देश में नफरत और कठमुल्लापन का सैलाब, मगर ऐ दोस्त! उम्मीद की सुबह ज़रूर आएगी
file photo (प्रतीकात्मक)
रोहित कुमार
प्रिय ज़ुबैर भाई! समझ नहीं आ रहा है कहाँ से शुरू करूँ। मुझे पूरी उम्मीद है कि महामारी के इस दौर में शारीरिक रूप से तुम स्वस्थ होंगे, हालाँकि मैं यह भी समझ पा रहा हूँ की तुम्हारा दिल बुझा-बुझा सा होगा।
निस्संदेह, 5 अगस्त का दिन हमारे देश के इतिहास का एक काला दिन था। सरयू नदी के किनारे जल रही हरी-बैंगनी बत्तियां हमारी ज़िंदगी में रोशनी लाना तो बहुत दूर, हमारी आत्माओं पर गहरा बोझ डाल गयीं। और राम मंदिर निर्माण के लिए मनाया गया 'भूमि पूजन उत्सव' हमें एक निराशा में डुबा गया।
6 दिसंबर 1992 को जो अपराध किया गया था उसे राजनीतिक फायदे के लिए 28 वर्षों बाद बाक़ायदा संपन्न कराकर पवित्र बना लिया गया। इसके पहले मैं अपनी ज़िंदगी में कभी भी इतना अधिक शर्मिंदा नहीं हुआ था।
आज मैं तुम्हें जो यह सब लिख रहा हूँ वो हाल में तुम्हारे द्वारा तुम्हारी फेसबुक पर डाली गई एक पोस्ट के चलते है। उसमें तुमने कहा था, "आज वे लोग वाकई हमें मुसलमान होने के नाते अवांछित बनाने में सफल हो गए हैं।" इन शब्दों ने मेरे दिल को आघात पहुँचाया है।
मैं चाहता हूँ कि तुम इस बात को समझो कि तुम भी उतने ही इस देश के नागरिक हो जितना मैं हूँ। तुम उतने ही हिन्दुस्तानी हो जितना मैं हूं। मुझे तो इस तरह की बात कहनी ही नहीं चाहिए थी, लेकिन पिछले 6 सालों के दौरान इतना कुछ कहा गया है कि मुझे भी कहना ही पड़ा।
मुझे अंदाज़ है कितना मुश्किल होता है तुम्हारे लिए तुम पर चस्पां किये गए "मुल्ला", "तुष्टीकरण के लाभार्थी", "पाकिस्तानी", "जिहादी" और "बाबर की औलाद" जैसे विशेषणों के साथ रोज जीना। शब्दों की अहमियत होती है। शब्दों में आशीर्वाद निहित होता है और श्राप भी, शब्द हमारी ज़िंदगी बना सकते हैं और बिगाड़ भी सकते हैं, शब्द हमें बचा सकते हैं और डुबा भी सकते हैं। मैं एक शिक्षक हूँ और छात्रों को लगातार यह समझाता रहता हूँ।
दूसरे स्तर पर मैं रोज कक्षा में देखता हूँ अवांछित होना क्या होता है। साथियों द्वारा बच्चों का बहिष्कार किया जाता है और उन्हें धमकाया जाता है, अक्सर केवल इस कारण के चलते कि वो उस भीड़ में शामिल होने से मना कर देते हैं जो भीड़ उनका मज़ाक उड़ाती है और दंड देती है ऐसे लोगों को अलग-थलग कर जो किसी भी रूप में 'कमजोर'हैं या बिलकुल अलग हैं।
जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ उनमें और उनको पैदा करने वाली पीढ़ी में मुझे जो अंतर दिखाई देता है, वो ये है कि बच्चे अपनी गलती समझ जाते हैं। एक बार जब उनको यह अहसास हो जाता है कि उन्होंने अपनी ही कक्षा के साथी को कितना अधिक दुःख पहुँचाया है तो उनको धमकाने और अपशब्द कहने के लिए वे शर्मिंदा होते हैं। जिन्हें उन्होनें चोट पहुँचाई है उनसे वे माफी मांगते हैं और गले लगते हैं। एक बार फिर वे एक-दूसरे को मनुष्य के रूप में देखना शुरू कर देते हैं।
हालांकि उनमें से बहुतों के माँ-बाप के बारे में मैं यह बात नहीं कह सकता हूँ, खासकर तब जब वे धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से उनसे अलग हों। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि वे बूढ़े हैं, उनके तौर-तरीके पुराने हो चले हैं और दशकों से वे दबा कर रक्खी गई कट्टरता को देखते आये हैं।
