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Uttarakhand Election 2022 : कभी नारायण दत्त तिवारी का चुनाव चिन्ह था झोपड़ी, मेले जैसा रहता था माहौल, पर्चे लेने की रहती थी होड़
(तीन बार उत्तर प्रदेश और एक बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी)
सलीम मलिक की रिपोर्ट
Uttarakhand Election 2022 : स्वतन्त्रता के बाद से देश लोकसभा, विधानसभा (Lok Sabha And Assembly Election) के साथ होने वाले कई अन्य चुनावों में न जाने कितने रंग अभी तक देख चुका है और न जाने कितने रंग अभी देखने बाकी हैं। लेकिन यह बात अपनी जगह है कि चुनाव दर चुनाव, चुनाव का रंग फीका होता जा रहा है। अब न पहले जैसे मुद्दे हैं और न ही पहले जैसा जोश। ठंडी रस्म अदायगी भरे इस चुनावी माहौल में ऐसी यही कुछ भूली-बिसरी बातों को याद कर रहें हैं हल्द्वानी (Haldwani) के वरिष्ठ पत्रकार भुवन जोशी जी।
"एक, दो नही पूरे 77 साल हो गए, न जाने कितने चुनाव में वोट डाले है, लेकिन जिस तरह का माहौल अब आ गया है, वो चुनाव का अहसास नहीं कराता है। बचपन में हम लोग नेताओ की गाड़ियों के पीछे इसलिए भागते थे, ताकि बिल्ला व पम्पलेट आदि मिल जाये। अब चुनाव में न तो प्रत्याशी लोगो को जानते है और न ही लोग प्रत्याशी को।"
हल्द्वानी के मुखानी क्षेत्र में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार व बुजुर्ग मतदाता भुवन जोशी का जन्म यूँ तो उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले (Almora) में हुआ था। 77 वर्षीय भुवन जोशी ने बताया कि वह 1952 में हल्द्वानी आ गए थे।
चुनाव की पुरानी यादों का खुशनुमा पिटारा खोलते हुए भुवन बताते हैं कि उस समय यह पूरा क्षेत्र नैनीताल विधानसभा में पड़ता था। एनडी तिवारी (ND Tiwari) उस समय प्रजा समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़े थे। उनका चुनाव चिन्ह झोपड़ी था। बैलगाड़ी में झोपड़ी रख प्रचार किया जाता था। हम बैलगाड़ी के पीछे भागते थे, बिल्ले व पोम्प्लेट के लालच में। लेकिन अब चुनाव बिल्कुल अलग हो गए है, अब चुनाव जरा भी चुनाव होने का अहसास नही कराते है।
1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के दौर को याद करते हुए भुवन कहना था कि लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) के समय में चुनाव के समय बच्चो के साथ नेताओ की गाड़ियों के पीछे भागने की दौड़ लगती थी। जब प्रत्याशी पर्चे हवा में उड़ाते थे तो उनको बटोरने में मजा आता था।
जीवन के आठवें दशक में चल रहे भुवन ने अपने पहले वोट के बारे में बताया कि पहली बार पंचायत घर में जब वोट डालने गया तो बहुत अच्छा लगा। रंग बिरंगे पर्चे और उस पर बनी दो बेलों की जोड़ी बहुत अच्छी लगी थी। उस समय प्रत्याशी या उनके समर्थक वोट डालने वाले दिन घर पर आते थे और सम्मान के साथ वोट डालने का आग्रह करते थे। शहर की दीवारें नारो से पटी रहती थी और एक मेले जैसा माहौल रहता था। दिन रात लाउडस्पीकरों की आवाज चुनाव का अहसास कराती थी। उन दिनों हल्द्वानी में इतनी भीड़ नही रहती थी और चुनावी माहौल में सभी लोग मिलजुल कर अपने-अपने नेताओ के लिए प्रचार करते थे।
वर्तमान में जाति-धर्म की राजनीति से खिन्न वरिष्ठ पत्रकार ने बताया उस वक्त जाति और धर्म की बात भी नही सुनाई देती थी। अब माहौल बदल गया है। पिछले तीन चुनाव से तो चुनाव एक डर का प्रतीक बन गया है। चुनाव आयोग की सख्ती ने भी चुनावी माहौल को पूरी तरह बदल दिया है लेकिन इस बार का चुनाव तो करीब-करीब डिजिटल मोड में चला गया है। शायद कोविड इसकी मुख्य वजह हो। अभी तक शहर में नहीं लग रहा था कि चुनाव आ गया है। हर कोई जैसे पहले करता था, उस तरह न तो राजनीतिक दलों की बात नही कर रहा है और न ही मुद्दों पर बात कर रहा है। कई चुनाव से चर्चा केवल इस बात की है कि किस बिरादरी के कितने वोटर है।
वर्ष 2000 से पहले के चुनावो के मुकाबले में कई पार्टियां होने से देश का राजनैतिक माहौल भी बदलने लगा है। जनता के मुद्दों को भूलकर लोग एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप भी लगाने लगे। अब चुनाव बस स्वार्थ और निजी लाभ के होने लगे है। किसी को भी आम जनता से मतलब नही है।