आम जनता की नजर में भी एक वैश्विक आपात स्थिति है जलवायु परिवर्तन
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
हाल में ही कराये गए जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित एक वैश्विक सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है कि दुनिया की दो-तिहाई आबादी जलवायु परिवर्तन को वैश्विक आपात स्थिति मानती है। इस सर्वेक्षण को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड ने किया है और इसमें दुनिया के 50 देशों के लगभग 12 लाख लोगों को सम्मिलित किया गया था। इसे इस तरह का सबसे बड़ा सर्वेक्षण माना जा रहा है और 50 देशों में भारत भी सम्मिलित है। इन देशों की सम्मिलित आबादी दुनिया की कुल आबादी का 56 प्रतिशत से अधिक है। इन देशों में दुनिया के हरेक क्षेत्र, आयु वर्ग, लिंग और हरेक आय वर्ग का प्रतिनिधित्व था। इस सर्वेक्षण के विज्ञापन मोबाइल गेम्स और पजल के माध्यम से पूरी दुनिया में प्रसारित किये गए थे, जो इन दिनों हरेक आयुवर्ग के लोगों में लोकप्रिय हैं।
सर्वेक्षण के अनुसार पूरी दुनिया में 64 प्रतिशत व्यक्ति जलवायु परिवर्तन को वैश्विक आपात स्थिति मानते हैं और इनमें से 59 प्रतिशत लोग इसे रोकने के लिए सरकारों द्वारा युद्ध स्तर पर कार्य करने की वकालत भी करते हैं। भारत में कुल 59 प्रतिशत व्यक्तियों के लिए जलवायु परिवर्तन वैश्विक आपात स्थिति है। इंग्लैंड, इटली, जापान, साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के लिए यह प्रतिशत क्रमशः 81, 81, 79, 76, 72 और 65 है। पूरी दुनिया में 14 से 18 वर्ष तक के किशोरों/किशोरियों में से 69 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन को आपात स्थिति मानते हैं, जबकि 60 वर्ष से ऊपर के आयु वर्ग में 58 प्रतिशत ही इसे आपात स्थिति मानते हैं। जाहिर है, हरेक आयु वर्ग के लिए जलवायु परिवर्तन एक गंभीर समस्या है।
इन 50 देशों में से भारत समेत 16 देशों में पुरुष, महिलाओं की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को अधिक मानते हैं – इन देशों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की राय में कमी 5 प्रतिशत या इससे भी अधिक है। भारत में महिलाओं की अपेक्षा 9 प्रतिशत अधिक पुरुष जलवायु परिवर्तन को गंभीर समस्या मानते हैं। दूसरी तरफ 4 देशों – अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और इंग्लैंड – में जलवायु परिवर्तन को गंभीर समस्या मानने वालों में महिलाओं का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा अधिक है। यह एक रहस्य है कि केवल अंगरेजी बोलने वाले देशों में ही महिलायें अधिक जागरूक क्यों हैं, जबकि सर्वेक्षण का विज्ञापन दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली 16 भाषाओं में किया गया था।
यह सर्वेक्षण संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की वेबसाइट पर "पीपल्स क्लाइमेट वोट" के नाम से उपलब्ध है। इसके अनुसार पूरी दुनिया की आबादी केवल जलवायु परिवर्तन से परिचित ही नहीं है, बल्कि इसकी विभीषिका को समझती है और इसके नियंत्रण के उपाय भी बताने में सक्षम है। जिन देशों में जीवाष्म इंधनों का व्यापक उपयोग किया जा रहा है, वहां के लोग अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों की वकालत करते हैं और जिन देशों में बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं उन देशों में लोग जंगलों को बचाने के बारे में कहते हैं।
