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विमर्श

Cabinet amendments to National Biofuel Policy: क्या गरीब, किसानों के पेट पर लात मारकर बायो डीजल बनाएगी केंद्र सरकार ?

Janjwar Desk
18 May 2022 7:53 PM IST
Cabinet amendments to National Biofuel Policy: क्या गरीब, किसानों के पेट पर लात मारकर बायो डीजल बनाएगी केंद्र सरकार ?
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Cabinet amendments to National Biofuel Policy : क्या गरीब, किसानों के पेट पर लात मारकर बायो डीजल बनाएगी केंद्र सरकार ?

Cabinet amendments to National Biofuel Policy: भारत फिलहाल अपनी पेट्रोलियम पदार्थों की जरूरत का 85% आयात करता है, सरकार की दलील है कि पेट्रोल में एथेनॉल की मात्रा मौजूदा 10% से बढ़ाकर अगले 6 साल में 20% करने से उसका पेट्रोलियम आयात का खर्च 4 बिलियन डॉलर, यानी करीब 30 हजार करोड़ रपए कम होगा.....

सौमित्र रॉय की रिपोर्ट

Cabinet amendments to National Biofuel Policy: केंद्र सरकार ने बुधवार को कैबिनेट की बैठक (Cabinet Meeting) में 2025-26 तक पेट्रोल में 10 की जगह 20% एथेनॉल मिलाने को मंजूरी दे दी। दरअसल, केंद्र सरकार की नजर पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर लगने वाले 551 बिलियन डॉलर के उस बिल को कम करने की तरफ है, जो लगातार बढ़ रहा है। लेकिन बुधवार के फैसले से देश को मक्के और गन्ने जैसी फसलों का रकबा बढ़ाना होगा, जो कि एथेनॉल बनाने के लिए चारे की तरह काम करता है।

विश्व भुखमरी सूचकांक (World Hunger Index) में 116 देशों में से 101 पायदान तक उतर चुके भारत में केंद्र सरकार (Center) का यह फैसला न केवल गरीब, किसानों के पेट पर लात मारने वाला है, बल्कि वाहन मालिकों का भी खासा नुकसान करेगा, क्योंकि पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने से उनकी गाड़ियों का माइलेज बिगड़ जाएगा।

फैसले के पीछे सरकार की दलील

भारत फिलहाल अपनी पेट्रोलियम पदार्थों (Petroleum Products) की जरूरत का 85% आयात करता है। सरकार की दलील है कि पेट्रोल में एथेनॉल की मात्रा मौजूदा 10% से बढ़ाकर अगले 6 साल में 20% करने से उसका पेट्रोलियम आयात का खर्च 4 बिलियन डॉलर, यानी करीब 30 हजार करोड़ रपए कम होगा। मूल रूप से एथेनॉल की ब्लेंडिंग को 20% तक बढ़ाने का सुझाव नीति आयोग की तरफ से आया था, जिसके कैबिनेट ने मंजूर किया है। सरकार का यह भी दावा है कि पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग से प्रदूषण कम होगा। हालांकि इंस्टीट्यूट ऑफ एनर्जी इकोनॉमिक्सइकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (IEEFA) की रिपोर्ट कहती है कि इससे ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने वाली गैसों को कम करने में खास मदद नहीं मिलने वाली है, बल्कि इससे देश की खाद्य सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ेगा।

क्यों है सरकार का आत्मघाती फैसला ?

IEEFA का साफ कहना है कि अगर सरकार पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग करने की जगह इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) को बढ़ावा देती तो वह पर्यावरण के लिए ही नहीं, खाद्य सुरक्षा के लिए भी मुफीद होता। मिसाल के लिए 187 हेक्टेयर मक्के की फसल से पैदा हुए एथेनॉल को पेट्रोल में मिलाकर एक वाहन को सालभर में उतना ही दौड़ाया जा सकता है, जितना एक एकड़ क्षेत्र में सौर ऊर्जा से पैदा हुई बिजली से किसी EV को चार्ज करने पर वह तय करेगी। यानी एथेनॉल ब्लेंडेड गाड़ियों और EV के बीच संचालन व्यय का अनुपात 187:1 है। यह बात ऑस्ट्रेलिया चार्ल्स वरिंघम ने अपने शोध कार्य से प्राप्त नतीजों को IEEFA की रिपोर्ट में साफ लिखी है।