मैं तुमसे जो कहना चाहता हूँ वो ये है कि जहां एक ओर बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो एक नए बहुसंख्यक भारत के उदय का जोर-शोर से स्वागत कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बहुत सारी समझदार आवाज़ें भी हैं। हालाँकि इन आवाज़ों को उस मीडिया ने दबा दिया है जिसने अनैतिकता की सारी हदें पार कर दी हैं।
चूंकि तुम इन शांतिप्रिय नागरिकों को देख नहीं पाते हो, इसका मतलब ये तो नहीं कि उनका वजूद ही नहीं है। सिर्फ इसलिए कि खबरी मीडिया नफरत, पक्षपात और ध्रुवीकरण की कारगुजारियों पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखता है, ऐसा क़तई नहीं है कि शराफ़त, समावेशन और मानवता से पूर्ण कारगुजारियां नहीं हो रही हैं। जिस तरह का वक़्त आज चल रहा है उसमें निराशा से भरा इस तरह का विचलन अवश्यम्भावी है लेकिन कृपया विचलित नहीं होना।
अमेरिकन साइकाइट्री एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर मार्टिन सेलिगमैन, जिन्हें एक नए अध्ययन क्षेत्र पॉज़िटिव साइकॉलॉजी का जनक कहा जाता है, कहते हैं कि निराशा उसी क्षण हम पर हावी होने लगती है जब हम यह सोचने लगते हैं कि हमारी समस्याएं व्यापक हैं, स्थायी हैं और व्यक्तिगत हैं।
वर्तमान हालात में यह सोचना आसान है कि मुसलमानों के प्रति नफ़रत हर ओर है, और हर कोई उनसे नफरत करता है, लेकिन ये क़तई सच नहीं है। ज़रा याद करो,लॉकडाउन लागू होने के पहले तक CAA और NRC के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करते हुए पूरे देश में लाखों लोग सड़कों पर निकल आये थे। इनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो मुसलमान नहीं थे। ये लोग साधारण नागरिक थे जो देश को धार्मिक आधार पर बांटने के हो रहे प्रयास को लेकर अचंभित थे।
हमें एकजुटता का प्रदर्शन करती उन कहानियों को नहीं भूलना चाहिए जो फरवरी के अंत में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक हिंसा के पागलपन के बीच निकल कर आयी थीं। इन्हीं में विश्वास न की जा सकने वाली कहानी बिरयानी बेचने वाले एक हिन्दू की भी थी, जिसने अकेले शिव विहार में 40 मुसलमानों की ज़िंदगी बचाई थी।
यह सोचना भी आसान है कि कट्टरता और नफरत का यह काल स्थाई है और हमेशा बना रहेगा। पर यह याद रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि इंसान बहुत लम्बे समय तक नफरत पाले रह ही नहीं सकता।
तुम चाहे मानो या ना मानो, अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहा जाए तो हम नफरत की बजाय सहानुभूति करने के लिए ज़्यादा तैयार रहते हैं।
परवान चढ़ने के लिए ज़रूरी है कि नफरत लगातार फैलाई जाती रहे और लम्बे समय से एक योजना के तहत कृत्रिम रूप में नफरत फैलाई भी गयी। लेकिन संकट के समय तुरंत दया भरे कदम उठाने वाले लोगों की भी संख्या कुछ कम नहीं है।
क्या तुम्हें हज़ारों, लाखों उन आम नागरिकों की याद है जो लॉकडाउन के शुरुआती भयंकर दिनों में बेघरों और भूखों की मदद करने निकल पड़े थे? उन गुरुद्वारों की जिन्होंने हर मज़हब के लोगों के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए थे, यूनिवर्सिटी के उन छात्रों की जिन्होंने चौबीसों घंटे काम करते हुए भोजन की व्यवस्था की और उन सहायता समूहों की जिन्होंने संकट की घड़ी में प्रवासी मज़दूरों की मदद की?