सर्वेक्षण के अनुसार सबसे अधिक यानि 54 प्रतिशत लोगों ने जंगलों को बचाने के बारे में कहा, 53 प्रतिशत ने अक्षय ऊर्जा के बारे में और 52 प्रतिशत ने जलवायु अनुकूल खेती की वकालत की। सबसे कम लोगों ने शाकाहार अपनाने को जलवायु परिवर्तन के समाधान के तौर पर स्वीकार किया। हमारे देश में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय के तौर पर सबसे अधिक लोगों ने अक्षय ऊर्जा के बारे में बताया, दूसरे क्रम पर जलवायु अनुकूल कृषि और तीसरे स्थान पर जंगलों का संरक्षण है।
सर्वेक्षण से मालूम होता है कि जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित सबसे अधिक जागरूकता पश्चिम यूरोप और अमेरिका में है और सबसे कम जागरूकता अफ्रीकी देशों में है। इसका कारण भी स्पष्ट है – यूरोप और अमेरिका में पिछले तीन वर्षों से जलवायु परिवर्तन रोकने में सरकारों की नाकामयाबी के विरुद्ध बड़े आन्दोलन किये जा रहे हैं। पश्चिम यूरोप और अमेरिका में 72 प्रतिशत लोग जलवायु परिवर्तन को वैश्विक आपदा मानते हैं, उत्तरी यूरोप और मध्य एशिया में 65 प्रतिशत, अरब में 64 प्रतिशत, दक्षिणी अमेरिका में 63 प्रतिशत, एशिया और पेसिफ़िक में भी 63 प्रतिशत और अफ्रीका में 61 प्रतिशत लोग जवायु परिवर्तन को गंभीर समस्या मानते हैं।
इन सबके बीच हाल में ही प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नल नेचर में प्रकाशित एक नए शोधपत्र के अनुसार मानव इतिहास में पृथ्वी कभी इतनी गर्म नहीं रही जितनी अब है। इस शोध को रुत्गेर्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने किया है, और सागर सतह के तापमान को अपना आधार बनाया है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह तापमान के सन्दर्भ में अब तक का सबसे सटीक आकलन है। इसके अनुसार वर्तमान दौर मानव् इतिहास, यानि पिछले 12,000 वर्षों का सबसे गरम दौर है। संभव है, पिछले 1,25,000 वर्षों के दौरान भी पृथ्वी कभी इतनी गर्म नहीं रही हो, पर वैज्ञानिकों के अनुसार इतने पुराने दौर के तापमान के आंकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं। हाल में ही एक दूसरे अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता वायुमंडल में जितनी आज के दौर में है, उतनी सांद्रता पिछले 40 लाख वर्षों में कभी नहीं रही।
जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि से सम्बंधित सबूत वैज्ञानिक लगातार दुनिया के सामने ला रहे हैं फिर भी हरेक जगह ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है और दूसरी तरफ हरेक देश दुनिया को इसे नियंत्रित करने की प्रतिबद्धता बता रहा है। हाल में ही यूरोपियन यूनियन के कूपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विसेज द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 औद्योगिक युग के आरम्भ होने के बाद, यानि वर्ष 1750 से 1800 के बाद का सबसे गर्म वर्ष रहा है। दरअसल, वर्ष 2020 और वर्ष 2016 में पृथ्वी का समान औसत तापमान पाया गया, पर वर्ष 2016 में दुनिया एलनीनो की चपेट में थी जो पृथ्वी का तापमान प्राकृतिक तौर पर बढाता है।
वर्ष 2020 में ऐसा कुछ नहीं था – इसीलिए समान तापमान के बाद भी वर्ष 2020 को सबसे गर्म वर्ष माना गया है। पिछले 6 वर्ष आधुनिक दौर के 6 सबसे गर्म वर्ष रहे हैं और पिछला दशक सबसे गर्म दशक रहा है। वर्ष 2020 के दौरान पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.25 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, जबकि पेरिस समझौते के तहत इस शताब्दी के अंत तक तापमान बढ़ोत्तरी को पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य रखा गया है। दूसरी तरफ इस तापमान के नजदीक तो दुनिया 2020 में ही पहुँच गई।