"42 की उम्र में भी शमा सिकंदर लगती हैं हॉट"; ऐसी खबरें एक दिन आपको बर्बाद कर देंगी !
हुसैन ताबिश की टिप्पणी
ये डिजिटल मीडिया का दौर है। यहां अब खबरों के पुराने सभी मानक ध्वस्त हो चुके हैं। खबरें सिर्फ हेडिंग से बिकती है। थोड़ी बहुत की वर्ड से भी। यहां, बिकना इसलिए क्योंकि खबर अब मेन स्ट्रीम मीडिया के लिए सिर्फ एक प्रोडक्ट भर है।
जी, हां बिल्कुल सही पढ़ा है आप ने। उत्पाद ही लिखा है मैंने, ठीक वैसे ही जैसे - साबुन, तेल, टूथपेस्ट, हार्पिक , मच्छर मार अगरबत्ती या कोई अन्य उपभोक्ता वस्तुएं होती है! आज की पत्रकारिता और उसकी खबरों की इस दुर्गति के लिए आप अकेले किसी पत्रकार या मीडिया समूह को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं। ये सब कुछ बाजार आधारित व्यवस्था का हिस्सा है।
बाजार के नियम बहुत कठोर और निर्मम होते हैं। वहां बिकने वाली हर वस्तु और सेवा का एक ही मकसद होता है; और वो है मुनाफा कमाना। इस धंधे में मोटा पैसा इन्वेस्ट होता है, तो बिना फायदे के कोई पैसा क्यों लगाएगा ? पिछले डेढ़ दशक में व्यापारियों के कई न्यूज चैनल्स, अखबार, मैगजीन और न्यूज पोर्टल्स को बंद होते हुए देखा है। बहुत उत्साह के साथ आया मालिक छह माह या साल भर से जायदा घाटा बर्दाश्त नहीं कर पाया, और अपना लंगोट संभाल कर भाग गया।
आप किसी को दस रुपए भीख नहीं देना चाहते हैं, जबकि आम हिन्दुस्तानियों की मान्यता है कि दान देने से मरने के बाद परलोक सुधरता है! फिर मीडिया बिजनेस में पैसा लगाने वाले किसी कारोबारी से मुफ्त में पत्रकारिता के जरिए सत्यता निष्पक्षता, देश, समाज, और लोकतंत्र बचाने की उम्मीद क्यों रखते हैं?
खबरों का स्टैंडर्ड गिराने में आप भी बराबर के हिस्सेदार हैं। तिलमिला गए न ? भरोसा नहीं हुआ न? अभी रुकिए जरा। आगे सबूत भी है।
पहले हम अखबारों के पाठकों की पहचान नहीं कर पाते थे कि आखिर वो क्या पढ़ता है? अखबार की 5 लाख कॉपी बिकती थी तो अखबार मान लेता था कि उसके 25 लाख पाठक हैं। पाठक कौन- सी खबर पढ़ता है, पढ़ता भी है या अखबार का सिर्फ बीड़ी बनाकर उसे रद्दी में बेचता है, इसकी खबर भी नहीं होती थी।
लेकिन अब हम डिजिटल मीडिया के पाठकों का पूरा ब्यौरा रखते हैं। आप कौन - सी खबर पढ़ते हैं और कितनी देर तक पढ़ते हैं। मेरी खबर दुनिया के किस हिस्से में पढ़ी गई है, इस बात की भी जानकारी मेरे पास होती है।
हम देख रहे हैं कि
'शमा सिकंदर 42 की उम्र में भी हॉट लगती है' , 'खजूर खाने से आती है घोड़े जैसी ताकत', 'एलन मस्क की गर्लफ्रेंड को देखकर छूट जाएंगे पसीने ', 'सोमवार को काले कुत्ते को रोटी खिलाने से होता है ये लाभ', 'पड़ोसी के घर से निकल रही थी चूं चूं की आवाज, दरवाजा खुला तो दंग रह गए लोग ', 'दूसरे धर्म की लड़की से करता था प्यार, लोगों ने किया ये हाल ', ' 50 मिलियन से भी ज्यादा बार देखा गया भोजपुरी गीत 'मरद अभी बच्चा बा'', ऐसी खबरें आपने खूब पसंद किया है। शाम ढलते ही शमा सिकंदर की खबर पर हजार से 5 सौ लोग आ जाते हैं।
दूसरी तरफ,
'राजस्थान में स्टाम्प पेपर पर लड़कियों की लगती है बोली ' , यूक्रेन रूस की जंग से दुनिया में पैदा होगा खाद संकट, कम बारिश से पैदावार घटने की संभावना, विधायक तोड़ने के चलन से लोकतंत्र को खतरा, महाराष्ट्र में 5 हजार किसानों ने की पिछले एक साल में आत्महत्या ' आप इन खबरों के दूर - दूर भी नहीं फटकते हैं। मानो ये कोई जहर है, इसे पढ़ने से लोग मर जाएंगे!
