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विमर्श

क्या नमामि गंगे परियोजना के जरिये धार्मिक और गैर-पर्यावरणीय एजेंडों को साधा जा रहा ?

Janjwar Desk
29 Jun 2021 3:19 PM IST
क्या नमामि गंगे परियोजना के जरिये धार्मिक और गैर-पर्यावरणीय एजेंडों को साधा जा रहा ?
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केंद्र सरकार ने गंगा को बचाने के लिए 'नमामि गंगे' मिशन की शुरुआत की थी, लेकिन यह नहीं बताया था कि इसके माध्यम से धार्मिक,गैर-पर्यावरणीय एजेंडों को क्रियान्वित किया जाएगा

राजनीतिक सामाजिक विश्लेषक मिथिलेश श्रीवास्तव की टिप्पणी

जनज्वार। विकास का बदलता हुआ स्थूल स्वरूप इन दिनों दिखने लगा है। इंसान की रोटी- कपड़ा और मकान की मूलभूत जरूरतों से दूर, सरकारों और योजनाकारों का ध्यान नदियों के किनारे लघु काशी के निर्माण पर जा टिका है। बिहार के गोपालगंज ज़िले के डुमरिया घाट से ख़बर आ रही है कि इस घाट पर केंद्र सरकार की योजना नमामि गंगे के पैसे से पत्थरों के घाट अर्थात रिवर फ्रंट बनाये गए हैं, जिनका नाम रखा गया है राम घाट और सीता घाट। इसे लघु काशी भी कहा जा रहा है।

केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गंगा नदी के प्रदूषण को समाप्त करने और नदी को पुनर्जीवित करने के लिए 'नमामि गंगे' नामक एक एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन की शुरुआत की थी। जिसका बुनियादी मकसद यही बताया गया कि जले हुए शवों को नदी में बहाने से रोका जा सके, लोगों और नदियों के बीच के संबंध को बेहतर करने के लिए घाटों का निर्माण किया जा सके, मरम्मत और आधुनिकीकरण का भी लक्ष्य रहे। यह नहीं बताया गया था कि नमामि गंगे परियोजना के माध्यम से धार्मिक और गैर-पर्यावरणीय एजेंडों को क्रियान्वित किया जाएगा।

डुमरिया घाट के मिनी काशी की संरचना से यह बात अब छिपी हुई नहीं रह गयी कि नमामि गंगे परियोजना और उसके कोष का राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है। नमामि गंगे गंगा नदी सहित अन्य नदियों को साफ़ करने की परियोजना है। लेकिन इस परियोजना के माध्यम से राजनीति चमकाने की कोशिश हो रही है। किनारों को पत्थरों के घाटों में तब्दील कर देने से विकास की प्रासंगिकता और प्रमाणिकता सिद्ध नहीं हो जाती। डुमरिया घाट का रिवर फ्रंट, अहमदाबाद में साबरमती नदी के रिवर फ्रंट की अनुकृति है। साबरमती नदी के किनारों के सीमेंटीकरण और पत्थरीकरण की वजह से साबरमती गांधी आश्रम में इतनी गर्मी लगने लगी है कि गर्मी के मौसम में यहां ठहरना कठिन लगने लगता है। चमचमाते रंगीन पत्थरों से सौंदर्य तो बढ़ जाता है किन्तु प्राकृतिक छटा बिखर जाती है। पहले साबरमती एक नदी लगती थी, लेकिन अब वह एक नहर लगती है।

महात्मा गांधी ने आश्रम के लिए जब साबरमती के किनारे उस जगह को चुना होगा, तो जरूर नदी के प्राकृतिक सौंदर्य से आकर्षित हुए होंगे। सौंदर्यीकरण के नाम पर दिल्ली में पेड़ों की जड़ों और तनों के चारों तरफ सीमेंट से पक्का कर दिया गया था। जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय के दिए आदेश के बाद सीमेंट के प्लास्टर को तोड़ा गया और जड़ों में मिट्टी डाली गयी। सौंदर्यीकरण और विकास की यह अवधारणा अमानवीय लगती है जिसके केंद्र में मनुष्य और प्रकृति कहीं दिखायी नहीं देते।

