जानकारी : किन नियमों के तहत कंपनियां ले सकती है आदिवासियों की जमीन ?
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राज कुमार सिन्हा का विश्लेषण
जनज्वार। भारत सरकार कानून 1935 की धारा 92 में प्रावधान था कि केन्द्र और राज्य कोई भी कानून पूर्णतः और आंशिक अपवर्जित (छोड़ा हुआ) क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे। ये क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य थे और भारतीय संविधान में इन्हे पांचवी और छठवीं अनुसूची में वर्गीकृत किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 244 में पांचवी अनुसूचि वाले क्षेत्र में यह व्यवस्था है कि किसी भी कानून को क्षेत्र में लागू करने के पूर्व राज्यपाल इसे आदिवासी सलाहकार परिषद को भेजकर अनुसूचित जनजातियों पर उसके दुष्प्रभाव का आंकलन करवाएंगे और तदनुसार कानून में फेरबदल कर उसे लागू किया जाएगा।
पांचवीं अनुसूचि की धारा 5(2) में वर्णित है कि "ऐसे अनुसूचित क्षेत्र की अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों द्वारा या उनमें (आपसी) भूमि अंतरण का प्रतिषेध या निर्बन्धन कर सकेंगे।" अर्थात आदिवासियों द्वारा आदिवासी या गैर- आदिवासी को जमीन हस्तांतरण पर रोक या विनिमयन (रेगुलेट) किए जाएंगे। इस प्रावधान से स्पष्ट है कि संविधान कर्ताओ ने आदिवासियों की जमीन सिर्फ गैर- आदिवासियों को बिक्री के साथ साथ आपसी बेच या लीज को भी नियंत्रण करने की बात दोहराया है। मंशा यह थी कि आदिवासी भूमिहीन न हो जाएं और दूसरा अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों का हर पैमाने में वर्चस्व या प्राथमिकता बनी रहे।
परन्तु मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 165 की उपधारा (6) के अनुसार (1) अनुसूचित क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी (जो उस इलाके या पुरे प्रदेश के लिए मान्यता प्राप्त आदिवासी हो) कलेक्टर के परमिशन से कोई गैर आदिवासी को जमीन बेच सकता है जो अंतिम निर्णय होगा। (2) अनुसूचित क्षेत्र में स्थित जमीन को लीज में ली जा सकती है। (3) कोई भी आदिवासी दूसरे कोई भी आदिवासी की जमीन निर्विवाद रूप से ट्रांसफर या बेच सकता है। इस कारण अनुसूचित क्षेत्र के आदिवासियों की जमीन का बङे पैमाने पर भू- हस्तांतरण हो रहा है। जिसमें कलेक्टर द्वारा कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण किया जाना महत्वपूर्ण है। जो संविधान के विशेष प्रावधान पांचवी अनुसूची में दिए गए वचन बद्धता के विरुद्ध है।
केवल आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) में ही पांचवीं अनुसूचि के अनुरूप सही कानून बने या संशोधन किया गया। झारखंड में जमीन को लेकर सीएनटी व एसपीटी कानूनी प्रावधान है। बांकी पांचवी अनुसूची वाले राज्यों में जमीन से सबंधित भू- राजस्व संहिता में संशोधन नहीं हुआ है। आंध्र प्रदेश शिड्यूल एरियाज लैंड ट्रांसफर रेगुलेशन एक्ट 1959 जो 1970 में संशोधित किया गया। जो कहता है कि-
(1) अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासी की जमीन आदिवासी को ट्रांसफर (बिक्री या लीज) हो सकती है। लेकिन इस कानून की धारा (3) की उपधारा (4) में प्रावधान है कि भू- हस्तांतरण के पहले जांच होनी जरूरी है कि यह बेनामी तो नहीं है।
(2) अनुसूचित क्षेत्र में गैर-आदिवासी, आदिवासियों को ही जमीन बेच सकता है।
(3) ऐसी स्थिति में जहां एक आदिवासी अपनी आवश्यकता के लिए जमीन बेचना चाहता है। लेकिन कोई आदिवासी उपयुक्त दाम देने में सक्षम नहीं है। उस स्थिति में वहां की ग्राम सभा उसको मार्केट रेट पर खरीद कर ग्राम सभा के प्रस्ताव के जरिए किसी भी ग्रामवासी को लीज स्वरूप दे सकता है। इसके लिए राज्य सरकार की "लैंड कंसोलिडेट फंड" से कलेक्टर को आवेदन कर ग्राम सभा धन राशि प्राप्त कर सकता है।
अगर राज्य सरकार के पास बजट नहीं है तो संविधान के अनुच्छेद 275 में "कंसोलिडेट फंड आफ इंडिया" के जरिए राज्य सरकार के आवेदन पर केंद्र सरकार धन मुहैया करने के लिए बाध्य है।
आंध्र प्रदेश शिड्यूल एरियाज लैंड ट्रांसफर रेगुलेशन एक्ट 1959,1970 (संशोधित) के आधार पर ही अनुसूचित क्षेत्र में बिरला कंपनी को माइनिंग लीज देने से रोका था। 1997 में आए इस ऐतिहासिक फैसला को समता जजमेंट के नाम से जाना जाता है। परन्तु छत्तीसगढ भू - राजस्व संहिता की धारा 165(क से च) में स्पष्ट प्रावधान है कि कलेक्टर कारण दर्शाते हुए आदिवासियों की जमीन को बेचने या लीज पर देने के लिए हस्तांतरित करने की अनुमति दे सकता है।
इसलिए आदिवासियों की जमीन आंध्र प्रदेश में बिरला कंपनी को हस्तांतरित नहीं हो पायी जबकि छत्तीसगढ में बाल्को कंपनी को जमीन हस्तांतरित हो गयी। छत्तीसगढ में इसी बाल्को कंपनी को जमीन हस्तांतरण के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील किया गया तो 10 दिसम्बर 2001 को तीन सदस्यीय बैंच ने छत्तीसगढ का कोरबा स्थित बाल्को अभिक्रम में केंद्र सरकार अपना हिस्सा निजी कंपनी के हाथ बेचने की वैधता को सही ठहराया। क्योंकि जमीन संविधान के राज्य सूची में है। अतः राज्य की भूमि सबंधी कानून के आधार पर ही न्यायालय व्याख्या करेगा और निर्णय देगा।
अब तो अनुसूचित क्षेत्र के शहरी इलाके में (मेसा कानून लागू नहीं होने से) बड़े पैमाने पर पांचवीं अनुसूची के मंशा के विपरीत भू- हस्तांतरण हो रहा है। पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 में स्पष्ट प्रावधान है कि ग्राम सभा की सहमति के बाद ही भू अर्जन की कार्यवाई किया जा सकता है। परन्तु सरकारी तंत्र फर्जी या दबाव बना कर ग्राम सभा से प्रस्ताव पारित करवा कर कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करवाने में सफल हो रहा है। अतः जरूरी है कि आदिवासी क्षेत्रों में भू - हस्तांतरण को रोकने के लिए राज्य की भू- राजस्व संहिता में आंध्र प्रदेश की तरह संशोधन किया जाए।
(लेखक बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं।)