आंदोलन की इज्जत के नाम पर युवती के यौन उत्पीड़न को छुपाना खापों और उनके चौधरियों की मानसिकता से अलग कैसे?
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युवती के यौन उत्पीड़न को लेकर मनोज ठाकुर का विश्लेषण
जनज्वार ब्यूरो,चंडीगढ़। इस साल जनवरी के पहले सप्ताह की बात है। शाम के वक्त हल्की बरसात हो रही थी। मैं सिंघु बार्डर पर किसान आंदोलन में था। यूं ही घूमते हुए एक बुक स्टाल पर नजर पड़ी। सोचा कुछ किताब खरीद ली जाए। स्टाल के अंदर आया। राजस्थान के इंदौर की मास कॉम के फाइनल ईयर की छात्रा स्टाल की जिम्मेदारी संभाले हुए थी। स्टाल पर वामपंथी साहित्य के साथ साथ भगत सिंह और कई लेखकों की किताब थी। बात किताबों से चलती हुई किसान आंदोलन और महिलाओं व लड़कियों की भागीदारी पर आ गई।
लड़की ने बताया कि आंदोलन में महिलाओं की सुरक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें नहाने, टॉयलेट जाने में खासी दिक्कत आती है। जब तक उसके दोस्त उसके साथ न जाए, व नहाने और टॉयलेट नहीं जाती। आंदोलन को लेकर उसकी शिकायत थी, यहां महिला सुरक्षित नहीं है। एक और शिकायत उसने की, रात को बड़ी संख्या में लोग शराब पीते हैं। इस छात्रा ने बताया वह अपनी और दूसरी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित हूं।
उसकी चिंता वाजिब थी। क्योंकि वह हरियाणा जो कुख्यात रहा है, कन्या भ्रूण हत्या के लिए। जहां प्रेम करने वाली लड़कियों की सम्मान के नाम पर हत्या कर दी जाती है। वह हरियाणा जहां महिला पुरुष की इजाजत के बिना घर की दहलीज से पार नहीं जा सकती। उस हरियाणा के बॉर्डर पर आंदोलन में महिलाओं की रिकॉर्डतोड़ भागीदारी।
मूछ, पगड़ी, हुक्का और लठ जहां किसान आंदोलन का प्रतीक बन कर उभरा, वहीं महिलाओं की भागीदारी यहां के समाज की पारंपरिक वर्जनाओं को तोड़ती नजर आ रही थी। इस सब ने किसान आंदोलन को एक नई ऊंचाई और उर्जा प्रदान की। आंदोलन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाने में महिला आंदोलनकारियों की भूमिका बड़ी रही।
लेकिन अफसोस, किसान नेता महिलाओं की सुरक्षा करने में विफल रहे। बंगाल की युवती के रेप कांड के बाद किसान नेताओं की वहीं पुरुषवादी सोच सामने आई। घटना को दबा दिया जाए। जैसा कि आमतौर पर यहां के पुरुष इस तरह के मामलों में करते हैं। यौन उत्पीड़न की पीड़ित को चुप करा दिया जाए। बोलेगी तो बेइज्जती हो जाएगी।
आंदोलन के अग्रणी नेताओं को बंगाल की युवती के साथ यौन उत्पीड़न की घटना की जानकारी थी। लेकिन वह इसे दबाते रहे। योगेंद्र यादव स्वीकार करते हैं, उन्हें घटना का पता था। वह यह भी स्वीकार करते हैं कि छेड़छाड़ से ज्यादा हुआ है। फिर क्यों चुप थे?
सवाल योगेंद्र यादव की सोच पर खड़े हो रहे हैं। क्यों, इतनी लंबी चुप्पी साधी? क्या किसी को बचा रहे थे, या आप स्वयं भी उस खांटी हरियाणा की उस पुरूषवादी सोच से उभर नहीं पाए?
