विकासशील देशों ने सम्मेलन में एकजुट होकर कमर कसी, क्या होंगे कामयाब?
जलवायु परिवर्तन सम्मेलन पर हृदयेश जोशी की रिपोर्ट
ग्लासगो में चल रहे जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के आखिरी राउंड में विकासशील और गरीब देश जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए पैसे (क्लाइमेट फाइनेंस) की मांग को लेकर एक जुट हो गए हैं। एडाप्टेशन, मिटिगेशन और लॉस एंड डैमेज के लिए क्लाइमेट फाइनेंस एक बड़ा मुद्दा रहा है, जिसके प्रति अमीर देश वादे तो करते रहे हैं लेकिन फंड को देने में आनाकानी कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिये तैयारियों को एडाप्टेशन ( अनुकूलन ) कहा जाता है जबकि कार्बन इमीशन कम करने के लिए साफ ऊर्जा ( जैसे सौर और पवन ऊर्जा ) के प्रयोग को मिटिगेशन ( शमन ) कहते हैं। क्लाइमेट चेंज के प्रभावों ( जैसे सूखा, बाढ़, चक्रवाती तूफान ) से हो रही क्षति ही लॉस एंड डैमेज कही जाती है।
विकासशील देशों का बड़ा नेटवर्क हुआ सक्रिय
पिछले 100 सालों में स्पेस में सबसे अधिक कार्बन जमा करने वाले देश अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की कथनी और करनी में बड़ा अंतर रहा है। इस सम्मेलन में भी अमेरिका क्लाइमेट फाइनेंस की शर्तों को बदलने के लिए जो दबाव डाल रहा है उसे लेकर विकासशील देश बड़े आक्रोशित हैं। शुक्रवार रात या शनिवार को सम्मेलन का समापन होना है। समापन से पहले क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर छोटे द्वीप-देशों के समूह ( एओएसआईएस ) और अल्प विकसित देशों की मांगों को जी-77 और चीन ने अपने एजेंडा में शामिल कर लिया है।
जी-77 भारत समेत 130 से अधिक विकासशील देशों का ग्रुप है। चीन के साथ आने से सम्मेलन में एक ताकतवर ब्लॉक बना है जो आखिरी मोल-तोल में प्रभाव डाल सकता है। इस वृहद समूह ने मांग की है कि जलवायु परिवर्तन के कारण तबाही से हो रही क्षति की भरपाई के लिए एक औपचारिक व्यवस्था की जाए और इसे क्लाइमेट फाइनेंस में शामिल किया जाए। वैसे, चीन इस समय दुनिया का सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। यह बड़ी चिन्ता का विषय हैं। हालांकि, चीन ने मीथेन उत्सर्जन कम करने का वादा तो नहीं किया पर अपने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अमेरिका के साथ एक द्विपक्षीय घोषणा ज़रूर की है।
नेटवर्क प्रभावी, क्रियान्वय शून्य
महत्वपूर्ण है कि इसी सोच के साथ 2019 में मैड्रिड में एक सेंटियागो नेटवर्क बनाने की घोषणा की गई थी। यह नेटवर्क जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लड़ने की रणनीति का हिस्सा है, लेकिन इसे आगे बढ़ाने में कोई खास तरक्की अब तक नहीं हुई है। विकासशील देशों के नुमाइंदों को लगता है कि सम्मेलन में औपचारिक रूप से लॉस एंड डैमेज की व्यवस्था बदलाव लाएगी।
इस सम्मेलन में हिस्सा ले रहे नेपाल के सुनील आचार्य - जो कि क्लाइमेट एंड रेजिलिएंस, प्रैक्टिकल एक्शन के रीज़नल एडवाइज़र हैं। उनके के मुताबिक, "विकासशील देश इस सम्मेलन में इस समझ के साथ आये कि सेंटीयागो नेटवर्क के लिए पूरा सहयोग किया जाएगा। चाहे वह तकनीकी सहयोग हो या आर्थिक मदद। ताकि विकासशील देशों को जरूरी मदद मिल सके लेकिन हम यहां देख रहे हैं कि तकनीकी सहयोग और कार्यान्वयन की दिशा में कोई सहयोग नहीं किया जा रहा और इसे अगले सम्मेलन के लिए टाल देने की कोशिश हो रही है।
सम्मेलन के लिए वक्त था, पर नहीं की तैयारी
आचार्य कहते हैं कि क्लाइमेट फाइनेंस पर भी ईमानदारी नहीं बरती जा रही है। उनके मुताबिक कोपेनहेगन (2009) और पेरिस (2015) सम्मेलन में किए गए वादे पूरे नहीं हुए। हर साल 100 बिलियन डॉलर मदद का वादा कागज़ों पर ही रहा है। अब इसमें बढ़ोतरी की ज़रूरत है। भारत ने भी सम्मेलन में 1 ट्रिलयन डॉलर (75 लाख करोड़ रुपए ) के बराबर राशि एडाप्टेशन, मिटिगेशन और लॉस एंड डैमेज की भरपाई के लिए मांगी है।
आचार्य कहते हैं कि हाल के वर्षों में बढ़ते लॉस एंड डैमेज को देखते हुए विकासशील देशों को अतिरिक्त वित्तीय और तकनीकी मदद की ज़रूरत है। लेकिन अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और यूके एक के बाद दूसरे सम्मेलन ही कर रहे हैं, उससे अधिक कुछ नहीं।
उन्होंने कहा, "अगर आपने हाल में आई आईपीसीसी की रिपोर्ट देखी हो तो पता चलता है कि क्लाइमेट चेंज का दुनिया पर और विशेष रूप से विकाससील देशों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इन देशों का ग्लोबल वॉर्मिंग में न तो कोई दोष है और न ही इनके पास इससे निपटने के संसाधन हैं। इसलिए विकसित देशों को लॉस एंड डैमेज जैसी बारीकियों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। इस सम्मेलन के अध्यक्ष ( यूके ) के पास इस तैयारी के लिए दो साल का वक्त था क्योंकि पिछले साल होने वाला सम्मेलन कोरोना के कारण नहीं हो पाया। वह अधिक सकारात्मक रोल निभा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं दिख रहा।