आपने मीडिया को खेमों में बांट दिया है। गोदी मीडिया, दलाल मीडिया, दरबारी मीडिया और कांग्रेसी मीडिया। मेरे हिसाब से दो ही मीडिया है, मुख्यधारा की कारपोरेट मीडिया और दूसरी तरफ छोटे मोटे वैकल्पिक और स्टार्टअप मीडिया, जो पत्रकारिता को जिंदा रखना चाहते हैं। (यहां भी दुकानदारों को बख्श रहा हूं)
खबरों की 95 परसेंट स्पेस पर बड़े मीडिया घरानों का कब्जा है। आप अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर मीडिया समूह और पत्रकारों का विरोध और समर्थन तो करते हैं, लेकिन आप ऊल - जुलूल की खबरों, टेबल स्टोरी, वन साइडेड स्टोरी, पूर्वाग्रह से ग्रस्त खबरें, अपमानजनक खबरों पर कभी अपना विरोध नहीं जताते हैं। सस्ती, ओछी और छिछोड़ी खबरें आप बड़े चाव के साथ देखते और पढ़ते हैं। शमा सिकंदर का 42 की उम्र में हॉट दिखना भला कौन सा खगोलीय घटना है ? इस उम्र की दूसरी महिलाएं भी हॉट दिखती होंगी, लेकिन आप रोज हजारों और महीने में लाखों की संख्या में इस खबर को पढ़ते हैं!
जब पाठक अच्छी खबरें नहीं पढ़ेगा तो कोई इसे छाप कर क्या करेगा? अच्छी खबरों पर रिपोर्टर से लेकर एडिटर्स तक की घंटों और कई - कई दिनों के मेहनत होती है, लेकिन जब अच्छी खबरें नहीं पढ़ी जाती है तो पत्रकारों का उत्साह ठंडा पड़ जाता है। हिम्मत जवाब दे देती है। फिर एक दिन बड़े मीडिया समूहों में नौकरी करने वाला काबिल पत्रकार और संपादक भी खबरों की आड़ लेकर चड्डी और बनियान बेचने लगता है! खबरों से पहले खुद का स्टैंडर्ड वो गिरा लेता है।
याद रखें, आप की बुद्धि को कोई दूसरा नहीं हर रहा है। आप खुद बकलोल बने रहना चाहते हैं। ये दो कौड़ी की खबरें एक दिन आपको दिमागी तौर पर अपाहिज बना देगी। सूचना के नाम पर आपके दिमाग में कचरा भर देगी या सही- सही कहें तो आपके दिमाग को कचरे के ढेर में बदल देगी। आपके सोचने, समझने की सलाहियत छीन लेगी। आपको बर्बाद कर देगी!
