BJP's Polarization And Division Politics : ध्रुवीकरण, विभाजन और उन्माद ही भाजपा के अंतिम अस्त्र
(भाजपा के पास चुनाव जीतने का ध्रुवीकरण, विभाजन और उन्माद ही बचा जरिया)
बादल सरोज का विश्लेषण
BJP's Polarization And Division Politics : उर्दू के शायर सदा नेवतनवी साहब का शेर है कि : "अब है तूफ़ान मुक़ाबिल तो ख़ुदा याद आया, हो गया दूर जो साहिल तो खुदा याद आया !!"
इन दिनों यह शेर पूरी तरह यदि किसी पर लागू होता है, तो वे हैं नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के बाद भाजपा में – गिनती जहां पूरी हो जाती है उस – दो नम्बर पर विराजे अमित शाह (Amit Shah)!! तीन महीने बाद फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनावों के भाजपाई अभियान के प्रलाप का शंख उन्होंने देहरादून में खुदा-खुदा करके ही फूंका। अपने चिरपरिचित गोयबल्सी अंदाज में उन्होंने कथित तुष्टीकरण के तंज़ से भाषण देते हुए पूर्ववर्ती सरकारों पर जुमे के रोज सड़कों पर नमाज की अनुमति देने का आरोप लगाते हुए खुदा को याद किया। पहाड़ों में नगण्य उपस्थिति वाले मुसलमानों को निशाने पर लेकर उन्होंने वही तिकड़म आजमाई जिसमें वे और उनका कुनबा पूरी तरह सिद्ध है : हिन्दू खतरे में हैं का शोर मचाना और साम्प्रदायिक विभाजन और उन्माद भड़काना।
उत्तर प्रदेश में उन्हें मुगल राज की याद आयी और दावा किया कि इसका खात्मा योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही जाकर हो पाया है। यह दावा करते समय वे यह भूल गए कि खुद उन्हीं की पार्टी के कल्याण सिंह और रामप्रकाश गुप्त दो-दो बार और खुद अमित शाह को भाजपा की अध्यक्षी का दण्ड-कमण्डल सौंपने वाले राजनाथ सिंह एक बार लखनऊ में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठ कर भारत के संविधान की कपालक्रिया की कोशिश कर चुके हैं।
भाजपाइयों की संघी ट्रेनिंग में इतिहास बिगाड़ना ही सिखाया जाता है – यह शिक्षा खुद उन पर लागू न हो, यह कैसे हो सकता है! ख़ास बात यह थी कि उत्तरप्रदेश की जिस सभा में अमित शाह मुगलिया सल्तनत का बखान कर रहे थे, उसमें उनके साथ उनके गृह राज्य मंत्री टेनी मिश्रा भी विराजे हुए थे। वही टेनी मिश्रा, जिन्हें कायदे से जेल में होना चाहिए -- क्योंकि वे लखीमपुर खीरी में अपने बेटे द्वारा किसानों को गाड़ियों से कुचल देने के मुकदमे में गैर जमानती धाराओं में नामजद मुजरिम हैं।
इधर अमित शाह को बरास्ते रास्ते की नमाज़ खुदा याद आ रहा था, तो उधर योगी को जिन्ना का जिन्न और तालिबान सता रहे थे और आडवाणी की रथ यात्रा के वक़्त बाबरी मस्जिद पर धावा बोलने वाले कार सेवकों को रोके जाने के लिए हुयी कार्यवाही की याद आ रही थी।
इन सारे बोल-वचनों से एक बात यह साफ़ हो गयी है कि आने वाले तीन महीने इस देश और खासकर जिन प्रदेशों में चुनाव होने जा रहा है, उनके लिए शांत और निरापद नहीं रहने वाले हैं। उन्मादियों को "छू" बोली जा रही है और उनके दंगाई बनने के लिए इन दिनों किसी बहाने की भी जरूरत नहीं होती। दूसरी बात यह स्पष्ट हो गयी है कि अब ध्रुवीकरण, विभाजन और उन्माद ही भाजपा के पास इकलौता जरिया बचा है। उपचुनाव बंगाल में भी हो रहे थे, इसलिए वहां इसी को आगे बढ़ा रही थी बंगाल से भाजपा की सांसद रूपा गांगुली -- जो मुस्लिम महिलाओं को निशाने पर लेकर उनका वर्णन "एक बच्चा पेट में, यहां एक कांख में, वहां एक गोदी में, पीछे लाइन में और चार…" वाली औरत के रूप में कर रही थीं।
