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समाज

लालबहादुर वर्मा ताउम्र कहते रहे सत्ता का सारा षड्यंत्र इसी बात पर है कि मनुष्य सामाजिक न रह जाए

Janjwar Desk
17 May 2021 6:12 AM GMT
लालबहादुर वर्मा ताउम्र कहते रहे सत्ता का सारा षड्यंत्र इसी बात पर है कि मनुष्य सामाजिक न रह जाए
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जेएनयू में फीस वृद्धि के खिलाफ हुए आंदोलन में भागीदारी करते हुए लालबहादुर वर्मा

लालबहादुर वर्मा ने समाज और देश को लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई घर से शुरू करने का आह्वान किया, वे ताउम्र लोकतंत्र की लड़ाई को मजबूत करने के लिए देश के बौद्धिकों को सचेत करते रहे...

बौद्धिकता और राजनीति के बीच तालमेल के पक्षधर और सामाजिकता के सशक्त पैरोकार थे लाल बहाुदर वर्मा, उन्हें याद कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा

जनज्वार। लाल बहादुर वर्मा हमारे बीच से प्रस्थान कर चुके हैं। उनके विचार हमें उद्वेलित रखे हुए हैं। वह गोरखपुर, इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष रहे और शहर की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों में अपना योगदान देते रहे। वहां से इलाहाबाद गए और वहां से इतिहास दृष्टि का फैलाव करते, देहरादून की शिवालिक घाटियों में जाकर अब विदा ले चुके हैं। उनके विचार अभी भी हमारे पास हैं। वह बौद्धिक समाज की दिशा और दशा पर चिन्तित रहे। शायद अपेक्षाओं पर खरा उतरना देखना चाहते थे।

वह लिखते हैं, 'आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण समस्या रही है बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व के बीच तालमेल का अभाव और असंतुलन। सत्तापक्ष के बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी तो स्वयं अपनी जगह बना लेते हैं पर विरोध के जनपक्षधर बुद्धिजीवी, सिद्धान्त तथा आदर्श और व्यवहार के द्विविधा में फंसकर सही राजनीति नेतृत्व न मिलने पर या तो बीच में झूलते रहते हैं-कभी इधर कभी उधर या त्रिशंकु बन जाते हैं- न इधर न उधर, ऐसे में वे सत्ता पक्ष के ही हित का पोषण करते हैं; या फिर स्खलित हो लुढ़कते-पुढ़कते सत्ता के गोद में ही जा गिरते हैं। समकालीन गोर्की, लूशुन और प्रेमचन्द-निराला-फिराक की विकास यात्राओं में राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका का तुलनात्मक अध्ययन निश्चित ही बहुत जरूरी है, क्योंकि उससे बहुत सी राहें खुलेंगी-साहित्य ही नहीं राजनीति की भी।'(इतिहास बोध-24-1996)।

वह इस समाज की पतनशीलता से वाकिफ हैं। वह भेदभाव और यहां की वर्णवादी अमानवीयता को रेखांकित करते हैं।' वह आगे लिखते हैं, 'भारत में जनपक्षधर मनीषियों और बौद्धिक विद्रोहियों को हमेशा हाशिए पर फेंका जाता रहा है। भक्ति आन्दोलन ने अपनी सीमाओं के बावजूद पहली बार यह स्थापित किया कि जनपक्षधरता पर सत्ता पर्दा नहीं डाल सकती। ....आधुनिक भारत का तथाकथित पुनर्जागरण उतना ही विकलांग और अपूर्ण था जितना उसका वाहक भारत का मध्यमवर्ग। राजा राममोहन राय और ज्योतिबा फुले का तुलनात्मक अध्ययन हमें बतायेगा कि राममोहन राय की वरीयता इसलिए स्थायी हुई क्योंकि वह राजा भी थे और नागर तथा मध्यवर्गीय हितों के विशेष रूप से पोषक भी। .....ज्योतिबा के सरोकार निश्चय ही अधिक व्यापक थे पर वह थे तो माली! इतिहास में सामन्ती और पूंजीवादी राजनीतिक नेतृत्व में कभी भी संस्कृति के क्षेत्र में नेतृत्व देने की क्षमता नहीं रही है। यह केवल सर्वहारा राजनीति में संभव हुआ है कि राजनीति संस्कृति को भी नेतृत्व दे सकती है-सिद्धान्त में ही नहीं व्यवहार में भी। लेनिन ने गोर्की को और माओ ने लू-शुन को नेतृत्व दिया था। हमारे देश में भी फासीवाद विरोधी दौर में प्रगतिशील आन्दोलन और इप्टा के जमाने में 'पाॅलिटिक्स इन कमांड' का दौर आया था पर वह विभिन्न कारणों से बिखर गया।' (इतिहास बोध-24-1996)।

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लाल बहादुर वर्मा मार्क्सवादी विचलन पर सकारात्मक दृष्टि रखते हैं। वह बुद्धिजीवी समाज से जो अपेक्षाएं रखते हैं वह विचलन को न्यून करने की ही हैं। वह लिखते हैं, 'भारतीय समाज में वेद-वेदान्त के संदर्भ में इतिहासग्रस्त हो जाना बहुुत स्वाभाविक है। उससे निराला ही नहीं, रामविलास शर्मा जैसे वैज्ञानिक सोच से लैस माक्र्सवादी चिन्तक भी नहीं उबर पाये हैं। पर इसके कारण उनकी अर्थवत्ता कम नहीं होती, बल्कि समस्या चिन्हित होती है कि भारत जैसे देश में भी बौद्धिक और व्यवहारिक परंपराओं में सकारात्मक और नकारात्मक के बीच निर्णय करना कितना कठिन है।' (इतिहास बोध-24-1996)।

इतिहास बोध 22 अंक में छपे इरफान हबीब के लेख पर एक पाठक के पत्र का जवाब देते हुए लाल बहादुर वर्मा लिखते हैं, 'कम्युनिस्ट ही वास्तव में वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास रखता है। सिद्धांन्त उसके लिए एक इकाई है मानव-समाज जो शोषकों और शोषित में बंटा हुआ है। सारे शोषक अपना अंतरराष्ट्रीयवाद चलाते हैं-आजकल तो उनकी चांदी है, और सारे शोषितों को भी अन्ततः इस सच्चाई को स्वीकारना ही पड़ेगा। तभी उनके संघर्ष सफल होंगे।'

आधुनिक शोषकों द्वारा फैलाए जा रहे नफरत और विभाजन को केन्द्रित करते हुए, 'लोकरंग 2018' की वैचारिक गोष्ठी में डाॅ. लाल बहादुर वर्मा ने कहा था, 'सामाजिकता के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं रह सकता। आज सारा षड्यंत्र इसी बात का है कि हम सामाजिक न रह जाएं। मनुष्य सामाजिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक प्राणी होता है। नाटक तभी चरितार्थ होता है जब वह दर्शकों के सामने प्रस्तुत होता है। दर्शक भी नाटक को रचते हैं।'

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उन्होंने समाज और देश को लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई घर से शुरू करने का आह्वान किया। ताउम्र, लाल बहादुर वर्मा लोकतंत्र की लड़ाई को मजबूत करने के लिए देश के बौद्धिकों को सचेत करते रहे। अब वह उस लड़ाई को आने वाली पीढ़ियों के हाथों में सौंप प्रस्थान कर चुके हैं। इतिहासबोध तो यही कहता है कि हमें इस जिम्मेदारी को आगे बढ़ाना चाहिए।

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