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विमर्श

Jai Bheem film review : उत्तर भारत के मुसहरों की ही महागाथा है दक्षिण के इरुलर जाति के हालात पर बनी 'जय भीम' एक दलित कथा

Janjwar Desk
16 Nov 2021 9:32 AM IST
Jai Bheem film review : उत्तर भारत के मुसहरों की ही महागाथा है दक्षिण के इरुलर जाति के हालात पर बनी जय भीम एक दलित कथा
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मनीष आज़ाद की टिप्पणी

Jai Bheem film review : भारत में बहुत सी 'डिनोटिफाइड' दलित/आदिवासी जातियां है, जिन्हें अंग्रेजों ने जन्मजात अपराधी घोषित कर रखा था। लेकिन 'आज़ादी' के इतने वर्षों बाद भी पुलिस-समाज-कोर्ट की मानसिकता नहीं बदली है और वे आज भी तमाम क्रूरताओं के भंवर में किसी तरह अपने छोटे छोटे सपनों के साथ जीने को बाध्य हैं। लेकिन ये सपने भी कभी भी कुचले जाने की संभावना से लगातार भयभीत रहते हैं। हाल ही में अमेज़ॉन प्लेटफार्म से रिलीज़ निर्देशक 'TJ Gnanavel' की तमिल फिल्म 'जय भीम' का कथानक भी इसी के इर्द-गिर्द घूमता है।

वैसे तो तमिल सिनेमा में वहां के सशक्त ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन के कारण जाति पर फिल्में बनने की एक समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन यह फ़िल्म तमिल के साथ साथ हिंदी में भी रिलीज़ होने के कारण हिंदी दर्शकों में एक सनसनी पैदा कर रही है। बहुत दिनों बाद जाति, जाति-आधारित अत्याचार, दलितों का जीवन और उनके छोटे छोटे सपने को स्क्रीन पर जगह मिली है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि स्क्रीन पर कोई आरक्षण लागू नहीं है। यहाँ तो शुरू से ही 'विजय सिंघानिया' जैसों का ही कब्ज़ा है।

फ़िल्म की शुरुआत में ही इरुलर (Irular) जनजाति के राजकन्नू जब अपनी पत्नी सेंगेनी को बाहों में लेकर प्यार से कहता है कि मैं तुम्हारे लिए महल बनवाऊंगा तो पत्नी भी उतने ही प्यार से उससे कहती है कि जब जमीन का पट्टा मिलेगा, तब न महल बनवाओगे। दलित जीवन में ऐसे कितने ही छोटे छोटे सपने यथार्थ के बूटों तले कुचल दिए जाते होंगे, यह सोचा जा सकता है।

फ़िल्म में तमिलनाडु की जिस इरुलर (Irular) जनजाति को दिखाया गया है, वह खेतों में चूहे पकड़ने का काम करती है और उसे भूनकर खाती भी है। ठीक उत्तर भारत की मुसहर जाति की तरह। चूहे पकड़ने के एक ऐसे ही ग्राफिक दृश्य में जब सेंगेनी एक गर्भवती चुहिया को पकड़ लेती है तो वह उसे तुरंत छोड़ भी देती है। इस छोटे से बेहद मामूली दृश्य का मतलब बाद में समझ आता है जब इसी दलित स्त्री सेंगेनी को उसके गर्भवती होते हुए भी थाने में टार्चर किया जाता है। नैतिकता के उच्च धरातल पर कौन खड़ा है? यह सिस्टम या उसके सताए दलित-शोषित?

बहरहाल इसके बाद फ़िल्म बेहद अनुमानित ढर्रे पर चलती है। चोरी के झूठे मामले में राजकन्नू सहित तीन दलितों की बेहद निर्मम पिटाई, तत्पश्चात पुलिस लॉकअप में ही उनमें से राजकन्नू सहित दो की मौत और फिर राजकन्नू की गर्भवती पत्नी सेंगेनी का एक सामाजिक कार्यकर्ता के माध्यम से वकील चंदू से मुलाकात और चंदू द्वारा बिना फीस लिए कोर्ट से न्याय दिलाना और संबंधित पुलिस वालों को सजा दिलवाना। यहीं पर वकील चंदू द्वारा कोर्ट में बोला गया वह वह प्रसिद्ध डायलॉग भी है कि पेशेवर अपराधी ये जनजाति नहीं बल्कि पेशेवर अपराधी तो पुलिस ख़ुद है।

कोर्ट का दृश्य बेहद सरलीकृत है। ऐसा लगता है कि जजों को अगर सच्चाई बताई जाए तो वे न्याय ही करेंगे। हम जानते हैं कि यह अवधारणा सच्चाई से कोसो दूर है। कोर्ट खुद इसे सड़े हुए सिस्टम का हिस्सा है।

वकील चंदू की फ़िल्म में इंट्री ही यह बता देती है कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। चंदू का कोर्ट के अंदर सीधे रास्ते से न आकर हवा में पुलिस बैरिकेडिंग लांघ कर आना ही यह संकेत दे देता है कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, आप बस पिक्चर देखिये। फ़िल्म में चंदू के चेहरे का भाव एकदम 'रेडीमेड' है, जैसे उसे पता है कि फ़िल्म की पटकथा में आगे क्या होने वाला है।

फ़िल्म में सबसे खराब यह लगता है कि दलित पात्रों को हर जगह 'सिस्टम' के आगे हाथ जोड़े बेहद लाचार दीन-हीन दिखाया गया है। दुःखद बात यह है कि फिल्म के अंत मे चंदू द्वारा दलितों को 'न्याय' दिलाने के बाद कोर्ट में ठीक उसी भाव मे वे चंदू के आगे भी नतमस्तक होते हैं। मानो चंदू भी एक 'सिस्टम' ही हो। यानी वही अंतर्विरोध - 'सिस्टम' से लड़ने के लिए 'सिस्टम' का साथ।

यह फ़िल्म देखते हुए मझे गोविंद निहलानी की प्रसिद्ध फ़िल्म 'आक्रोश' याद आ रही थी। जो लगभग समान पटकथा पर है। लेकिन यहां आदिवासी बने ओमपुरी का 'सिग्नेचर भाव' आक्रोश का है। दबा हुआ आक्रोश, मानो फटने का इंतजार कर रहा हो। वकील नसीरुद्दीन शाह यहाँ उद्धारक के भाव मे नहीं, बल्कि यह समझने की जद्दोजहद में है कि आखिर सुसुप्त ज्वालामुखी जैसा यह आक्रोश आता कहाँ से है। इसकी जड़ें कहाँ है। उसकी इस खोज में दर्शक भी एक अनजान उबड़-खाबड़ रास्ते पर उसके साथ हो लेता है।

जबकि 'जय भीम' फ़िल्म की बेहद 'फास्ट एडिटिंग', 'कसा हुआ कैमरा वर्क' और अनुमानित पटकथा इस खोज की गुंजाइश ही नहीं छोड़ता।

बहरहाल, इन तमाम कमियों के बावजूद यह फ़िल्म 'विजय सिंघानिया' से थोड़ा स्पेस दलितों/आदिवासियों के लिए तो दखल करती ही है।

असल जिंदगी में हम इसे कैसे दखल करेंगे, असल सवाल तो यही है।

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