Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

जातिवादी पार्टियों के सौ खून माफ करने की वामपंथी रणनीति से वामपंथ को क्या मिलने वाला?

Janjwar Desk
21 Oct 2020 1:22 PM IST
जातिवादी पार्टियों के सौ खून माफ करने की वामपंथी रणनीति से वामपंथ को क्या मिलने वाला?
x
क्या सचमुच झूठ, जहर, उन्माद और हिंसा का यह चुनावी कारोबार सफल होगा या इस कारोबार को कभी गहरी चोट मिलेगी...

रंजीत अभिज्ञान का विश्लेषण

बिहार का चुनावी संग्राम अब निर्णायक दौर में पहुंच गया है। अब अकादमिक बहस बेकार है। बेहतर हो कि अब हम राजनॅतिक पहलुओं पर गौर करें। देश के प्रधान प्रहसनकारी का बिहार दौरा दो दिनों बाद शुरू होने वाला है इस दौरे में झूठ और जहर फैलाए जायेंगे और प्रदेश की जनता से कहा जाएगा कि हिंदूवाद और देशभक्ति के नाम पर वे उन झूठों और जहरों को निगल लें।

एक तरफ प्रहसनकारी का शो चलेगा, वहीं दूसरी तरफ हत्यारों और बलात्कारियों का संरक्षक एक मानसिक रोगी ढोंगी भी प्रदेश में जगह-जगह जाकर उन्माद और दंगे का माहौल बनाएगा। इन दोनों के अलावा बीसियों ऐसे नेता-अभिनेता और राजनैतिक विदूषक होंगे जो मेहनतकशों की बढ़ती दावेदारी को वामपंथी उग्रवाद बताकर सामंती-माफिया और कुलक ताकतों से हमलावर होने का आह्वान करेंगे।

क्या सचमुच झूठ, जहर, उन्माद और हिंसा का यह चुनावी कारोबार सफल होगा या इस कारोबार को गहरी चोट मिलेगी उन ताकतों से जो रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, इज्जत-अधिकार और आर्थिक विकास तथा सामाजिक प्रगति का नारा बुलंद कर रही हैं? जातियों के मकड़जाल में जीने वाले और जातीय पहचान को धार्मिक पहचान के मातहत रखकर अपने आर्थिक-सामाजिक वर्गीय पहचान को बरबस भूल जाने वाले बिहारी समाज में इन सवालों के जवाब उतने आसान नहीं हैं, जितना कि कई विश्लेषक और टिप्पणीकार समझते हैं। फिर भी चलिए, इन सवालों का जबाव ढूंढ़ने के लिए झारखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन और बिहार के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के पिता लालू प्रसाद के पास चलते हैं।

कम्युनिस्ट राजनीति में जैसे कल के अनेक रेडिकल आज के कंजर्वेटिव बन जाते हैं, उसी तरह बुर्जुआ राजनीति में भी कल के अनेक नायक बाद में खलनायक हो जाते हैं। फर्क इतना है कि रेडिकल से कंजर्वेटिव में रूपांतरण अपमानजनक माना जाता है, मगर नायक से खलनायक में कायांतरण अपमानसूचक नहीं होता। इस कायांतरण में काफी तेजी होती है और भरपूर सम्मान मिलता है। शिबू दादा और लालू महाराज का कायांतरण भी काफी दिलचस्प रहा।

पहले शिबू दादा की बात। शिबू दादा झारखंड की जनता की लोकतांत्रिक आशा-आकांक्षाओं के संघर्षों के कभी बड़े नेता थे, लेकिन जैस.जैसे उन्हें सत्ता-राजनीति के सोमरस की आदत पड़ी, उन्होंने अपने किए पर पानी फेर लिया। देश के अर्थतंत्र में काॅरपोरेटीकरण और लूटपंथ का रास्ता खुला, तब वे उसका मजा लूटने लगे। सत्ता व राजनीति में लूटपाट और अपराधीकरण शुरू हुआ तो वे उसमें आकंठ डूब गए। बहुत से लोग अब भी भूले नहीं हैं कि आजाद भारत के इतिहास में वह पहला मौका था जब एक लोकसभा सदस्य और तीन.तीन बार केन्द्रीय मंत्री रहे व्यक्ति के खिलाफ हत्या का अरोप साबित हुआ और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

वह व्यक्ति कौन था? शिबू दादा ही तो थे। उनमें अपने भ्रष्टाचार और अपराध को सीना ठोंककर स्वीकार करने की अद्भुत ईमानदारी थी। वे अपने तमाम कुकृत्यों को झारखंड की आदिवासी जनता के सामने वैध ठहराते थे और कहते थे कि जल्दी से अमीर बनने का कोई सीधा-सादा ईमानदार तरीका नहीं होता। उन पर अपने सचिव का कत्ल करवाने का आरोप लगा, तब उनकी दाढ़ी के भीतर छिपा शैतान दार्शनिक ने कहा कि ष्ईश्वर ने किसी को अपने पास बुला लिया तो वे क्या कर सकते हैं... ईश्वर किसी को लेने के लिए खुद नहीं आता। इस काम के लिए वह धरती पर किसी को अपना प्रतिनिधि बनाता है।