निस्संदेह देश में नफरत और कठमुल्लापन का सैलाब उमड़ पड़ा है, लेकिन साथ ही दया और एकजुटता के भाव भी पूरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं।
और अंत में, जब हमारी पहचान पर निरंतर एवं योजनाबद्ध तरीके से हमला हो तो ऐसा महसूस करना आसान हो जाता है कि समस्या व्यक्तिगत है,कुछ है जो हमसे जुड़ा हुआ है। ऐसे समय में यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों को शैतान की तरह पेश करने की परियोजना मुख्य रूप से राजनीतिक है। (याद रखो कि जो लोग श्मशान और कब्रिस्तान तथा दंगाइयों को उनके कपड़ों से पहचान लेने की बात करते हैं वो अपने स्वार्थ के लिए तेल के कुओं वाले अमीर मुस्लिम देशों के शासकों को गले लगाने में भी नहीं हिचकते हैं।)
जो लोग मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं उनसे ना जाने कितनी बार मैंने यह सवाल किया होगा,"अच्छा ये बताओ कि मुसलमानों ने व्यक्तिगत रूप से ऐसा क्या कर दिया है जो उनसे तुम इतनी नफरत करते हो।" आजतक एक व्यक्ति भी मुझे जवाब नहीं दे पाया है।
मैं अंत करूँगा लेखक इ बी व्हाइट के उन शब्दों से जो उन्होंने उस व्यक्ति से कहे थे जिसका मानवता पर से विश्वास उठ गया था:
"मौसम को लेकर नाविकों की एक अभिव्यक्ति होती है : वे कहते हैं मौसम बड़ा धोखेबाज़ होता है। मेरा अनुमान है कि हमारे मानव समाज के बारे में भी यही सही है- ज़िंदगी अंधकारमय लगती है,तभी बादलों में बिजली सी चमकती है और सब कुछ बदल जाता है, कभी-कभी अचानक ही। साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है कि मानव जाति ने धरती रूपी इस ग्रह में जीना दूभर कर दिया है।
लेकिन संभवतः लोगों के रूप में हमारे दिल के किसी कोने में अच्छाई के बीज छुपे हैं जो लम्बी अवधि से पल्लवित होने के लिए सही हालात का इंतज़ार कर रहे हैं। मनुष्य की उत्सुकता, उसकी छटपटाहट, उसकी अविष्कारशीलता, और उसकी सरलता ने उसका बेडा गर्क कर दिया है। हम सिर्फ उम्मीद ही रख सकते हैं कि उसके ये ही गुण उसे सही राह दिखाने में मदद करेंगे। एक बड़े आश्चर्य के लिए तैयार रहिये। उम्मीद बनाये रखिये। और तैयार रहिये, कल का दिन एक अलग दिन होगा।"
मेरे दोस्त अपना ख्याल रखो और ये जान लो कि तुम अकेले नहीं हो।
(रोहित कुमार एक शिक्षाविद हैं और पॉज़िटिव साइकॉलॉजी एवं साइकोमेट्रिक्स में खासा दखल रखते हैं। ज़ुबैर को लिखा उनका यह ख़त 'द वायर' से साभार।)