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विमर्श

किसान आंदोलन का कवरेज : पक्षपाती न्यूज चैनलों की राह पर चलते दिख रहे अखबार

Janjwar Desk
29 Nov 2020 8:16 AM GMT
किसान आंदोलन का कवरेज : पक्षपाती न्यूज चैनलों की राह पर चलते दिख रहे अखबार
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किसान आंदोलन के कवरेज में अखबारों का पक्षपातपूर्ण रवैया उजागर हुआ है। आंदोलन को उग्र बताने व उसको लेकर सनसनी पैदा करने की कोशिश भी की गई है...

वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन रौतेला का विश्लेषण

किसान आंदोलन के दूसरे दिन के समाचारों की कवरेज में आज 28 नवंबर को अमृत विचार, हिन्दुस्तान, अमर उजाला व दैनिक जागरण अखबारों की स्थिति मुख्य समाचार के लिहाज पहले दिन वाली ही रही। पर आंदोलन के विस्तार से खबर देने के मामले में आज 28 नवंबर के दिन अमर उजाला ने दूसरे अखबारों से बाजी मार ली। इन चार अखबारों में आज भी दैनिक जागरण का जनविरोधी चेहरा बहुत ही बेशर्मी के साथ सामने आया है।

अमृत विचार के बरेली-कुमाऊँ संस्करण ने किसान आंदोलन को दूसरे दिन भी पुलिस से संघर्ष और पथराव के बाद किसानों को दिल्ली आने की अनुमति शीर्षक से पहली खबर बनाया है। उसने आंदोलन की खबर को आज पहले पेज पर सात कॉलम में जगह दी है। इसी मुख्य खबर में उसने मुरादाबाद में भारतीय किसान यूनियन द्वारा तीन घंटे राष्ट्रीय राजमार्ग को जाम करने की खबर भी दी है। साथ ही हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का बयान भी प्रकाशित किया है, जिसमें वे किसानों से केंद्र सरकार से वार्ता करने की अपील करने के साथ ही यह भी कह रहे हैं कि केंद्र सरकार किसानों के साथ हमेशा बातचीत करने को तैयार है।

खट्टर का यह बयान उन्हें ही कठघरे में खड़ा करता है। पहला यह कि वे किस बिना पर कह रहे हैं कि केंद्र सरकार उनसे बातचीत को तैयार है? क्या वे केंद्र सरकार के प्रतिनिधि हैं? एक राज्य के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार की जिम्मेदारी कैसे ले रहे हैं? क्या केंद्र सरकार ने उन्हें किसानों से बातचीत करने के लिए अधिकृत किया है? साथ ही यह भी कि खट्टर किसानों से बातचीत करने की अपील ऐसे कर रहे हैं जैसे कि किसानों ने किसी भी तरह की बातचीत से इनकार किया हो। पिछले दो महीने से पंजाब व हरियाणा के किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं। इस दौरान उन्हें केंद्र सरकार ने कब बातचीत के लिए आमंत्रित किया? कब उसने कहा कि केंद्र सरकार किसानों से बातचीत के लिए तैयार है? वह तो लगातार किसान आंदोलन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित बताने के साथ ही यह भी दावा करती रही है कि नए कृषि कानून से किसान खुश हैं।

अमृत विचार ने किसान का आंदोलन शीर्षक से लिखे संपादकीय में सवाल उठाया है कि आखिर किसान सड़क पर उतरने और दिल्ली कूच को मजबर क्यों हुआ? संपादकीय में लिखा है: आखिर किसानों को आंदोलन के लिए मजूबर किसने किया? किसान को अपनी मांग या मजबूरी बताने के लिए सड़कों पर आना पड़े और दिल्ली कूच करने के लिए लाठीचार्ज का सामना करना पड़े। फिर वह कैसा अन्नदाता? किसानों पर किया गया बल प्रयोग गलत तो है ही। सवाल यह नहीं है कि किसान सही हैं या गलत? उनकी मांग सही है कि गलत? सवाल यह है कि लोकतंत्र में हर नागरिक की तरह उन्हें भी शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रखने और विरोध का हक है। अमृत विचार ने 11 नंबर पेज पर भी तीन कृषि कानूनों का विरोध, चार घंटे हाईवे जाम शीर्षक से सात कॉलम की खबर रामपुर डेटलाइन से प्रकाशित की है।

किसान आंदोलन की विस्तार से खबर प्रकाशित करने के मामले में आज अमर उजाला, नैनीताल ने भले ही बाजी मारी हो पर मुख्य खबर के मामले में उसका नजरिया किसानों को उग्र बताने पर ही रहा। पहले पेज पर प्रदेश के मैदानी जिलों में भी किसान उग्र, देहरादून-दिल्ली हाईवे दो घंटे रखा जाम, पांच कॉलम की खबर में उसने किसानों के मंगलौर गुड़ मण्डी के पास दो घंटे सड़क जाम रखने और प्रशासन को ज्ञापन सौंपने को उग्र करार दे दिया। खबर में कहीं भी किसानों के किसी भी तरह से उग्र होने का जिक्र नहीं है।

