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विमर्श

कोरोना की आड़ में दुनिया के अधिकांश देशों में श्रमिकों का दोहन, सरकारें थोप रहीं अपना अघोषित एजेंडा

Janjwar Desk
7 Oct 2020 11:57 AM GMT
कोरोना की आड़ में दुनिया के अधिकांश देशों में श्रमिकों का दोहन, सरकारें थोप रहीं अपना अघोषित एजेंडा
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दुनिया के अधिकतर देशों में कोविड 19 की आड़ लेकर श्रमिकों, कृषि और पर्यावरण से सम्बंधित क़ानून बदलने का काम सरकारें तेजी से कर रही हैं, कोविड 19 के दौर में दुनिया के अधिकतर देशों में आन्दोलनों पर सख्त प्रतिबन्ध है, इसीलिए जनता का दमन कर सरकारें अपना अघोषित एजेंडा थोप रहीं हैं....

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

कोविड 19 के दौर में भारत की तरह इंडोनेशिया में भी संसद में ताबड़तोड़ तरीके से श्रमिकों और पर्यावरण से सम्बंधित क़ानून बदल दिए गए हैं। इसका कारण बताया गया है कि कोविड 19 के बाद लडखडाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए व्यापक तौर पर विदेशी पूंजी निवेश की जरूरत है, और इन कानूनों में संशोघन के बाद तेजी से विदेशी पूंजी निवेश होगा।

पर्यावरणविदों और मानवाधिकार कार्यकार्ताओं के अनुसार पूंजी का तो पता नहीं पर इन नए संशोधित कानूनों के बाद सारे जंगल नष्ट हो जायेंगे, सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अनियंत्रित होने लगेगा और श्रमिकों को मिलने वाली लगभग सभी सुविधाएं ख़त्म हो जायेंगी।

इन कानूनों के विरोध में 6 अक्टूबर को इंडोनेशिया में पुलिस द्वारा अनुमति नहीं देने के बाद भी देशव्यापी प्रदर्शन किया गया जिसमें श्रमिक संगठन, मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद, छात्र, किसान, महिला संगठन और स्थानीय जनजातियों के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शरीक हुए। आन्दोलनकारियों ने सरकार को चेतावनी दी है कि यदि ये क़ानून वापस नहीं लिए गए, तो इससे भी बड़ा आन्दोलन किया जाएगा।

इंडोनेशिया के संसद में बिना किसी बहस के ही वर्तमान के 79 कानूनों के लगभग 1200 प्रावधानों को या तो हटा दिया गया या फिर उन्हें परिवर्तित कर दिया गया। इसके तहत श्रमिकों को मिलने वाले वैतनिक अवकाश, महिलाओं के लिए विशेष अवकाश, ओवरटाइम और दूसरी सुविधाओं हो हटा दिया गया है। इसी तरह, पर्यावरण के सन्दर्भ में लगभग सभी प्रकार के उद्योगों को स्थापित करने से पहले पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की जरूरत को हटा दिया गया है। अब केवल अत्यधिक खतरनाक उद्योगों को ही पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की आवश्यकता है, पर इसकी कोई परिभाषा नहीं है।

जाहिर है, अब शायद ही कोई उद्योग अत्यधिक खतरनाक की श्रेणी में आएगा। यही नहीं, अब तक पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन का आकलन स्थानीय निकाय करते थे, पर अब यह सब केंद्र सरकार के अधीन चला गया है। उद्योग स्थापित करने के लिए जमीन की दिक्कत का हल भी केंद्र सरकार ने कर दिया है। अब तक स्थानीय निकाय पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने की इजाजत नहीं देते थे, पर अब जब केंद्र जमीन देने वाली है तक पर्यावरण का कोई ध्यान निश्चित तौर पर नहीं रखा जाएगा।

अब लगभग हरेक क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति दे दी गई है, जिससे पर्यावरण का संकट और बड़ा हो गया है। वर्ष 1997 में भी इंडोनेशिया की तत्कालीन सरकार ने ऐसे ही बदलाव किये थे, पर उसके बाद लगातार बड़े आन्दोलन होते रहे, और सरकार को पहले जैसी स्थिति बहाल करनी पडी। पर, इस बार यह कठिन है क्योंकि बड़े आन्दोलनों को कुचलने के लिए इस समय कोविड 19 नामक हथियार है, जिसके बलबूते पर आन्दोलनों को आसानी से कुचला जा सकता है।

दुनिया के अधिकतर देशों में कोविड 19 की आड़ लेकर श्रमिकों, कृषि और पर्यावरण से सम्बंधित क़ानून बदलने का काम सरकारें तेजी से कर रही हैं। कोविड 19 के दौर में दुनिया के अधिकतर देशों में आन्दोलनों पर सख्त प्रतिबन्ध है, इसीलिए जनता का दमन कर सरकारें अपना अघोषित एजेंडा थोप रहीं हैं। हमारा देश तो इस मामले में अगुवा है, जहां कोविड 19 की आड़ में इसके प्रसार को रोकने के अतिरिक्त सबकुछ किया जा रहा है।

एकाएक लॉकडाउन का ऐलान करके सबसे पहले नागरिकता क़ानून के विरुद्ध आन्दोलनों को प्रतिबंधित किया गया, फिर दिल्ली दंगों की जांच के नाम पर दंगे फैलाने वालों को सरकारें पुरस्कृत करती रहीं और पीड़ित और मानवाधिकार समर्थकों को अभियुक्त करार दिया गया। दंगे स्वयं भड़काकर उसपर राजनीति करना और जनता का दमन करना तो कुख्यात गुजरात मॉडल के शीर्ष पर है, यह सब गोधरा से चल रहा है।

इसके बाद पर्यावरण कानूनों से सरकार ने खिलवाड़ किया। ऐसे सभी परियोजनाओं को पर्यावरण स्वीकृति उपहार में दे दी गई जिससे पर्यावरण विनाश तय है और स्थानीय आबादी प्रभावित होने वाली है। पर्यावरण कानूनों पर सरकार की सोच इसी तथ्य से जाहिर होती है कि पर्यावरण मंत्री बार-बार कहते हैं कि अभी क़ानून का अंतिम स्वरुप सामने नहीं आया है, इसलिए इसका विरोध जायज नहीं है। इससे अधिक हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि ड्राफ्ट पर्यावरण अधिनियम पर्यावरण मंत्रालय ने बनाया है तो कम से कम ड्राफ्ट से पर्यावरण मंत्री की मंशा का तो पता चलता ही है।

इसके बाद पहले कृषि से सम्बंधित अधिसूचना आई, और फिर संसद में ताबड़तोड़ कृषि और श्रम कानूनों को स्वीकृत कर दिया गया। इस सरकार का हरेक क़ानून केवल पूंजीपतियों के अनुरूप रहता है, और जनता का शोषण तय रहता है। इन कानूनों के विरुद्ध देश भर में आन्दोलन चल रहे हैं पर मीडिया केवल उन खबरों को दिखाता है जिससे जनता का ध्यान भटकाया जा सके। तथाकथित न्यू इंडिया की सरकार का जनता विरोधी चेहरा कम से कम इंडोनेशिया को तो प्रेरणा दे ही रहा है।

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