जन्मदिन विशेष : किशोर कुमार की कहानी नसीब की नहीं नमक और पसीने की है!
(किशोर कुमार जीवन्त आवाम के ‘भारतरत्न‘ हैं, किशोर कुमार दिखावे के लिए बड़े आदमी बने ही नहीं)
किशोर कुमार दिखावे के लिए बड़े आदमी बने ही नहीं।
किशोर कुमार के जन्मदिन 4 अगस्त को उन्हें याद कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी
जनजवार। अंग्रेजी के महान कवि जाॅन कीट्स ने अपनी समाधि के लिए यह पंक्ति लिखी थी 'यहां वह लेटा है जिसका नाम पानी पर लिखा है।' लगता है कीट्स को मालूम रहा होगा कि कोई किशोर कुमार होगा जिसका नाम बादलों पर लिखा होगा।
थिरकती हवाएं, बहता पानी और मिट्टी की सोंधी गंध अपनी कोख जाए बेटे के कंठ की ध्वनि बन जाए। तब उसका नाम किशोर कुमार गांगुली ही हो सकता है। धरती निमाड़ की, पानी नर्मदा कछार का और हवा निमाड़ और मालवा के संधि-बिन्दु पर ठहर गई थी। वह वक्त भारत के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के नये अंदाज में ढलने का था। बंगाल से आए सी.पी. और बरार में बसे केदारनाथ गांगुली के सबसे छोटे बेटे के जवान होने का वक्त था। देश की सरहदें विभाजन से टूट गई थीं।
आज़ादी का अहसास वर्षों की मशक्कत के बाद परवान चढ़ा था। मादरे-वतन का तिरंगा परचम इंकलाब का सूरज बनकर देश के माथे पर चमक रहा था। मध्य वर्ग के नौजवान नये लगते देश में अपनी किस्मत आजमाने बेताब हो रहे थे। उनमें आज़ादी, विद्रोह और कुछ कर गुजरने का जज़्बा खून पसीना एक करने की तासीर अख्तियार कर रहा था। इस भीड़ में युवा किशेर भी एक इकाई थे।
सेल्युलाइड की दुनिया की राजधानी बम्बई बेरोजगार, बेतरतीब और बेलौस नौजवानों का अनाथालय रहती है। उसी बम्बई ने भारत की कई प्रतिभाओं की तस्वीरें गढ़ी हैं। मझोले कद का एक नौजवान औसत नाकनक्श, मध्य वर्ग के सपने और ख्वाहिशें सर पर गठरी की तरह लादे चकाचौंध की दुनिया में आया। बम्बई को मालूम था वह एक दिन सप्तसुरों के सितार की तरह संगीत का मौसम बनकर दुनिया पर छा जायेगा।
किशोर कुमार की कहानी नसीब की नहीं पसीने की तरलता और नमक की कहानी है। शुरुआत में उसे बर्खास्त कर दिया गया था। किशोर आवाज की कशिश का औजार आत्मा में बिठाए मौसिकी के किताबी अनुशासन की रस्सियां ही काटते रहे। रागों की शास्त्रीयता, वाद्ययंत्रों का आग्रह, कण्ठ के उतार चढ़ाव के प्रचलित नुस्खे, परम्पराओं की अनुगूंजें भारतीय संगीत के नामचीन अवयव रहते हैं। कलाकार की दीर्घकालिकता के गवाह भी हैं।
किशोर कुमार ने अनुशासन की छाती फोड़कर दिल को ढूंढ़ निकाला। रागों में आत्मा ढूंढ़ी। सुरों को लय की गुलामी में नहीं, स्वच्छंदता में गाने पर मजबूर किया। वाद्ययंत्र अपनी सम्भावनाओं के बावजूद उन्हें आवाज की भूल-भुलैया में ढूंढ़ते रह गए। शास्त्रीय अनुशासन से अनासक्त किशोर श्रोताओं के दिलों की गहराइयों में छुपते गये। हास्य अभिनय और युवा पीढ़ी के आक्रोश से उपजी फूहड़ और उच्छृंखल लगती भंगिमाओं के प्रतीक बनकर भी किशोर ने उछलकूद की। वह लेकिन किसी दीवार का उखड़ता हुआ पलस्तर था। उसके पीछे भारतीय संगीत के पुरखों द्वारा तराशा जा रहा नायाब हीरा यकबयक अपनी चमक बिखेरने बेताब हो रहा था। इस आवाज की खनक में मध्य वर्ग की कशिश बोलती थी। किशोर के रहते वह कशिश मरी नहीं। उनके मर जाने के बाद तो वह सुगम संगीत की केन्द्रीय ध्वनि बनकर करोड़ों हिन्दुस्तानियों के लिए बेलौस जीने का बुनियादी हौसला बन गई।