खबर में यह लिखा है कि किसानों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत के नाम ज्वाइंट मजिस्ट्रेट को ज्ञापन सौंपा उसके बाद दिल्ली कूच की घोषणा की। अब कुछ घंटे के लिए सड़क जाम करना और ज्ञापन देकर आगे को बढ़ जाना उग्र होना कैसे हो गया? यह अमर उजाला के संपादकों और उसके मालिकों के किसान विरोधी चेहरे को बेनकाब करता है। अब किसान आंदोलन को वह जबरन उग्र क्यों साबित कर रहा है और ऐसा लिखने के लिए उसके ऊपर किसका दबाव होगा यह समझा जा सकता है।

दिल्ली के किसान आंदोलन को उसने स्थानीय खबर के सामने कम महत्व दिया और पहले पेज पर ही इस खबर के साथ दिल्ली की खबर को दिल्ली में झड़प के बाद प्रदर्शन की मिली इजाजत, शीर्षक से बॉक्स में प्रकाशित किया है । साथ ही केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का यह बयान भी प्रकाशित किया है कि वे किसानों का भ्रम दूर करने को तैयार हैं। कषि मंत्री के इस बयान से पता चलता है कि केंद्र सरकार की मंशा किसानों की मांग मानने की नहीं बल्कि उनका भ्रम दूर करके उन्हें नए कृषि कानूनों पर सहमत करने की है। पहले पेज में अपनी मुख्य खबर से किसान विरोधी चेहरा दिखाने वाले अमर उजाला ने पेज नंबर 4 को अन्नदाता आक्रोश में, कृषि कानूनों का विरोध शीर्षक से पूरा पेज बनाकर संतुलन साधने की कोशिश की है, जिसमें वह कुछ हद तक सफल होता दिखाई देता है। दूसरे दिन भी किसान आंदोलन पर संपादकीय लिखने की बजाय अखबार ने ममता की बढ़ती मुश्किलें, शीर्षक से संपादकीय लिखा है। इससे भी यह बात साबित होती है कि अखबार किसान आंदोलन को अभी महत्व देने को तैयार नहीं है।

आंदोलन की खबरों के लिहाज से आज भी हिन्दुस्तान, हल्द्वानी ने पहले पेज में किसान इजाजत के बाद भी बॉर्डर पर डटे शीर्षक से तीन कॉलम की पहली खबर प्रकाशित की है। रामपुर बॉर्डर पर दूसरे दिन भी धरना शीर्षक आंदोलन की खबर को बॉक्स में प्रकाशित किया है। दिल्ली में किसान आंदोलन की खबर को हिंदुस्तान ने 10 नंबर पेज पर भी 5 कॉलम में आसू गैस के गोले और पानी की बौछार से भी नहीं थमे कदम शीर्षक से प्रकाशित कर आंदोलन को महत्व दिया है। उसने पेज नंबर 7 में तराई, ऊधमसिंह नगर के किसान आंदोलन पर भी 4 कॉलम की खबर: रुद्रपुर-बिलासपुर हाईवे पर 36 घंटों से जमा, किसानों का डेरा शीर्षक से प्रकाशित किया है। इसी अखबार में लालकुआं में किसान महासभा द्वारा किसानों के समर्थन में तहसील परिसर में किए प्रदर्शन के समाचार को बॉक्स में प्रकाशित किया गया है।

हिंदुस्तान ने आंदोलन पर आज भी संपादकीय नहीं लिखा है। पर संपादकीय पेज पर आमने-सामने में किसानों को राजधानी तक कौन लाया? के तहत आंदोलन के समर्थन में वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता का लेख: काश! नाराज लोगों को पहले ही समझाया-मनाया जाता और सरकार के पक्ष की वही पुरानी दलीलों पर आधारित व किसानों को कठघरे में खड़ा करता रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति अरविंद कुमार का लेख राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल हो रहे अन्नदाता प्रकाशित किया है। अपने लेख में परंजॉय गुहा ठाकुरता लिखते हैं: हमारे यहां किसानों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, जय जवान-जय किसान व भारत एक कृषि प्रधान देश है, पर आज सबसे अधिक जोखिम खेती-किसानी में ही है। ऐसे जोखिम में जिंदगी बिताने वाले किसानों की राह सरकार रोक रही है। हास्यास्पद है कि कोरोना के बहाने किसानों को रोकने की कोशिश हुई। बल प्रयोग व उपेक्षा से कतई समाधान नहीं निकलेगा। इसके लिए संवाद के रास्ते ही किसानों को आश्वस्त करना होगा।