डुमरिया घाट पर कोई आश्रम नहीं है। ना ही इसका कोई प्रागैतिहासिक या ऐतिहासिक महत्व है। गंडक नदी के किनारे एक घाट था, जहां से मल्लाह नावों के जरिये आदमियों, मवेशियों और वाहनों को इस पार से उस पार ले जाना, ले आया करते थे। बिहार के पूर्व सारण और चंपारण ज़िलों के बीचोबीच गंडक नदी बहती है। सारण ज़िले के विभाजन से गोपालगंज और चंपारण के विभाजन से पूर्वी और पश्चिमी चंपारण ज़िले बने तो अब इस घाट से गोपालगंज और पश्चिमी चंपारण ज़िले जुड़ते हैं। 1965 में उस जगह एक पुल की नींव केंद्र सरकार के तत्कालीन लोक कल्याण मंत्री नीलम संजीव रेड्डी ने रखी थी, जो कुछ वर्षों में बनकर तैयार हुआ। पुल बन जाने के बाद उस पुल का नाम डुमरिया घाट दिया गया। पुल बन जाने के बाद मल्लाहों का कारोबार बंद हो गया, तो वहां से नावें धीरे-धीरे ग़ायब हो गयीं और मल्लाह भी दूसरे इलाकों में चले गए। यातायात की सुविधा बढ़ गयी और नदी की प्राकृतिक छटा भी बनी रही। किनारे पहले जैसे तो नहीं रहें क्योंकि पुल के निर्माण में पुल के दोनों तरफ की हरियाली समाप्त हो गयी और उजड़ी हुई हरियाली की जगह कोई दूसरी हरियाली रोपी नहीं गयी; अगर रोपी भी गयी होगी तो उनका रंग प्राकृतिक नहीं हो पाया।

ग्रामीण इलाकों के लोग अपने परिजनों के दाह संस्कार गंडक नदी के डुमरिया घाट पर ही करते आ रहे हैं। तीज-त्योहारों पर इसी घाट पर आकर स्नान किया करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहां एक मेला वर्षों से लगता है, जहां स्थानीय व्यवसायी दुकानें लगाते हैं और लोग अपनी जरूरतों के सामान खरीदते हैं। यह मेला वार्षिक है लेकिन स्वरूप साप्ताहिक बाज़ारों जैसा है। डुमरिया घाट के गोपालगंज ज़िले की ओर पूरा ग्रामीण इलाका है और इन इलाकों में कई गांव हैं और हर गांव की अपनी भीतरी संरचना है जो निःसंदेह जाति आधारित है। इन गांवों की अपनी प्राचीनता है और अपनी निजी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था भी रही है। आज़ादी के बाद गांवों में बिखराव और पलायन की प्रवृतियां पनपने लगीं। आज़ाद भारत में अच्छे जीवन की चाहत रखने वाले ग्रामीण काम-धंधे की तलाश में अपने गांवों से दूर होने लगे।

योजनाकारों और सरकारों को गांवों के विकास के बारे में सोचने का अवसर नहीं मिला। शिक्षा और इलाज़ के साधन शहरों में ही केंद्रित होने लगे। बड़े उद्योगों और कॉरपोरेट घराने के आगे घुटने टेकने वाली सरकारों ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, इलाज़ और रोज़गार के अवसर बनाये जाएं। नतीज़ा यह निकला कि परंपरागत रोज़गार का ग्रामीण ढांचा बर्बाद हो गया। डुमरिया घाट के ज़द में आने वाले सारे इलाके ग्रामीण और कृषि प्रधान हैं और वहां की कृषि बरसात पर आज भी आधारित है। गंडक नदी से सिंचाई के लिए पानी निकालने का कोई साधन नहीं है। किसी साल अधिक बरसात के चलते फ़सलें बर्बाद हो जाती हैं तो किसी साल कम बरसात के कारण सूखाग्रस्त हो जाती हैं। बरसात ठीक ठाक होती है तो फ़सल भी हो जाती है।

बाढ़ का प्रकोप भी लोगों को झेलना पड़ता रहा है। उस इलाके में रोज़गार के अवसर नहीं है, शिक्षा की अच्छी व्यवस्था नहीं है, इलाज़ की कोई व्यवस्था नहीं है, बगल से एक नदी गुजरती है लेकिन उसका पानी सिंचाई के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता है, कृषि मूलतः पारंपरिक है।

