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जनज्वार विशेष

ज्ञान के ब्राह्मणी वर्चस्व को बनाये रखने के लिए बुद्ध-कबीर जैसे धकेले जाते हैं हाशिये पर

Janjwar Desk
15 Oct 2020 1:21 PM GMT
ज्ञान के ब्राह्मणी वर्चस्व को बनाये रखने के लिए बुद्ध-कबीर जैसे धकेले जाते हैं हाशिये पर
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आज विवेकानन्द की तारीफ़ के पुल बांधने वालों को ध्यान से पढियेगा, उनकी भाषा शैली और लक्ष्य में साफ़ नजर आएगा कि वे विवेकानन्द के "मिशनरी" रूप को एक सनातनी रूप से ढांक देना चाहते हैं और सामाजिक बदलाव की छोटी सी चिंगारी को आत्मघाती अध्यात्म के सड़ते हुए डबरे में दबा देना चाहते हैं....

युवा समाजशास्त्री संजय श्रमण का विश्लेषण

भारत में विवेकानन्द, अरबिंदो घोष और आदि शंकर जैसे विचारकों का प्रभाव क्यों बना रहता है? ये समाज को क्या देते हैं और इनसे क्या प्रेरणा मिलती आई है?

अगर भारत में धर्म, व्यापार और राजनीति की सत्ता पर नियंत्रण रखने वालों की विवशताओं और षड्यंत्रों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि इस तरह के नायक कैसे और क्यों देश के जनमानस पर छा जाते हैं और बुद्ध, गोरख, कबीर और नानक जैसे वास्तविक क्रान्तिदृष्टा लोग क्यों बार बार हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। भारत में ऐसा करना क्यों जरुरी है? इनके जरिये ब्राह्मणी वर्चस्व को येन केन प्रकारेण बनाये रखने की क्या विवशता रही है?

इसका संकेत हमें आदिशंकर, स्वामी विवेकानन्द और अरबिंदो घोष के कर्तृत्व में और उनके विरोधाभासों में मिलता है। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रंथों में जिस तरह का तर्कबोध या न्यायबोध मुखर हो रहा है उसका आधुनिक भारत के न्याय बोध पर गहरा प्रभाव पड़ा है, भारतीय धर्मशास्त्रों का न्याय बोध पश्चिमी समाज को आश्चर्यचकित करता रहा है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय धर्मशास्त्र के अनुसार स्त्रियों और अस्पृश्यों से किये जाने वाले व्यवहार पर अंग्रेजों ने आपत्ति ली थी (Flood, 2003)। इन धर्मशास्त्रों के संदर्भ में पी.वी. काणे नोट करते हैं कि आदि शंकर ने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए मनुस्मृति का बार-बार बहुत सम्मान से उल्लेख किया है और ब्रह्म सूत्र की सत्यता और महिमा के पक्ष में जो तर्क दिए हैं उनमे एक तर्क ये भी है कि चूँकि मनु ने ब्रह्मसूत्रों को महान कहा है इसलिए ब्रह्मसूत्र एक महान ग्रन्थ है।

साथ ही वे यह भी लिखते हैं कि मनु ने जो कुछ भी कहा है वह औषधि के समान है क्या शंकर मनु के दार्शनिक होने के नाते दर्शन की गहन मीमांसा से भरे हुए "वेदांत भाष्य" में उनका उल्लेख कर रहे हैं? (Chattopadhyay, 1993) मनु दार्शनिक नहीं हैं बल्कि धार्मिक कानून के निर्माता हैं जिनके क़ानून न केवल सामान्य नैतिकता बोध की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं बल्कि भयानक रूप से एक वर्ग विशेष के पक्षपाती है (Chattopadhyay, 1993) इसके बावजूद शंकर मनु जैसे धर्मशास्त्र (धर्म क़ानून) बनाने वाले मनु को दार्शनिक विमर्श में एक महत्वपूर्ण स्त्रोत की तरह न केवल उपयोग कर रहे हैं बल्कि महिमामंडित भी कर रहे हैं।

