Institutionalized Riot Systems: दंगों की 'संस्थागत प्रणाली' के सहारे क्या नाजी रास्ते पर चल रही है केंद्र सरकार?
Institutionalized Riot Systems: दंगों की ‘संस्थागत प्रणाली’ के सहारे क्या नाजी रास्ते पर चल रही है केंद्र सरकार?
सौमित्र राय का विश्लेषण
Institutionalized Riot Systems: मध्यप्रदेश के खरगोन के वसीम शेख केवल एक मुसलमान होने के नाते पुलिसिया पक्षपात और गैरकानूनी कार्रवाई का ही चेहरा नहीं हैं, बल्कि शहर में रामनवमी पर सांप्रदायिक हिंसा के बाद जिस तरह से प्रशासन ने लगभग एक पक्षीय कार्रवाई की और संविधान की रक्षक तमाम संस्थाएं सब-कुछ देखकर भी चुप हैं, वह दंगों की संस्थागत प्रणाली को लगातार मजबूत किए जाने का सबूत देता है।
भारत में यह बेरोकटोक हो रहा है। खुलेआम, साधु-संत देश की बहुसंख्यक आबादी को 4 बच्चे पैदा करने, घर में हथियार रखने, मुस्लिमों पर बुलडोजर चलाने और उनके नरसंहार का आह्वान कर रहे हैं। इसके बावजूद कानून का अमल करवाने वाली एजेंसियां जानबूझकर अनदेखी कर रही हैं। इसका नतीजा देश में अराजकता के रूप में दिखाई दे रहा है।
दिल्ली के जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती पर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने बिना अनुमति के रैली निकाली। बंदूक, पिस्तौल, नंगी तलवारों और शॉटगन तक का सरेआम मुजाहिरा किया गया। मस्जिद में भगवा फहराने की कोशिश हुई, जिसका परिणाम अंतत: सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आया। दिल्ली पुलिस ने इस मामले में विश्व हिंदू परिषद के जिला सेवा प्रमुख को गिरफ्तार किया है। लेकिन विहिप ने जिस तरह से 'अपने कार्यकर्ता' को गिरफ्तार करने पर पुलिस से 'जंग' की खुलेआम धमकी दी है, वह संविधान के प्रति सम्मान की भावना तो कतई नहीं दर्शाती।
ब्रिटिश अखबार गार्जियन भारत में बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसा को पाखंड, नफरत और झूठ दुष्प्रचार के रूप में देखता है। लंदी के टाइम्स अखबार ने इन घटनाओं पर चिंता जताते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी की आलोचना की है। वसीम शेख के दोनों हाथ 2005 में एक हादसे के बाद काट दिए गए थे, लेकिन खरगोन पुलिस ने उन्हें पत्थरबाज ठहराकर उनकी दुकान पर बुलडोजर चलवा दिया। इस घटना को हुए 8 दिन गुजर जाने के बाद भी मध्यप्रदेश सरकार ने गलती की माफी मांगना तो दूर वसीम शेख के साथ हुई नाइंसाफी का संज्ञान तक नहीं लिया है।
हिटलर के नाजी राज की याद क्यों आती है ?
अमेरिका के जाने-माने बुद्धिजीवी वेब ड्यू बोइस ने 1936 में जर्मनी का दौरा करने के बाद तत्कालीन हिटलर सरकार के द्वारा यहूदियों के दमन के बारे में विस्तार से लिखा है। बोइस ने अमेरिका में अश्वेतों पर अत्याचार के बारे में भी खुलकर लिखा। ट्रैवलर्स इन द थर्ड राइश नाम की किताब में जूलिया बोएड ने बोइस को उद्धृत करते हुए लिखा है कि अमेरिका और जर्मनी दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार में एक सबसे बड़ा फर्क यह था कि जो अमेरिका में गैरकानूनी था, वही जर्मनी खुलेआम कानूनी तरीके से हो रहा था। बोइस ने जर्मनी को नरसंहार के रास्ते पर बढ़ता हुआ देखा।
क्या भारत भी उसी रास्ते पर है ?
