलित पत्रकार किशोर मानव को क्यों नहीं किया शामिल?
Umesh Dobhal Patrakarita Samman : उमेश डोभाल पत्रकारिता सम्मान उत्तराखंड का चर्चित पुरस्कार है, मगर इस बार इसमें पात्रता के चयन को लेकर पूर्व पत्रकार और वर्तमान में मुक्त विश्वविद्यालय में शिक्षक भूपेन सिंह ने सवाल उठाकर इसे कटघरे में खड़ा कर दिया है। उन्होंने इस बार पुरस्कारों का चयन करने वाली समिति पर सवाल उठाते हुए कहा है कि अगर उत्तराखण्ड के सवालों और निर्भीकता को लेकर ही यह पुरस्कार दिया जाता है तो इसमें जनज्वार के दलित पत्रकार रहे किशोर मानव को शामिल क्यों नहीं किया गया। अपनी रिपोर्टिंग को लेकर प्रशासन के निशाने पर रहे किशोर एक महीने से ज्यादा वक्त जेल में भी बिता चुके हैं।
भूपेन सिंह उमेश डोभाल पत्रकारिता सम्मान पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, अभी कुछ दिन पहले फेसबुक पर मैंने पत्रकारिता के रामनाथ गोयनका पुरस्कारों के बारे में लिखा था. वो आरएसएस नेता के नाम पर दिये जाने वाले कॉरपोरेट पुरस्कारों की राजनीति की तरफ़ ध्यान खींचने की एक कोशिश थी. अब उमेश डोभाल पुरस्कारों के बारे में लिख रहा हूं. कोई भी पुरस्कार राजनीति से बाहर नहीं हैं-ये भी नहीं.
समाज में वर्चस्ववाली विचारधारा और उसे चुनौती देने वाली विचारधाराओं के बीच निरंतर राजनीतिक संघर्ष चलता रहता है. मेरे लिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार नव उदारवादी नीतियों को बढ़ावा देने वाले और सत्ता समर्थित हैं तो उमेश डोभाल उसकी काउंटर राजनीतिक संस्कृति का पुरस्कार. अगर ये दोनों ही पुरस्कार किसी भी लिहाज से एक जैसे दिखायी देने लगें तो ये वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति के धुंधला होने का संकेतक होगा.
इतने वर्षों से उमेश डोभाल पत्रकारिता पुरस्कार दिये जा रहे हैं. क्यों दिये जा रहे हैं? सिर्फ़ औपचारिकता के लिए या उनके उत्तराखंड की पत्रकारिता में कुछ ख़ास मतलब भी निकल रहे हैं? इतिहास में कई ऐसे लोगों को ये पुरस्कार मिल चुका है, जो वैकल्पिक संस्कृति के वाहक बनने के बजाय मुख्यधारा के पक्षधर बनने में गौरव महसूस करते रहे हैं.
क्या कॉरपोरेट मीडिया और उसके वैकल्पिक मीडिया में कोई फ़र्क नहीं किया जाना चाहिए? अगर नहीं तो कॉरपोरेट मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों को पुरस्कार देने के क्या मानदंड होने चाहिए? सलेक्शन करने वाली जूरी किन बातों के आधार पर पुरस्कारों की घोषणा करती है?
उमेश डोभाल को जब मारा गया था तब मैं बच्चा था उस घटना की मुझे कोई याद नहीं. लेकिन होश संभालने के बाद मैंने ख़ुद को उन लोगों के बीच पाया जो उसके वैचारिक समर्थक थे. उमेश के जानने वालों और उनके क़रीबी दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना होता रहा. उमेश एक व्यक्ति-पत्रकार से बढ़कर अपनी शहादत के बाद उत्तराखंड में वैकल्पिक संस्कृति का एक प्रतीक बन गया. क्या अब तक पुरस्कार पाने वाले सभी पत्रकार उस साहस या उस धारा का सचमुच प्रतिनिधित्व करते रहे हैं?
मैं कई सालों से उमेश डोभाल स्मृति समारोह में जाता रहा हूं. मेरी इच्छा है कि इस मंच को एक सालाना औपचारिकता से आगे बढ़कर वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए. इसमें अगर साथी मेरी भी किसी तरह की भूमिका देखना चाहेंगे तो मैं साथ खड़ा रहूंगा. हैरानी की बात है कि कई पुरस्कार प्राप्त पत्रकार सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरस्कार प्राप्त करने ही इन समारोहों में आये. न आगे न पीछे. ये पुरस्कार उनके रिज्यूमे में एक लाइन बढ़ाने के अलावा और किसी काम नहीं आया. न ही उन्होंने उमेश डोभाल के कामों और व्यक्तित्व से कोई प्रेरणा ली.
ये बातें मैं इसलिए भी लिख रहा हूं कि जैसे आरएसएस नेता और एक मीडिया कंपनी के मालिक के नाम पर रामनाथ गोयनका पुरस्कार लेने में कई वामपंथी माने जाने वाले पत्रकार बिल्कुल ही भोलाराम बन चुके हैं. वैसे ही इस पुरस्कार का हश्र न हो जाए. एक शहादत देने वाले पत्रकार के नाम पर चालूराम इसका फ़ायदा न उठा लें. सच को झूठ और झूठ को सच में बदल दिये जाने वाले इस दौर में इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है.
इस बार जिन लोगों को पुरस्कार मिला है. सब अच्छे लोग हैं. अतुल सती पुराने साथी हैं, जोशीमठ में उनका जुझारूपन सब देख रहे हैं. हिमाशु जोशी मेरा छात्र रहा है और ज़रूरी मुद्दों पर लगातार लिख रहा है. कमलेश भट्ट और भास्कर भौर्याल से भी निजी परिचय है. सिर्फ़ जयदीप सकलानी से कोई मुलाक़ात नहीं, लेकिन उनके सामाजिक सरोकारों के मेरे सभी दोस्त क़ायल हैं.
इस सबके बावज़ूद एक बात मुझे चुभती है कि पिथौरागढ़ में दलित उत्पीड़न की ख़बर के लिए पुलिस दमन झेलने वाले पत्रकार किशोर मानव को अब तक ये पुरस्कार क्यों नहीं मिला? अगर ये पुरस्कार उसे मिलता तो इसके कई तरह के प्रतीकात्मक मायने होते. साल-दर-साल किन-किनको पुरस्कार मिल गये, लेकिन वर्षों से पत्रकारिता कर रहे जहांगीर राजू को भी अब तक ये पुरस्कार नहीं मिला है. अगर कॉरपोरेट मीडिया में काम करना कोई बाधा नहीं है तो उसे भी पुरस्कार ज़रूर मिल जाना चाहिए था. एक जाति-सम्प्रदाय-जेंडर विभाजित समाज में इस तरह के निर्णयों को सचेत तौर पर लिया जाना चाहिए-लोकतांत्रिक तकाजा यही कहता है. इसके अलावा और भी कई पत्रकार हैं जिनके लेखन और संघर्ष में एक निरंतरता रही है लेकिन अब तक उन्हें भी ये पुरस्कार नहीं मिला.