यहाँ यह माना जा सकता है कि आदि शंकर के समय तक भारत में दर्शन, धर्म, धार्मिक कानून, रहस्यवाद आदि अलग नहीं हुए थे और एक ही स्त्रोत से उनको ग्रहण किया जा रहा था. हालाँकि ये दशा पश्चिमी समाज में भी रही है, लेकिन पश्चिमी पुनर्जागरण से इसमें बदलाव हुआ, और न केवल विज्ञान ने बल्कि दर्शन ने भी स्वयं को धर्म से अलग करते हुए लगभग एक विरोधी की भूमिका अपना ली थी।

इसीलिये पश्चिम के दार्शनिक प्राचीन दार्शनिक परम्पराओं की जकड़ से स्वयं को मुक्त करके नए "स्कूल ऑफ़ थॉट" निर्मित करते रहे हैं। इसके विपरीत मध्यकालीन और आधुनिक भारत के सभी सुप्रसिद्ध और प्रभावशाली दार्शनिक वेदान्त के ही व्याख्याकार बने हुए हैं और वेदों, उपनिषदों और गीता में अपने नई प्रस्तावनाओं की जड़ें दिखाने के लिए और आधुनिक विश्व द्वारा उत्पन्न और विकसित किये गये ज्ञान का वेद वेदान्त में ही प्रक्षेपण करने को बाध्य हैं। ऐसे चिंतकों में सबसे महत्वपूर्ण नाम आदिशंकर, विवेकानंद और अरबिंदो घोष का है।

अपनी यूरोप और अमेरिका यात्राओं में इसाइयत के सेवाभावी मिशनरी स्वरूप और पश्चिमी समाज की विकसित और तुलनात्मक रूप से नैतिक संरचना ने स्वामी विवेकानंद को बहुत प्रभावित किया था। इसाई धर्म, पश्चिमी आधुनिकता और बहुसंस्कृतिवाद ने बहुत से बंगाली बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया, जिन्होंने एक नये किस्म के हिन्दू धर्म 'नियो-हिन्दुइज्म' या 'नियो-वेदांता' की नींव रखी (Pennington, 2005), उल्लेखनीय है कि अपनी यूरोप यात्रा से लौटते ही स्वामी विवेकानंद आयरलैंड की प्रशिक्षित और अनुभवी मिशनरी सेविका 'सिस्टर निवेदिता' के साथ रामकृष्ण "मिशन" आरम्भ किया था।

इस नियो हिन्दुइज्म जैसी असुरक्षित रचना को वैधता और सुरक्षा देने के लिए विवेकानन्द इसाई मिशनरी सेवाभाव का उपयोग करते हुए इसके समानांतर ठीक वही उपाय कर रहे हैं जो आदिशंकर ने अपने समय में किया था। विवेकानन्द का ये उपाय था - मिथकीय आख्यानों और रहस्यवाद सहित उनसे मिलने वाली शिक्षाओं का महिमामंडन और मिथक साहित्य में उल्लेखित न्याय, तर्क, नैतिकता सहित शुभ और अशुभ की धारणा में नये युग के इसाई और वैज्ञानिक मूल्यों का प्रक्षेपण – जैसा कि आदि शंकर ने बौद्ध दर्शन को वेदान्त में प्रक्षेपित करते हुए प्रयोग किया था।

उल्लेखनीय है कि छठवीं शताब्दी में वैदिक अर्थ के बलि और इहलौकिकता आधारित कर्मकांडों को नकारकर वेदान्तिक ढंग के दर्शन की तरफ संक्रमण होने लगा (Doniger, 2014) था जिसे शंकर ने बौद्ध दर्शन के वेदांत में प्रक्षेपण द्वारा अंतिम मुकाम तक पहुंचा दिया।

