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विमर्श

किसानों के साथ छात्र और मजदूर भी फूंक देते आंदोलन का बिगुल तो बदल जाती लोकतंत्र की तस्वीर

Janjwar Desk
2 March 2021 9:49 AM GMT
किसानों के साथ छात्र और मजदूर भी फूंक देते आंदोलन का बिगुल तो बदल जाती लोकतंत्र की तस्वीर
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नई शिक्षा नीति 135-140 करोड़ के देश में सिर्फ 35-40 करोड़ की आबादी के हितों के साथ सामंजस्य बनाती है और बाकी 100 करोड़ लोग इसके दायरे से बाहर हैं, सरकारी संस्थानों को स्वायत्त बनाने के नाम पर उनका कार्पोरेटाइजेशन, निजी संस्थानों की बेरोकटोक धन उगाही, उच्च तकनीकी शिक्षा के सरकारी तंत्र को इतना महंगा करते जाना कि सामान्य आदमी इधर झांकने का भी साहस न करे....

हेमंत कुमार झा की टिप्पणी

जनज्वार। अंतर यही है कि किसान संगठित हैं, लेकिन छात्र और मजदूर संगठित नहीं हैं, वरना जिस तरह कृषि बिल के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका गया उसी तरह आज देश भर में नई शिक्षा नीति के खिलाफ और निरन्तर किये जा रहे एकतरफा श्रम कानून संशोधनों के खिलाफ आंदोलन हो रहे होते।

हालांकि, श्रमिक संगठनों के बीच बेचैनियां हैं, अक्सर ये प्रतिध्वनित भी हो रही हैं, लेकिन उनके प्रतिरोध में वह सघनता नहीं है जो किसानों के आंदोलन में नजर आ रही है। अगर श्रमिक संगठन आंदोलित होते भी हैं तो उन्हें मीडिया का वाजिब संज्ञान नहीं मिल पाता, न ही आम लोगों का जुड़ाव उनसे हो पाता है। छात्रों में भी बेचैनी है नई शिक्षा नीति के खिलाफ, लेकिन वह भी प्रभावी आंदोलनों में तब्दील नहीं हो पा रहा।

जैसे, किसानों ने देखा कि नए कृषि बिल के प्रावधान उनके दीर्घकालीन हितों के खिलाफ हैं उसी तरह छात्रों ने भी महसूस किया कि नई शिक्षा नीति के कुछेक प्रावधान इस देश की बड़ी आबादी को अवसरों से वंचित करने वाले हैं, उसी तरह मजदूरों ने देखा कि संशोधित श्रम कानून उनके हितों के साथ घोर अन्याय करने वाले हैं। लेकिन, राजनीतिक दलों के एक्सटेंशन बन चुके छात्र संगठन और आत्मविश्वास की कमी झेलते श्रमिक संगठन इन नीतियों का प्रभावी विरोध दर्ज नहीं कर पाए।

आजकल अनेक विश्वविद्यालयों में नई शिक्षा नीति को महिमामण्डित करने वाले आयोजनों की श्रृंखला चल रही है। कई विद्वान वक्तागण इसकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हैं। जैसे कहा जा रहा है कि नई शिक्षा नीति ज्ञान आधारित और रोजगार परक है। अच्छी बात है। विचारकों का कहना है कि यह दौर ही ज्ञान आधारित है, तो, अगर कोई शिक्षा नीति इस आधार पर आगे बढ़ती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिये।

लेकिन, सवाल यह उठता है कि अगर कोई शिक्षा नीति शिक्षा को धन आधारित बनाने को प्रोत्साहित करने वाली हो तो इसका क्या करें।

आज का दौर अगर ज्ञान आधारित है तो ज्ञान को धन आधारित बनाने की नीतियों का महिमामंडन कैसे किया जा सकता है। स्पष्ट है कि अगर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में धन प्रभावी औजार बनता है तो अवसर कुछेक वर्गों के हिस्से ही रह जाते हैं और हाशिये पर के लोग इन सन्दर्भों में कहीं के नहीं रह जाते।

वास्तविकता यही है कि नई शिक्षा नीति 135-140 करोड़ के देश में सिर्फ 35-40 करोड़ की आबादी के हितों के साथ सामंजस्य बनाती है और बाकी 100 करोड़ लोग इसके दायरे से बाहर हैं। सरकारी संस्थानों को स्वायत्त बनाने के नाम पर उनका कार्पोरेटाइजेशन, निजी संस्थानों की बेरोकटोक धन उगाही, उच्च तकनीकी शिक्षा के सरकारी तंत्र को इतना महंगा करते जाना कि सामान्य आदमी इधर झांकने का भी साहस न करे।