एक युवती का यौन उत्पीड़न होता है, वह कोविड से संक्रमित हो अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठती है। किसान नेताओं को सब पता होता है, फिर भी किसान नेता चुप्पी के खोल में घुसे रहे हैं। क्या यह मामला दबाने की कोशिश नहीं है। तुम्हारी अंतरआत्मा क्यों चित्कार नहीं कर उठी, कि एक युवती को इंसाफ मिलना चाहिए। क्या आप इसलिए चुप रहे, क्योंकि वह एक महिला है।
अगर किसान नेताओं में जरा भी नैतिकता होती तो खुद चलकर युवती को इंसाफ देने की पहल करते। स्वयं आरोपियों को पुलिस के हवाले करते, न कि उन्हें बचाने की कोशिश में टिकरी बॉर्डर से इधर उधर होने की सलाह देते।
क्या आप चुप रह कर आंदोलन को बदनाम होने से बचाना चाह रहे थे। क्या आपके आंदोलन की बुनियाद इतनी कमजोर है कि कुछ भेड़ियों की करतूत पर बोलने की बजाय आप चुप हो जाते हैं?
भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) एकता उगराहां के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां के धरने की ताकत तो महिलाओं से हैं, फिर आप क्यों अपनी ताकत को कमजोर होता देखते रहे।
किसान नेताओं की यह चुप्पी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका साबित हो रही है। ऐसा झटका जिससे उभरना अब उनके लिए आसान नहीं होगा। कम से कम अब तो कतई ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। 26 जनवरी की घटना के बाद आंदोलन की पकड़ ढीली हो गई थी। अब रही सही कसर यौन उत्पीड़न की घटना और इसके बाद नेताओं की चुप्पी ने पूरी कर दी है।
आरोपियों के खिलाफ बोल कर किसान नेता चाहते तो एक बड़ा उदाहरण पेश कर सकते थे। उनके पास मौका था, वह घटना को दबाने या चुप रहने की बजाय इस पर खुल कर बोलते। पीड़िता को इंसाफ दिलवाने के लिए एकजुट होते। आरोपियों को सख्त से सख्त सजा दिलवाते। साबित कर सकते थे, उनकी नजर में लड़का और लड़की बराबर है। कसूर कोई भी करें, उसे सजा मिलेगी।
इससे आंदोलन और किसान नेताओं को मजबूती मिलती। उन्हें तब लोगों का समर्थन तब और ज्यादा मिलता। महिला आंदोलनकारियों में विश्वास पैदा होता। वह माता पिता जिनकी लड़कियां आंदोलन में हैं, उन्हें यह जानकार सुकून मिलता कि उनकी बेटियां सुरक्षित हाथों में हैं।
लेकिन चुप रह कर उन्होंने अपनी कमजोरी को ही दिखाया है। जिसका खामियाजा अब उन्हें स्वयं और आंदोलन को भी भुगतना पड़ सकता है।
किसान नेता जैसा सोच रहे थे, वैसा हुआ भी नहीं। मामला सामने आ गया। पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली। पुलिस जांच के नाम पर अब जैसा चाहे वैसे मामले एंगल दे रही है। किसान नेताओं के पास अब बचने का रस्ता नहीं है। वह खुद को लाचार और असहाय महसूस कर रहे हैं। क्योंकि
अब मामले को दबाने वाले किसान नेता खुद सवालों के घेरे में है। क्योंकि सरकार तो पहले ही आंदोलन के खिलाफ है। इसे खत्म करने का मौका प्रशासन लगातार खोज रहा था। अब मौका मिल गया।
पूछताछ के नाम पर पुलिस अब आंदोलन को लगातार चोट पहुंचा रही है। पुलिस की पूछताछ से ज्यादा इसका प्रचार प्रसार किया जाता है। जिससे आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले पीछे हटे।
पुलिस अपनी कोशिशों में कामयाब हो रही है। जिस योगेंद्र यादव से बात करते हुए पहले प्रशासन दस बार सोचता था। अब उन्हें पूछताछ के लिए नोटिस जारी कर तलब किया जाता है। पुलिस का रवैया उनके प्रति उसी तरह से रहता है, जैसा कि पुलिस आमतौर पर अपनी पूछताछ में करती है।
अभी तक दर्जन भर नेताओं से पुलिस पूछताछ कर चुकी है। पूछताछ की लिस्ट अभी लंबी है। पूछताछ का सिलसिला पुलिस लंबा चलाने की कोशिश में है।