विवेकानंद के कर्तृत्व को ठीक से देखा जाए तो एक तथाकथित पिछड़ी जाति से आने के कारण उन्होंने गरीबी, भेदभाव और पीड़ा को बहुत करीब से देखा था। इसी कारण तत्कालीन यूरोपीय तर्कनिष्ठा से वे पूरी तरह सहमत थे और अपने शुरुआती दौर में अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस या देबेन्द्रनाथ ठाकुर को भी उन्होंने बक्शा नहीं था। उनसे आँख मिलाकर विवेकानन्द ने जो प्रश्न किये थे वे वैज्ञानिक चित्त के सामाजिक जागरण के आशय से महत्वपूर्ण प्रश्नों में गिने जा सकते हैं।

बाद में हमेशा की तरह आत्मा परमात्मा की धुंध में वे भी लंबे समय तक गुम हो गए, लेकिन यूरोप अमेरिका की यात्राओं के बाद उनके भीतर का तार्किक और सामाजिक क्रांतिकारी फिर से ज़िंदा होता है। उन्होंने आश्रम की नहीं बल्कि "मिशन" की स्थापना की जो आज भी चल रहा है। हालाँकि अब मिशन पर आश्रम हावी हो चुका है। विवेकानन्द को स्वयं सनातनियों से हार माननी पड़ी थी। एक पिछड़ी जाति से होने के नाते उन्हें तत्कालीन बंगाली ब्राह्मणों ने संन्यास का अधिकारी नहीं माना था। उनकी सभाओं पर हमले किये गये, अपमान और नारेबाजी की गयी।

एक संन्यासी होने के बावजूद सिस्टर निवेदिता अर्थात एक स्त्री को अपने साथ ले आने पर उनका तिरस्कार किया गया था। इसी तरह रविन्द्रनाथ टैगोर का किस्सा भी है, एक पिछड़ी जाति (नामशुद्र) से आने के कारण तत्कालीन ब्राह्मणों के साहित्यिक भद्रलोक में घुसने नहीं दिया गया था। नोबेल पुरस्कार मिलने तक वे अछूत ही बने रहे थे।

विवेकानन्द ने बाद के वर्षों में स्वयं अपनी क्रान्तिचेतना से समझौता करके उसी जहरीले अध्यात्म का प्रचार किया, जिसके खिलाफ उन्होंने अपने ही अतीत में प्रश्न उठाये थे और जिसकी असफलता के प्रमाण उन्होंने भारत भ्रमण सहित यूरोप अमेरिका प्रवास में हासिल किये थे।

विवेकानन्द ने भारतीय आलस्य, कायरता और छुआछूत की जैसी निंदा की है उससे पता चलता है कि अक्सर वे सही दिशा में सोचते थे लेकिन ब्राह्मणवादी अध्यात्म के बोझ ने इस व्यवस्था को बदलने के लिए उन्हें कुछ नहीं करने दिया। बाद की कसर उनके नाम पर चन्दा उगाने वाले सनातन परजीवियों ने पूरी कर दी।

आज विवेकानन्द की तारीफ़ के पुल बांधने वालों को ध्यान से पढियेगा। उन परजीवियों की भाषा शैली और लक्ष्य में साफ़ नजर आएगा कि वे विवेकानन्द के "मिशनरी" रूप को एक सनातनी रूप से ढांक देना चाहते हैं और सामाजिक बदलाव की छोटी सी चिंगारी को आत्मघाती अध्यात्म के सड़ते हुए डबरे में दबा देना चाहते हैं।

विवेकानन्द ने स्वयं ही भारतीय अध्यात्म के आत्मघाती तत्वों का गुणगान करते हुए न सिर्फ अपने ही तार्किक और क्रांतिकारी अतीत को नष्ट कर दिया है, बल्कि यूरोपीय आधुनिकता से अर्जित ज्ञान के प्रकाश में भारतीय समाज के नव निर्माण की संभावना पर भी कुठाराघात किया है।

इसीलिये विवेकानन्द को सांप्रदायिक संगठनों ने इतनी आसानी से पचा लिया है, और उन्हें सर पर उठा रखा है। इसी कारण भारत में लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सभ्य समाज के निर्माण की चुनौती के सन्दर्भ में विवेकानन्द से जुड़ा कोई भी विमर्श खतरे से खाली नहीं है।

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