आपकी गाड़ियों को होगा यह बड़ा नुकसान

भारत में अभी तक गन्ने के शीरे से बने एथेनॉल का करीब 10% पेट्रोल में मिलाया जा रहा है। इसे अगर E20 यानी 20% के स्तर तक लाना हो तो गाड़ियों के इंजन को इसके उपयुक्त बनाना होगा, जो कि एक खर्चीला काम है। भारत में 2008 से जो गाड़ियां बन रही हैं, वे 10% तक (E 10) एथेनॉल ब्लेंडिंग को ही बर्दाश्त कर सकती हैं। ईंधन किफायती गाड़ियां तो उससे भी कम, यानी E5 (5% ब्लेंडिंग ) को ही बर्दाश्त कर पाती हैं। अब केंद्र सरकार के फैसले के मुताबिक पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग मौजूदा 10% से बढ़ाई जाए तो E 10 वाली गाड़ियों में पेट्रोल की खपत 7% और E5 वाली गाड़ियों में 10-15% तक बढ़ जाएगी। इसका मतलब यह कि आपको ईंधन पर ज्यादा खर्च करना होगा। अगर फ्लेक्स फ्यूल गाड़ियों की बात करें तो इनकी लागत बाजार में सामान्य गाड़ियों की तुलना में 25 हजार रुपए तक अधिक हैं। ऐसी दोपहिया गाड़ियां 12 हजार रुपए तक महंगी मिलती हैं। ऐसे में सरकार अगर इन गाड़ियों को खरीदने पर छूट भी दे तो भी उसका कोई फायदा आपको नहीं होगा।

कैसे पड़ेगी आपके भी पेट पर लात

भारत में अभी शराब बनाने वाली डिस्टिलरियों और अनाज से एथेनॉल पैदा करने वाली डिस्टिलरियों से 6.84 बिलियन लीटर एथेनॉल पैदा किया जाता है। अगर केंद्र सरकार को 2025-26 तक लक्षित 10.16 बिलियन लीटर एथेनॉल पैदा करना है तो उसे सालाना 60 लाख मीट्रिक टन गन्ने और 16.5 लाख मीट्रिक टन अनाज की अतिरिक्त जरूरत होगी। यानी देश को मक्का उत्पादन बढ़ाने के लिए 30 हजार वर्ग किलोमीटर अतिरिक्त जमीन चाहिए। IEEFA का आंकलन है कि भारत इससे आधी जमीन पर 2050 तक बिजली पैदा कर सकता है।

बात केवल जमीन की ही नहीं है। एक टन गन्ने की फसल 100 किलो शकर और 70 लीटर एथेनॉल पैदा करती है। लेकिन केवल एक किलोग्राम शकर के उत्पादन के लिए 2000 लीटर तक पानी की जरूरत पड़ती है। इसी तरह एक लीटर एथेनॉल पैदा करने के लिए 2860 लीटर पानी चाहिए। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार किसानों से जबर्दस्ती या अनुबंध पर मक्के और गन्ने की ही खेती करवाएगी? अगर ऐसा होता है तो फिर बाकी अनाज कौन उगाएगा ? किसान परिवारों और देश की आम गरीब जनता की खाद्य सुरक्षा का क्या होगा ? इन सवालों को देखते हुए सरकार का फैसला देश की जनता के पेट पर लात मारने से कम नहीं है।

नीति आयोग के रोडमैप पर उठते गंभीर सवाल

गन्ने और शकर उद्योग पर गठित सरकारी टास्क फोर्स की रिपोर्ट कहती है कि केवल धान और गन्ने की खेती में ही देश का 70% सिंचाई का पानी खप जाता है। इसके बाद और बाकी फसलों के लिए ज्यादा पानी नहीं बचता। इसे देखते हुए देश को फसल चक्र में बदलाव करने के साथ ही एथेनॉल बनाने के लिए दूसरी पर्यावरण अनुकूल फसलें तलाशनी होंगी। बायोफ्यूल को लेकर राष्ट्रीय नीति में धान के पुआल, गन्ने के छिलकेछिलके, बांस और अन्य गैर खाद्य वनस्पतियों से एथेनॉल बनाने की बात कही गई है, लेकिन कैबिनेट के फैसले ने इन नीति को एक बार फिर परंपरागत विकल्पों- गन्ने और मक्के से ईंधन बनाने की तरफ लाकर खड़ा कर दिया है।

सरकार का फैसला जलवायु परिवर्तन (Climate Change) संबंधी चिंताओं को दरकिनार कर रहा है, जिसमें सूखे और बाढ़ से फसलों को नुकसान होने की आशंकाएं अब लगातार सही साबित हो रही हैं। किसी भी एक या दो साल लगातार सूखा पड़ जाए तो नीति आयोग और केंद्र सरकार की बायोफ्यूल नीति ठप पड़ सकती है। साफ है कि बिना परामर्श के केंद्र सरकार का यह फैसला आम जनता को खासा भारी पड़ने वाला है।

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