डुमरिया घाट से मोतिहारी 44 किलोमीटर है, गोपालगंज 40 किलोमीटर, छपरा 74 किलोमीटर और गोरखपुर 160 किलोमीटर। मोतिहारी, गोपालगंज, छपरा और गोरखपुर बिहार और उत्तर प्रदेश के छोटे ज़िला शहर हैं, जहां सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पुख्ता नहीं है लेकिन निजी क्षेत्र के नर्सिंग होम ज़रूर हैं जो डॉक्टरों ने अपने कमाए पैसे से खड़े किये हैं।

गंडक नदी जिसे वैतरणी नदी भी कहा जाता है, हिमालय से निकलकर नेपाल होते हुए बिहार राज्य में प्रवेश करती है और बिहार के सोनपुर के पास गंगा नदी में विसर्जित हो जाती है। नदियों के किनारों को नदियों ने ही बनाया है। लाखों वर्षों से बहती हुई नदियों के लिए रास्ते भी उन्हीं के धारा-प्रवाहों ने बनाया है। उनकी राहों की अन्वेषी सरकारें नहीं हैं। आधुनिक भाषा में नदियों के संजाल को पानी का निकास मार्ग बताया जाता है। नदियां जो हिम-प्लावित हिम-शिखरों से निकलती हैं। सभी मौसमों में पानी से भरी रहती हैं और एक ज़माने से नदियों का पानी मनुष्य की जरूरतों को पूरा करता रहा है इसलिए जीवन-सभ्यता नदियों के आस-पड़ोस में ही विकसित हुई। गंडक नदी के किनारे भी गांवों में लोग रहते आ रहे हैं, बाढ़ का प्रकोप सहते हुए और बाढ़ से बचाव के उपाय ढ़ूढ़ते हुए।

इस इलाके की सांस्कृतिक राजनीतिक महत्व को भी समझने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश का कुशीनगर एक विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्थल है जो बुद्ध के महापरिनिर्वाण की जगह है। डुमरिया घाट से कुछ किलोमीटर दूर केसरिया बौद्ध विहार है जहां एक प्राचीन बौद्ध-स्तूप है, जिसका विकास हो रहा है। कहा जाता है कि राजकुमार सिद्धार्थ अपना राजपाट त्याग कर एक भिक्षुक के रूप में ज्ञान की खोज में निकले तो केसरिया में रुके थे। जो उन दिनों शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र था। कुछ दिन वहां शिक्षा भी ग्रहण की और उसके बाद आगे बढ़े और बोधगया पहुंचे जहां उनको ज्ञान प्राप्त हुआ। कुशीनगर जाने के लिए जिस रास्ते का चुनाव बुद्ध ने किया उसमें केसरिया पड़ता था, तो केसरिया आकर फिर कुछ दिन रुके। अपना भिक्षा-पात्र वहीं त्याग दिया। कुशीनगर की ओर बढ़े। कुशीनगर के रास्ते में गंडक नदी है, तो मतलब यह हुआ कि बुद्ध ने इस नदी को कहीं न कहीं पार किया होगा। डुमरिया घाट इलाके में बुद्ध के गंडक नदी पार करने का लोक में कोई जिक्र नहीं आता है। जिक्र तो यह भी नहीं होता कि डुमरिया घाट से ही राम जी ने जनकपुर के लिए गंडक पार किया था या कि विवाह रचा के सीता के साथ इसी घाट से अयोध्या वापस हुए थे।

लोकवार्ता में महात्मा गांधी का जिक्र जरूर आता है। डुमरिया घाट से कुछ किलोमीटर दूर चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए प्रयोग का भारत में पहली बार चंपारण की धरती पर ही आजमाया। यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे। इसी आंदोलन के बाद उन्हें 'महात्मा' कहकर बुलाया गया। देश को राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसी स्वतंत्रता सेनानी इसी आंदोलन से मिले। इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि चंपारण आंदोलन देश के राजनीतिक इतिहास में कितना महत्वपूर्ण है। इस आंदोलन से ही देश को नया नेता और नई तरह की राजनीति मिली।