मध्यप्रदेश में यह एजेंडा दूसरी तरह से जारी था और यहां मैदान में सिर्फ संघी गिरोह ही नहीं था, राज्य के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा भी डटे हुए थे। उन्हें पहले करवाचौथ पर आए डाबर की फेम ब्लीच क्रीम का विज्ञापन नागवार गुजरा। डाबर के इस विज्ञापन को वापस ले लेने के बाद उनका हौसला और बढ़ा और उन्होंने खुद को फैशन ब्रांड बताने वाले सव्यसाची के मंगलसूत्र विज्ञापन पर आपत्ति ठोक दी और उसे चौबीस घंटों के अंदर न हटाने पर सबक सिखाने की धमकी दे डाली। सव्यसाची भी डर गए और मय विज्ञापन के पीछे हटकर दुबक गए।
इस श्रृंखला में सबसे त्रासद 'उलटे बाँस बरेली को' लाद दिए जाने वाली घटना फिल्म निर्माता-निर्देशक और अब अभिनेता भी, प्रकाश झा के साथ हुयी। प्रकाश झा बहुत पहले से केसरिया बने हुए हैं। वे पहले और एकमात्र ऐसे फिल्म व्यक्तित्व थे, जो खुलकर मोदी और आरएसएस गिरोह की हत्यारी और आपराधिक मुहिम के समर्थन में उतरे थे। वे अकेले ऐसे नामी कलाकार थे - जो जब कुलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे और गौरी लंकेश की हत्याएं की जा रही थीं, जब फिल्म, चित्रकला, कहानी के पीछे नेकर धारी लट्ठ लेकर पड़े थे, जब तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन अपने लेखक की मौत का ऐलान कर रहे थे, जब समूचे देश में इस असहिष्णुता के विरुद्ध आवाज उठ रही थी - वे – प्रकाश झा – उस वक़्त राजा का बाजा बजा रहे थे, उन्हें सहिष्णु बता रहे थे और असहिष्णुता की बात करने वालों को गरिया रहे थे।
यही प्रकाश झा जब भोपाल में अपनी वेब सीरीज आश्रम के तीसरे सीजन की शूटिंग कर रहे थे, तब उनको और उनकी टीम को आरएसएस के आनुषांगिक संगठन बजरंग दल ने धुन डाला। फिल्म निर्माण कामों में लगे क्रू की पिटाई लगाई। मशीनों, कैमरों को तोड़ा-फोड़ा और निर्माता निर्देशक प्रकाश झा के ऊपर स्याही की बोतल उड़ेल दी। यह सरासर गुण्डई थी। मगर प्रदेश का गृहमंत्री खुद इस गुण्डई को सही ठहराने के लिए उतर पड़ा और यहीं तक नहीं रुका, भविष्य में किसी भी शूटिंग के पहले पटकथा को पुलिस और प्रशासन से पास कराने का धर्मादेश भी जारी कर मारा।
इस सब में कोढ़ में खाज की तरह पीड़ादायी प्रकाश झा का आचरण था। असहिष्णु ब्रिगेड ने उन्हें निशाना बनाया, तब भी बजाय दिलेरी से उनका सामना करने के वे कातर और घिघियाते-से खड़े रहे। अपनी भद्रा उतरने के बाद भी उनका मुगालता दूर नहीं हुआ। इतना सब होने के बावजूद उन्होंने पुलिस थाने में रपट लिखाने से मना कर दिया। वे पिटने के बाद भी नहीं समझे कि फासिज्म किसी को नहीं बख्शता, फासिस्टी नागिन सबसे पहले अपने ही बच्चों को खाती है। दुनिया भर की खबर बनने की वजह से पुलिस थाने ने खुद अपनी तरफ से एफआईआर लिख ली है। लेकिन इस एफआईआर का कोई मतलब नहीं, जब तक कि घटना से पीड़ित प्रभावित लोगों की गवाही न हो। प्रकाश झा के आचरण को देखकर साफ है कि उनकी तरफ से तो ऐसा कुछ होने वाला नहीं है।
लेकिन प्रकाश झाओं, डाबरों और सव्यसाचियों के समर्पण कर देने से जनता समर्पण नहीं करेगी – वह लड़ेगी अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकार के लिए ; प्रकाश झा के फिल्म और वेब सीरीज तथा बाकियों के विज्ञापन बनाने के संविधानसम्मत अधिकार सहित अपनी जिंदगी को नर्क-जैसा बना देने वाली नीतियों से मुकाबले के लिए भी। यही जनता आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी अपनी भूमिका निबाहेगी और बंटवारे, फूट, उन्माद और बेईमानी की सियासत को शिकस्त देगी।
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)