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विमर्श

पत्रकारिता और सर्वोच्च इंसानी मान्यताओं के अजातशत्रु थे ललित सुरजन

Janjwar Desk
3 Dec 2020 5:32 AM GMT
पत्रकारिता और सर्वोच्च इंसानी मान्यताओं के अजातशत्रु थे ललित सुरजन
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देशबंधु के प्रधान संपादक ललित सुरजन : पत्रकारों की वह पीढ़ी जो आदर्शों, सरोकार और शालीनता को पत्रकारिता की बुनियाद मानती रही

ललित सुरजन का हिंदी पत्रकारिता में विशिष्ट स्थान था। उन्होंने पक्षपात, पूर्वाग्रह मुक्त और बिना भयभीत हुए अपनी कलम चलायी। दो दिसंबर 2020 को ब्रेन हैमरेज से 74 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्हें याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह...

वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह की टिप्पणी

ललित सुरजन जी चले गए। 74 साल की उम्र भी जाने की कोई उम्र है़, लेकिन उन्होंने हमको अलविदा कह दिया। वे देशबंधु अखबार के प्रधान संपादक थे। वे एक सम्मानित कवि व लेखक थे। सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे, उनके लिए शामिल होते थे इसलिए उनके जानने वाले उन्हें एक सामाजिक कार्यकर्ता भी मानते हैं। वे साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से संबंधित मुद्दों पर हमेशा बेबाक राय रखते थे। दुनिया भर के देशों की संस्कृति और रीति-रिवाजों की जानकारी रखने का भी उनको बहुत शौक़ था। उनके स्तर का यात्रा वृत्तांत लिखने वाला मैंने दूसरा नहीं देखा। ललित सुरजन एक आला और नफीस इंसान थे। वे देशबन्धु अखबार के संस्थापक स्व मायाराम सुरजन के बड़े बेटे थे। मायाराम जी मध्यप्रदेश के नेताओं और पत्रकारों के बीच बाबू जी के रूप में पहचाने जाते थे। वे मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के मार्गदर्शक माने जाते थे। उन्होंने मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन को बहुत ही सम्मान दिलवाया। वे नए लेखकों के लिए खास शिविर आयोजित करते थे और उनको अवसर देते थे। बाद में उनमें से बहुत सारे लेखक बहुत बड़े साहित्यकार बने, उनमें से एक महान साहित्यकार प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह भी हैं।

'अपना मोर्चा' जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक डॉ काशीनाथ सिंह ने मुझे एक बार बताया कि मायाराम जी ने उनको बहुत शुरुआती दौर में मंच दिया था। महान लेखक हरिशंकर परसाई जी से उनके पारिवारिक संबंध थे। स्व मायाराम जी के सारे सद्गुण ललित जी में भी थी ण्उन्होंने 1961 में देशबंधु में एक जूनियर पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। उनको साफ़ बता दिया गया था कि अखबार के संस्थापक के बेटे होने का कोई विशेष लाभ नहीं होगा। अपना रास्ता खुद तय करना होगा, अपना सम्मान कमाना होगा। देशबंधु केवल एक अवसर है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। ललित सुरजन ने वह सब काम किया जो एक नए रिपोर्टर को करना होता है और अपने महान पिता के सही अर्थों में वारिस बने। पिछले साठ साल की मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हर राजनीतिक गतिविधि को उन्होंने एक पत्रकार के रूप में देखा, अपने स्वर्गीय पिता जी को आदर्श माना और कभी भी राजनीतिक नेताओं के सामने सिर नहीं झुकाया। द्वारिका प्रसाद मिश्र और रविशंकर शुक्ल उनके पिता स्व मायाराम जी सुरजन के समकालीन थे। इस लिहाज़ से उनको वह सम्मान तो दिया लेकिन उनकी राजनीति का हथियार कभी नहीं बने। अपने अखबार को किसी भी नेता के हित के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया। जब दिसंबर 1994 में मायाराम जी के स्वर्गवास हुआ तो अखबार की पूरी ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गयी। वे दिल्ली, रायपुर, बिलासपुर, भोपाल, जबलपुर, सतना और सागर से छपने वाले अखबार को मायाराम जी की मान्यताओं के हिसाब से निकालते रहे।

ललित जी बहुत ही विनम्र और दृढ व्यक्ति थे। अपनी सही मानयताओं से कभी समझौता नहीं किया। कई बार बड़ी कीमतें भी चुकाईं। अखबार चलाने में आर्थिक तंगी भी आई और अन्य परेशानियां भी हुईं लेकिन यह अजातशत्रु कभी झुका नहीं। उन्होंने कभी किसी से दुश्मनी नहीं की, जिन लोगों ने उनका नुकसान किया उनको भी हमेशा माफ़ करते रहे। ललित सुरजन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी बदला लेने की भावना से काम नहीं किया।

ललित जी अपने भाइयों को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने सभी भाइयों को देशबंधु के अलग-अलग संस्करणों की ज़िम्मेदारी दे दी। आजकल वानप्रस्थ जीवन जी रहे थे लेकिन लेखन में एक दिन की भी चूक नहीं हुई। कोरोना के दौर में उनको कैंसर का पता लगा, विमान और ट्रेन सेवाएँ ठप थीं लीकिन उनके बच्चों ने उनको विशेष विमान से दिल्ली में लाकर इलाज शुरू करवाया। वे कैंसर से ठीक हो रहे थे, उनकी मृत्यु ब्रेन हैमरेज से हुई। कैंसर का इलाज सही चल रहा था लेकिन काल ने उनको ब्रेन हैमरेज देकर उठा लिया।

ललित जी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा व्यक्तिगत नुक्सान है। उनके साथ खान मार्किट के बाहरी संस की किताब की दुकान पर जाना एक ऐसा अनुभव है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह मेरे लिए एक शिक्षा की यात्रा भी होती थी, जो भी किताब छपी उसको उन्होंने अवश्य पढ़ा। अभी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब आई है, उसका इंतज़ार वे बहुत बेसब्री से कर रहे थे। उनके जन्मदिन पर बधाई संदेश का मैसेज करने के बाद मैं उनके फोन का इंतज़ार करता रहता था कि अब फोन आने वाला है, हुआ यह था उनके असली जन्मदिन और फेसबुक पर लिखित जन्मदिन में थोड़ा अंतर था। अगर गलत वाले दिन मैसेज लिख दिया तो फोन करके बताते थे: शेषजी आपसे गलती हो गयी। जब किसी साल सही वाले पर मैसेज दे दिया तो कहते थे कि इस बार आपने सही मैसेज भेजा। अब यह नौबत कभी नहीं आयेगी क्योंकि अब उनके जीवन में कराल काल ने एक पक्की तारीख लिख दी है। वह उनकी मृत्यु की तारीख है। इस मनहूस तारीख को उनका हर चाहने वाला कभी नहीं भुला पायेगा। उनके अखबार में मैं काम करता हूँ लेकिन उन्होंने यह अहसास कभी नहीं होने दिया कि मैं कर्मचारी हूँ। आज उनके जाने के बाद लगता है कि काल ने मेरा बड़ा भाई छीन लिया। आपको कभी नहीं भुला पाऊंगा ललित जी।

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