डुमरिया घाट रिवर फ्रंट और शवदाह गृहों के निर्माण पर 100 करोड़ के खर्चे से उस इलाके में एक अच्छा खासा अस्पताल बनाया जा सकता था। इलाज़ के लिए कम से कम दो घंटे की दूरी तय करने के बाद कोई ज़िला स्तर का शहर आता है। गंभीर चिकित्सा जरुरत के समय ही ग्रामीण इन शहरों की ओर जाते हैं। सर्दी-खांसी का इलाज़ वे देशी नुस्खे या झोलाछाप डॉक्टरों से करा लेते हैं। रिवर फ्रंट से अधिक जरूरी अस्पताल है। परंपरागत तरीक़े से दाह-संस्कार भी हो ही रहे थे। बिजली के शवदाह-गृहों में दाह-संस्कार मुफ़्त में नहीं होंगे। ग़रीब किसानों से खेती में उपयोग और घरों में प्रकाश के लिए उपयुक्त बिजली के पैसे वसूलती है सरकार तो दाह-संस्कार भला मुफ़्त में कैसे करने देगी।

डुमरिया घाट के मिनी काशी के बारे में प्रोपगैंडा मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया जा रहा है कि यही वह घाट है ' जहां भगवान राम जब अयोध्या से जनकपुर गए थे तब उन्होंने इसी नारायणी नदी में डुमरिया घाट पर डुबकी लगाई थी, और वापस लौटते समय भी उन्होंने यहीं रुककर स्नान किया था, इसलिए कार्तिक पूर्णिमा के समय यहां स्नान करने का विशेष महत्व है।' इसी महत्व को रेखांकित करने के लिए दोनों घाटों का नाम राम घाट और सीता घाट रखा गया है और शायद इसी घाट का इस्तेमाल प्राचीन ब्राह्मणवादी और हिंदूवादी विचार के प्रचार-प्रसार के लिए किया जाएगा। इस इलाके में हिन्दू और मुसलमान दोनों रहते हैं। राम घाट और सीता घाट नामकरण के पीछे कोई मंशा छिपी हुई है। वरना क्या कारण हो सकता है कि इन रिवर फ्रंट का नामकरण बुद्ध या गाँधी के नाम पर नहीं किया गया है। डुमरिया घाट ग्रामीण इलाके के लोग अपने स्थानीय देवी देवताओं को पूजते हैं, उनमें बन्नी माई और छठी माई लोक देवियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन रिवर फ्रंट का नाम बन्नी माई और छठी माई रखा जाना चाहिए था। पूजनीय स्थानीय देवियों का एक तरह से लोकतांत्रिक सम्मान होता। यह तो कोई भी कह सकता है कि राम घाट और सीता घाट में जय श्री राम की अनुगूंज समाहित है।

उस इलाके का राजनीतिक परिदृश्य भी फिसलन भरा है। 2015 में बैकुंठपुर विधानसभा इलाके से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता विधायक के रूप में चुने गए थे और उन्हीं के प्रयास से गंडक रिवर फ्रंट परियोजना को नमामि गंगे के अंतर्गत केंद्र सरकार की मंजूरी मिली थी। 2020 के बिहार विधानसभा के चुनाव में आरजेडी पार्टी के प्रेम शंकर प्रसाद विधायक चुने गए हैं। 2010 में इस इलाके से जेडीयू के मंजीत कुमार सिंह विधायक थे। जेडीयू , भाजपा और आरजेडी के बीच विधायकी घूम रही है और पंद्रह वर्षों में विकास के नाम पर डुमरिया को मिला है साबरमती के तर्ज़ पर डुमरिया घाट रिवर फ्रंट भगवान राम के नाम पर। दोनों फ्रंट पर हाईमास्ट लाईट, नदी के किनारे एलईडी लाईटिंग, टॉयलेट, पेयजल, चेंज रूम, हाईवे से नदी तक सर्विस रोड, रिवर फ्रंट पर सीढ़ी और घेरा, प्रार्थना स्थल, सूचना कक्ष और नदी किनारे सुरक्षा घेरा। स्वच्छता को लेकर जगह-जगह डस्टबिन रखे जाएंगे। जानकारों के मुताबिक, केंद्र सरकार की यह अति महत्वाकांक्षी योजना पूरी कर ली गयी है। कहा जा रहा है कि यहां बड़े-बड़े पोत के रुकने के लिए टर्मिनल भी बनाया जायेगा। गंगा आरती और टर्मिनल प्वाइंट होने की वजह से इस इलाके में पर्यटन के भी बढ़ने के आसार बढ़ जायेंगे। ग्रामीण इलाके में रिवर फ्रंट जैसी परियोजना की जरूरत नहीं है, पैसे का यह अपव्यय है।

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