कुलपति अरविंद कुमार ने केंद्र सरकार द्वारा इस साल जारी किए गए समर्थन मूल्य की आड़ लेकर किसान आंदोलन को गैरजरूरी बताने की कोशिश की है। पर, वे किसानों द्वारा उठाए जा रहे सवालों का जवाब देने की बजाय केंद्र सरकार की अब तक बोली जा रही भाषा में ही लिखते हुए दावा करते हैं कि नए कृषि कानूनों के लागू हो जाने के बाद हम वैश्विक मनकों के हिसाब से फसल उगा पायेंगे। अपने लेख में कुलपति अरविंद किसान आंदोलन पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि जब किसानों को इतना लाभ हो रहा है तो आंदोलन पर क्यों उतारू हैं? अब भी उन्हें शंका है तो उचित माध्यम से अपनी बात रखें। यह उचित माध्यम क्या है, वे नहीं बताते। वह भी तब जब पिछले दो महीने से आंदोलनरत किसानों से बात करने को केंद्र ने कोई पहल नहीं की। वे यह भी लिखते हैं कि इस तरह दिल्ली कूच करने से उनकी समस्याओं को समाधान नहीं होगा। साथ ही यह भी लिखते हैं कि किसान आंदोलन की आड़ मे निहित स्वार्थों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है। ये हैं एक कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के किसान आंदोलन को लेकर विचार। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि कैसे लोगों के हाथ में आज कृषि विश्वविद्यालय सौंप दिया गया है, जो किसानों और खेती-किसानी की पीड़ा व समस्या को समझने की बजाय केंद्र के प्रवक्ता की तरह लेख लिख रहे हैं। यह भविष्य की ओर भी खतरनाक संकेत करता है कि आगे कौन और कैसे लोग खेती-किसानी का भविष्य तय करेंगे?

दैनिक जागरण, हल्द्वानी का किसान व जनविरोधी चेहरा किसान आंदोलन के दूसरे दिन की खबरों को लेकर फिर सामने आया। आज भी उसने दूसरे दिन के आंदोलन की खबर को महत्वहीन बनाकर पेज नंबर 15 में तीन कॉलम में नहीं माने किसान, दिल्ली में बढ़ा तनाव शीर्षक से प्रकाशित की है। खबर की शीर्षक से ही अखबार के संपादकों की बीमार मानसिकत का पता चलता है और खबर का शीर्षक इस तरह से लिखा गया है जैसे कि किसान दिल्ली पर हमला करने जा रहे हों और उनके दिल्ली जाने से वहां के लोगों का जीवन संकट में पड़ने वाला है। खबर अपने तुच्छ शीर्षक से एक तरह से दिल्ली वालों से किसानों से दो-दो हाथ कर उनसे निपटने का आह्वान करती दिखती है।

इसी खबर के साथ अखबार ने आंदोलन को एक तरह से देशद्रोहियों का आंदोलन बताने का कुत्सित व शर्मनाक प्रयास किया है। बॉक्स में एक खबर किसानों के जत्थे में लगे पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे शीर्षक से मनगढंत और जानबूझकर किसान आंदोलन को बदनाम करने वाली खबर लिखी है। इस घृणित साजिश का पर्दाफाश इस बात से भी होता कि बाकी तीनों अखबारों में इस तरह की कोई खबर नहीं है।

यह खबर लिख कर दैनिक जागरण की संपादकीय टीम ने फिर साबित किया है कि वे किस तरह की ओछी व घटिया मानसिकता से भरे हुए हैं, जिनके लिए सत्ता के तलुए चाटना ही सबसे बड़ी व जनपक्षीय पत्रकारिता है। अखबार का यह चिंताजनक व शर्मनाक रवैया तब है जब इसके मालिक किसानों द्वारा पैदा किए गए गन्ने की बदौलत की अरबों की चीनी मिलों के मालिक हैं। जिस किसान के उगाए गन्ने से ये हर साल कई अरब कमाते हैं उसी किसान को देशद्रोही साबित करने में इन्हें जरा भी शर्म नहीं आ रही।

अखबार ने आज अपने संपादकीय बेजा विरोध में शुरू में ही लिखा है कि किसी को बरगलाने के कैसे नतीजे सामने आते हैं। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली में बड़ी संख्या में पहुँचे किसानों का आगमन है। संपादकीय में नए कृषि कानूनों को एक तरह से अलादीन का चिराग घोषित किया गया है। संपादकीय में यह तक कहने की कोशिश की गई है कि अगर किसान नए कृषि कानूनों को नहीं मानता है तो इसका मतलब है कि वह दबा-कुचला व आढ़तियों से शोषित-पीड़ित ही रहना चाहता है। इसके लिए उसे किसी और को अब दोष नहीं देना चाहिए। देश के सबसे बड़े अखबार का इससे घटिया संपादकीय और क्या हो सकता है? जो न्यूज चैनल आंदोलन के पीछे खालिस्तान की साजिश देख रहे थे, वही काम प्रिंट मीडिया में दैनिक जागरण भी कर रहा है, जो शर्मनाक व चिंताजनक स्थिति को बयां करता है।

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