हमारे देखते देखते मेडिकल की पढ़ाई निम्न और निम्न मध्य वर्ग तो क्या, मध्य वर्ग की औकात से भी बाहर कर दी गई। कुछ खास सरकारी संस्थानों में प्रतियोगिता के आधार पर शीर्ष स्थान प्राप्त कुछ बच्चों को छोड़ दें तो बाकी सम्पूर्ण मेडिकल शिक्षा तंत्र आम लोगों की पहुंच से दूर हो गया है।

अब तो, सुनते हैं, मेडिकल की पढ़ाई में लाख शब्द की कोई औकात ही नहीं रही, कई मिलियन की चर्चा होती है। कहीं कहीं तो करोड़ भी सुनने को मिल जाते हैं। नतीजा, जिस डॉक्टरी की पढ़ाई में समाज के सर्वाधिक प्रतिभाशाली बच्चों को आगे आना चाहिए था, वे नहीं आ रहे।

सुनते तो यह भी हैं कि निजी विश्वविद्यालयों में तो लिटरेचर और सोशल साइंस जैसे विषयों में भी लाखों की फीस ली जाने लगी है। हालांकि, जब उनमें पढा रहे शिक्षकों की सेवा शर्त्तों के बारे में जानकारियां मिलती हैं तो यह कहीं से उत्साह बढ़ाने वाला नहीं लगता। निजी विश्वविद्यालयों के अधिकतर शिक्षक अपने वाजिब हितों से महरूम तो हैं ही, सितम यह कि अपने शोषण के खिलाफ वे आवाज भी नहीं उठा सकते।

यानी, पढ़ने वालों से फीस अधिक से अधिक, पढ़ाने वालों के आर्थिक हितों की अधिक चिंता नहीं। नई शिक्षा नीति इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है। स्कॉलरशिप नहीं, शिक्षा लोन को प्रमुखता। यही इस दौर का फलसफा है। शिक्षा लोन लेने वालों से बात करें तो पता चलता है कि सरकारी प्रचार तंत्र जिस तरह इसे प्रचारित करता है, छात्रों के अनुभव उससे भिन्न हैं।

किसानों के आंदोलन के कारण कृषि बिल के कारपोरेट हितैषी प्रावधान देश भर में एक्सपोज होते जा रहे हैं। विभिन्न परिचर्चाओं, सभा-सम्मेलनों, महापंचायतों आदि के माध्यम से लोग धीरे-धीरे जान-समझ पा रहे हैं कि नए कृषि कानून क्या हैं और दीर्घकालीन दौर में इनसे किन्हें फायदा होगा, किन्हें नुकसान। लेकिन, नई शिक्षा नीति, नए श्रम कानून संशोधन आदि पर तो कोई व्यापक चर्चा ही नहीं हो रही। इस कारण, लोग समझ नहीं पा रहे कि ये नीतियां किस तरह आम लोगों के हितों के कितने खिलाफ हैं।

यह दौर अगर ज्ञान आधारित है तो ज्ञान के स्रोतों और संस्थानों पर कारपोरेट के कब्जे के माध्यम से धनी और प्रभावी लोगों के बच्चों के लिये ही अवसर रह जाएंगे।

जितना जरूरी किसान विमर्श है, उतना ही जरूरी है कि शिक्षा नीति पर भी विमर्श हो। अगर, समाज के बड़े तबके के बीच यह विमर्श बढ़ेगा तो उन सरकारी विद्वानों के पाखण्ड सामने आने लगेंगे जो गर्दन हिला हिलाकर प्रायोजित संगोष्ठियों में हमें बताते नहीं थक रहे कि "नई शिक्षा नीति देश और देश के लोगों के लिये सकारात्मक अध्याय है।"

जब विमर्श व्यापक होते हैं, उनमें लोगों की भागीदारी बढ़ती है तो किसी नीति के पीछे प्रभु वर्ग की साजिशों की पहचान कर पाना आसान होता है। नई शिक्षा नीति के साथ भी यही बात है। इस पर ऐसे विमर्श होने चाहिए जिनमें जन सामान्य की भागीदारी हो। तब लोग समझ पाएंगे कि आम किसानों के लिये जितने घातक कृषि बिल के प्रावधान हैं, उतने ही घातक आम लोगों के लिये शिक्षा नीति के प्रावधान हैं।

(हेमंत कुमार झा पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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