शिबू दादा ने कभी झारखंड में वामपंथी-लोकतांत्रिक आंदोलनों को नुकसान पहुंचाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। आदिवासियों को दलितों, अल्पसंख्यकों तथा अन्य मेहनतकश गैर आदिवासी समूहों से लड़वाया। उन पर कद्दावर वामपंथी नेताओं की हत्या में संलग्न रहने के आरोप भी लगे। यों यह दूसरी बात है कि वामपंथी दलों ने भी समय-समय पर शिबू दादा की पार्टी के साथ रिश्ता बनाने में कोई शर्म महसूस नहीं की और तर्क दिया कि झारखंड में जनाधार के मामले में शिबू दादा की पार्टी अग्रणी है और उनके साथ जाना कम्युनिस्ट कार्यनीति के अंतर्गत ही आता है।

खैर, बहुत अरसे बाद झारखंड का मिजाज बदल गया। वहां की बदल गई परिस्थितियों में पिछले साल लोगों ने काॅरपोरेटपरस्त तथा भ्रष्ट.सांप्रदायिक भाजपा को शिकस्त देते हुए शिबू दादा के पुत्र पर भरोसा किया और उनके नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद को सत्ता की कमान सौंप दी।

अब आइए बात करें लालू साहब महाराज की। यह साहब भी 1974 के विराट लोकतांत्रिक आंदोलन के गर्भ से पैदा हुए और गैर कांग्रेसवाद तथा मंडलवाद की लहर पर सवार होकर 1990 में बिहार की गद्दी पर बैठे। इन्होंने अपने आपको कृष्णावतार बताया और कहा कि उनकी सरकार रात-दिन, गरीब-गुरबों के आंगन में खड़ी होगी।

मगर इस कृष्णावतार का पतन सत्ता में आने के दो.तीन साल बाद ही शुरू हो गया। 1974 के आंदोलन के अरमानों में पलीते लगने शुरू हो गए, सामंती व कुलक ताकतों के हथियारबंद गिराहों द्वारा दलितों और अन्य अत्यंत पिछड़ों के सामूहिक जनसंहार होने लगे और अपहरण-फिरौती, लूटपाट-भ्रष्टाचार, अपराध के नए.नए रिकार्ड बनने लगे। चारा घोटाला, अलकतरा घोटाला, सीमेंट घोटाला... न जाने कितने घोटालों की बाढ़ आ गई। सत्ता संरक्षित अपराधीकरण इस कदर बढ़ गया कि डाॅक्टर, इंजीनियर, व्यवसायी तथा अन्य उद्यमी बिहार छोड़कर भागने लगे।

राजनैतिक हत्याएं भी होने लगीं और लालू साहब के बेहर करीबी कमांडर शहाबुद्दीन ने प्रखर युवा वामपंथी नेता चंद्रशेखर की हत्या करवा दी। शिबू दादा की तरह लालू साहब भी केन्द्रीय रेलमंत्री बने। केन्द्रीय मंत्री के तौर पर भी उन पर वित्तीय धांधलियों और घोटालों के अनेक केस दर्ज हुए, जैसे इंडियन रेलवे टेंडर घोटाला, डिलाईट प्राॅपर्टीज घोटला, एबी एक्सपोर्ट घोटाला और पटना चिड़ियाघर मिट्टी घोटाला। मजे की बात यह है कि जब लालू साहब बिहार के राजा हुआ करते थे, तब वे बिहार में सर्वाधिक जनाधार रखने वाली उस समय की जुझारू कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा माले पर निशाना साधते हुए कहते थे कि हम हैं नहीं तो ये उग्रवादी सब सत्ता में आ जायेगा। वे यह भी ऐलान करते थे कि माले का सफाया करने के लिए मैं नरक की ताकतों के साथ भी हाथ मिला सकता हूं।

उन्होंने सचमुच हाथ मिलाया भी। यह अन्य दिलचस्प बात है कि राजनीति में वक्त का मिजात बहुत तेजी से बदलता है और कल के गम और गुस्से पिघलकर खुशी और सुकून में बदल जाते हैं। यह इत्तफाक नहीं है कि नरक की ताकतों के साथ हाथ मिलाने वालों के साथ भाकपा माले खड़ी हो जाती है और गाती है, नहीं सजी बारात तो क्या, बिन फेरे हम तेरे! भाजपाईयों को भी इस बिन-ब्याहे रिश्ते पर हमला करने का मौका मिल गया है और वे माले पर निशाना साधते हुए दलित-अल्पसंख्यक विरोधी सामंती, कुलक और आपराधिक ताकतों से राजद-माले गठजोड़ को शिकस्त देने का आह्वान कर रहे हैं।

फिलहाल बिहार की चुनावी राजनीति बेहद जातिवादी और सांप्रदायिक तौर पर जहरीली होती जा रही है तथा रोजी-रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, इंसाफ, इज्जत, अधिकार, अमनचैन-भाईचारा और बुनियादी विकास एवं सामाजिक प्रगति के मुद्दे राजनीतिक विमर्श की परिधि पर ढकेल दिए जा रहे हैं। यह चुनाव अतीत के दुस्वप्नों और वर्तमान के दिवास्वप्नों के बीच बेहतर बिहार का ख्वाब परोसने का रंगकर्म बनकर रह गया है। सरकार जिसकी बने, बिहार अभिशप्त रहेगा और जनता छली ही जायेगी। न जाति की खाल खाक होगी और न ही मजहबी तिलक और टोपी पर आंच आएगी।

Next Story

विविध