गौ-तस्करी के शक में भीड़ के हाथों पिटाई से शुरू हुए मामले अदालती प्रक्रिया के अधीन हुए और कुछेक मामलों में आरोपियों को सजा भी हुई। सत्ता शीर्ष पर बैठे नेताओं ने इन घटनाओं की सार्वजनिक आलोचना की और दोषियों को सख्त सजा देने की भी बात कही। लेकिन बीते एक साल से यह साफ नजर आ रहा है कि सांप्रदायिक हिंसा और अल्पसंख्यकों के दमन की घटनाओं के पीछे संस्थागत सहमति भी शामिल है। इसका नतीजा यह देखने को मिल रहा है कि दमन पर उतारू सामाजिक-राजनैतिक और धार्मिक संस्थाओं और मंचों को कानून का जरा सा भी डर नहीं है और यह बात भी धर्म संसदों में बार-बार सुनाई दे रही है। बावजूद इन सबके, दंगा भड़काने वालों के प्रति राजनीतिक नेतृत्व की खामोशी और अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति पक्षपाती व्यवहार देश में दंगों को संस्थागत बना रहा है। देश में 2014 से लेकर अभी तक नफरती बयानों के मामले 1130 फीसदी बढ़े हैं। इनमें जिम्मेदार राजनेताओं के नफरती बोल में 160 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। देश के विधि आयोग ने 2017 में पेश एक रिपोर्ट में नफरत फैलाने वाले बयानों पर आपराधिक कार्रवाई के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में अलग से कार्रवाई की सिफारिश की थी, लेकिन उसके बाद से सरकार ने आगे कोई कदम नहीं बढ़ाए।
दंगों का मकसद वही, लेकिन सिस्टम बदल गया
भारत में सांप्रदायिक हिंसा की तकरीबन सभी घटनाओं का सियासी कारण रहा है। अगर सत्ता पर काबिज सरकार ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहे तो वह बहुसंख्यक समुदाय को उकसाकर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर उनमें खौफ पैदा करती है। पुलिस इन मामलों में सत्ता पक्ष की मर्जी के हिसाब से अपना काम करती रही है और इसकी वजह से असली अपराधी सजा से बच जाते हैं। अब यह पूरा सिस्टम बदल गया है। व्यापक हिंसा के बजाय छोटे पैमाने पर हिंसा के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय को व्यापक संदेश देने की कोशिश की जाती है कि वे डरकर रहें। यह काम नफरत से भरे बयानों के जरिए लगातार किया जा सकता है। लेकिन इस बदले हुए सिस्टम में 'संस्थागत डर' भी शामिल हो गया है, जो कि पूरी तरह से राज्य सरकार के द्वारा प्रायोजित है। इसकी शुरुआत यूपी से हुई और अब मध्यप्रदेश समेत कुछ राज्यों ने इसे खुलकर अपनाया है। इसके अलावा सरकार मौजूद कानूनों में मनमाफिक बदलाव करके भी अल्पसंख्यकों का दमन कर रही हैं। साथ ही पुलिस में झूठी शिकायतों के सहारे अल्पसंख्यकों और कमजोरों के खिलाफ कानून का आपराधिक दुरुपयोग करने के प्रयास भी लगातार बढ़ रहे हैं और ऐसे मामलों में पुलिस राज्य की 'मर्जी' को देखते हुए तत्परता से कार्रवाई करती है।
दंगा विरोधी कानून क्यों नहीं?
केंद्र की यूपीए-2 सरकार अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में 'सांप्रदायिक हिंसा कानून विधेयक' लेकर आई थी। इस विधेयक में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने पर जिम्मेदारी तय करने के प्रावधानों समेत कई सार्थक बातें थीं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में कुछ विपक्षी दलों ने इसमें अल्पसंख्यकों को बख्शने का आरोप लगाते हुए विरोध किया था। खासकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रस्तावित कानून में 'समूह' शब्द की व्याख्या पर आपत्ति जताते हुए तीखा हमला बोला था। यूपीए सरकार की 2014 में चुनावी हार के साथ ही विधेयक भी ठंडे बस्ते में जो गया, अभी तक निकला नहीं है। केंद्र की एनडीए सरकार को भी अपने दूसरे कार्यकाल में भी इतना समय नहीं मिल रहा है कि वह कानून को संशोधित स्वरूप में संसद के भीतर अपने विशाल बहुमत से पारित करवा ले।