भाषा को इस बात का गर्व नहीं होना चाहिए कि ध्वनि उसके सहारे ही श्रोताओं की आत्मा से संवाद कर पाती है। इस लिहाज से किशोर शास्त्रीय मौसिकी के मुगलिया दरबार के नवरत्नों में नहीं, दरअसल मध्यप्रदेश के दूसरे बैजूबावरा थे। उनकी प्रेयसी गौरी नहीं थी। बल्कि अपनी मां की याद में बनाये गये खण्डहर होते घर 'गौरीकुंज' में किशोर कुमार आज भी यादों में बिना ढूंढ़े मिल जाते हैं। सहयोगी वाद्ययंत्रों को गुरूर हुआ कि उनसे आरोह अवरोह लिये बिना कण्ठ की कोई स्वायत्तता नहीं है। तब-तब इस गायक ने आर्केस्ट्रा की सिम्फनी पर ही खड़े होकर अनोखे अन्दाज में गायकी को शऊर दिए। वही तो किशोर कुमार होने का अहसास है।
किशोर कुमार को एक नाम से ही जानने की मजबूरी होती। तो खुद को किशोर कुमार नहीं, बल्कि 'खण्डवा-वाला' कहते। 'एक भारतीय आत्मा' राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने खण्डवा में बसकर 'कर्मवीर' जैसे क्रांतिकारी अखबार के जरिए युवा पीढ़ी का परिष्कार किया। उसके प्रतिनिधि किशोर कुमार ने खुद 'भारतीय आत्मा' और 'कर्मवीर' बनने में सबसे बाजी मार ली। इस बात की ताईद उनके बाल सखा रमणीक मेहता तथा फतेह मुहम्मद और गुरु अक्षय कुमार जैन ने मुझसे की है। जन्मदायिनी धरती की गोद में मुट्ठी भर राख बनकर समा जाना हमारी संस्कृति का अक्स है। किशोर कुमार इस तसव्वुर से जवाहरलाल नेहरू की तरह के आत्मिक प्रहरी हैं। किशोर कुमार जीवन्त आवाम के 'भारतरत्न' हैं।
किशोर कुमार दिखावे के लिए बड़े आदमी बने ही नहीं। अपनी क्लिक में कैमरा फुसफुसाता है कि पाजिटिव चिकना चुपड़ा चित्र निगेटिव की असलियत में काला और बदरंग होता है। किशोर कुमार के तो निगेटिव तक से लोगों को प्यार है। किशोर कुमार गायन को अभिव्यक्ति के अलावा सोचते रहने का माध्यम भी बनाते होते थे। वे हिजमास्टर्स वायस नहीं थे, जिस-ग्रामोफोन कंपनी ने गायकों को अमर बनाया। आवाज की दुनिया के कई बांग्ला बाजीगरों ने पश्चिमी संगीत की ओर भागती दुनिया को पूरब की ताकत का अहसास कराया। एस.डी. बर्मन, आर.सी. बोराल, सलिल चौधरी, पंकज मलिक, जगमोहन, अनिल बिश्वास, हेमन्त कुमार वगैरह से एक साथ पूछा जाय तो उन्हें शायद यही कहना होगा कि गायकी का अंदाज कोई देखे तो केवल कलकत्तावालों में क्या आगे बढ़कर खण्डवावाले में।
किशोर कुमार गाते थे, तो शब्द अपने अर्थ छोड़ ध्वनि की चादर ओढ़ वैसे ही स्थिप्रज्ञ हो जाते थे जैसे कबीर ने अपनी चादर अपने जाने के बाद जैसी की तैसी धर दी है। किशोर कुमार की हड़बड़ी को भी नजरअंदाज करना पहाड़ी नदी के इठलाने, कूदते मृग छौनों और दुधमुंहे बच्चों की किलकारी का अपमान करना है। उनकी नौजवान व्यग्रता, परिवार के लिए पेट की रोटी कमाने के लिये समाज की उपेक्षा को अपनी शिष्टता के थैले में डालकर मुस्कराते रहना, किशोर कुमार की तरह हर युग के नौजवानों की चुनौती है। गालिब का अन्दाजे बयां और है। वैसे ही किशोर कुमार का अन्दाजे मौसिकी और है।
लोग उनकी याद में गमगीन होकर जुमला कस देते हैं कि किशोर दा वक्त से पहले चले गये। दरअसल किशोर कुमार वक्त के बहुत पहले पैदा हो गये थे। संगीत की सरहदों की राष्ट्रीयता और फार्मूलों को गड्मगड्ड करती दुनिया बाईसवीं सदी के मुहाने पर खड़ी होगी। तब भी किशोर कुमार का नाम प्रयोगधर्मी, प्रवर्तक और परेशानदिमाग व्याकुल कलाकार के फ्रेम में क्षितिज पर होगा। किशोर दा को सुनना इन्सानियत के अनुभव संसार को आंखों का आंसू बनाकर उनमें सुखा लेना और जब तक दृष्टि रहे सूखे आंसुओं से कीट्स के उस समाधि लेख की इबारत को बूझना है जो दरअसल किशोर कुमार के लिए लिखी गई सिद्ध होती है।