ये सब तबतक चलता रहेगा जबतक आप पेड मीडिया कंज्यूमर नहीं बनेंगे यानी अखबार, टीवी और डिजिटल मीडिया पर खबर पढ़ने, देखने और सुनने के लिए हर महीने एक निश्चित रकम नहीं चुकाएंगे। पांच रुपए वाला अखबार और 250 में 150 चैनल आपको खबर नहीं देगा, ये खबरों की आड़ में आपको सिर्फ विज्ञापन परोस रहा है। एक सुधी पाठक और नागरिक के बजाए आपको खरीदार बना रहा है। भोगवादी बना रहा है। अखबार सिर्फ कारोबारियों के प्रोडक्ट की जानकारी आपतक पहुंचाने का जरिया भर रह गया है। भरोसा न हो तो आज का अखबार उठाकर बारीकी से उसका अवलोकन कर लीजिए।
मेनस्ट्रीम मीडिया की वेबसाइट की खबरों को पढ़ लीजिए। उस पर दिखने वाले विज्ञापन को देख लीजिए। वो प्रोडक्ट और वो खबरें आपके कितने काम की है।
याद रखें दारू, शराब, गांजा- भांग, अन्य मादक पदार्थ और जहर सभी इंसानों के लिए नुकसानदेह है। ये सब जीवन समाप्त करते हैं, तो क्या इसका बिकना बंद हो गया है? ये बिकते रहेंगे क्योंकि इनसे किसी की रोजी रोटी चलती है। बेकार और बुरी खबरें भी दिखती और छपती रहेंगी। इसे कोई बंद नहीं करने जा रहा है।
आप के मन में सवाल आएगा तो हम क्या पढ़े, किसे देखे?
यकीन मानिए मेरा न कोई यू ट्यूब चैनल है न कोई वेबसाइट है। न मैं किसी चैनल या वेबसाइट के लिए सुझाव दूंगा।
जब तक भारत का मीडिया मेच्योर नहीं हो जाता है, तब तक आपको बस इतना करना है, आप जिस किसी मीडिया हाउस के पाठक या दर्शक या यूजर हैं, वहां से मुफ्त में मिलने वाली सिर्फ अच्छी खबरों को ही पढ़िए। उस पर लाइक और कमेंट कीजिए। अपने सुझाव और प्रतिक्रियाएं भी दीजिए। मन हो तो उसे शेयर भी कीजिए। वहीं दूसरी जानिब, समाज में भेद भाव, हिंसा, उत्तेजना, अंधविश्वास, घृणा, अश्लीलता फैलाने वाली और छिछोरी खबरों को हतोत्साहित कीजिए। उसका बॉयकॉट कीजिए। उन खबरों पर भूलकर भी लाइक बटन मत दबाइए। यहां तक कि उसपर लाफिंग या एंग्री इमोजी भी मत दीजिए। गाली भी मत दीजिए! उन खबरों पर मत जाइए। ऐसी दो कौड़ी की खबरों को साफ नजरंदाज कर दीजिए, जैसे आपने देखा ही नहीं हो। विवादित खबरें इसलिए लिखी जाती है, ताकि आप वहां आएं, गाली - गलौज करें। डिजिटल मीडिया में यहीं से उन्हें खाद पानी मिलता है।
फिर मीडिया संस्थान और पत्रकार खुद आपको अच्छी खबरें परोसने लगेंगे। अपनी दुकानदारी उन्हें भी चलानी है। वो आपके इंट्रेस्ट और ट्रेंड को फॉलो करते हैं। उसी के हिसाब से खबर परोसते हैं। बकवास खबरों से सिर्फ पाठक ही नहीं पत्रकार भी ऊब जाता है, उसमें भी खीज पैदा होती है। हमनें कुछ सुधी पाठकों की शिकायत पर घाटा सहने के बाद भी उर्फी जावेद और वायरल भाभीज की खबरें करनी छोड़ दी है!
जब आप चाट वाले को कहते हैं, लाल मिर्च कम या ज्यादा डालना तो वो ऐसा ही करता है। वो चाट अपने लिए नहीं बनाता है बल्कि ग्राहकों को बेचने के लिए बनाता है। खबरें भी पाठकों और दर्शकों के लिए बनाई जाती है।
मोदी, योगी, शिवराज, ममता, सोरेन, गहलोत, राव या किसी भी सरकार के पैसों / विज्ञान से उनकी कुछ खबरें दब सकती है। उनकी झूठी वाहवाही हो सकती है, लेकिन बड़े मीडिया संस्थान सिर्फ सरकार के दम पर नहीं चलते हैं। उसे जिंदा रहने के लिए पाठकों और दर्शकों का सहयोग चाहिए।
याद रखिए, बाजार का सबसे बड़ा हीरो खरीदार होता है। आप चाहेंगे तो आपका प्रोडक्ट यानी मीडिया भी बदलेगा। कोशिश करके देखने में क्या हर्ज है?