महत्वपूर्ण लेख: ट्रंप का झूठ और पत्रकारिता का सच, किसी एक पक्ष के साथ खड़े होने का पत्रकारों पर बढ़ता दबाव
एलन मस्क ने डोनाल्ड ट्रंप का ट्विटर अकाउंट किया बहाल, अहम सवाल - क्या ट्रंप ट्विटर पर वापस लौटैंगे?
वरिष्ठ पत्रकार लिओनेल बारबेर का एक महत्वपूर्ण लेख
वो मार्च 2017 की बरखा की फुहारों से भीगती दोपहर थी जब मुझे अग्नि परीक्षा से गुजरना था। इसी दोपहरी मुझे अमेरिकी राष्ट्रपति के सरकारी कार्यालय ओवल ऑफिस पहुँचाया गया। वहां रेसोल्यूट डेस्क के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप विराजमान थे। ट्रंप ने उठकर मुझसे और फिनेंशिअल टाइम्स के मेरे दो वरिष्ठ सहकर्मियों से हाथ मिलाने से साफ़ इंकार कर दिया। मैंने उन्हें समय देने और मेरे द्वारा सम्पादित अखबार का ग्राहक बनने के लिए धन्यवाद कहा।
राष्ट्रपति महोदय बोले,"ठीक है,ठीक है। तुम हारे, मैं जीता। "
इस तरह एक ही चाल में ट्रंप ने हमारी मुलाकात को एक प्रतियोगिता में बदल डाला :फिनेंशियल टाइम्स को उदारवादी वैश्विक कुलीन वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में और खुद को विजयी लोकप्रिय राष्ट्रवादी के रूप में। उन्होंने अहंकार भरे स्वर में फेसबुक,ट्विटर और इंस्टाग्राम पर अपने 100 करोड़ अनुयायियों की बात कहते हुए यह घोषणा कर डाली कि उन्हें हमारे जैसे "फ़र्ज़ी ख़बरों" वाले मीडिया में शरण लेने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मक़सद हमेशा पत्रकारिता की मूल शैली का इस्तेमाल करते रहना रहा है यानी साक्षात्कार को जानकारी निकलवाने का ज़रिया बनाना। लेकिन वे दो-दो हाथ करना ही चाहते थे और वो भी खुद को पहले से ही जीता हुआ मानते हुए।
ट्रंप की आक्रामकता ने मुझे पछाड़ दिया, लेकिन बाद में बाज़ी पलट गयी। हम पत्रकारों को अपनी तरह से रिपोर्ट लिखनी होती है। बहुत सारे टिप्पणीकारों का मानना था कि नया राष्ट्रपति पागल, बुरा और खतरनाक है। उनकी चाहत रही होगी कि हम पूरे पृष्ठ के अपने साक्षात्कार की समाप्ति इन शब्दों के साथ ही करें। अनुभव के चलते और वैध राष्ट्रपति चुनाव को पलट देने के ट्रंप के बेहया प्रयासों का ख्याल रखते हुए मुझे उनके विचारों से सहानुभूति है। लेकिन मेरा उस समय यह मानना था और अभी भी मानना है कि अच्छी पत्रकारिता मांग करती है कि राष्ट्रपति के पक्ष को भी सुना जाए।
चार साल बाद भी मेरा सुरक्षात्मक मूल्यांकन पत्रकारिता की उस परंपरा का जाना-पहचाना उदाहरण है, जिसके तहत किसी भी कहानी (रिपोर्ट) में दोनों पक्षों को बराबर स्थान दिया जाता है,चाहे भले ही एक पक्ष घृणा करने योग्य ही क्यों न दिखाई दे या फिर निपट ग़लत जानकारियाँ ही क्यों न फैला रहा हो। ट्रंप के दौर में "द्विपक्षवाद" एक अपमानजनक शब्द बन चुका है। मेरियम-वेबस्टर शब्दकोष "द्विपक्षवाद" की परिभाषा कुछ इस प्रकार करता है -जब एक पत्रकार या विद्वान किसी ऐसे मुद्दे, कार्रवाई या विचार को अतिरिक्त विश्वसनीयता प्रदान करता जो ऊपरी तौर पर देखने से आपत्तिजनक दिखता है तो ऐसा कर वो ऐसे मुद्दे,कार्रवाई और विचार को एक तरह का नैतिक धरातल मुहैया करा देता है जिसके चलते उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगता है। "
इसलिए सवाल ये है कि खबरी मीडिया ट्रंप और मेरे अपने प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन जैसी राजनीतिक शख़्सीयतों के साथ कैसे कदम-ताल करे क्योंकि इन दोनों को ही ऊँचे पद के चलते मिलने वाला सम्मान तो भरपूर हासिल है लेकिन इस पद से जुड़े ईमानदारी के मानदंडों का ये लगातार उल्लंघन करते रहे है? एक सवाल यह भी है कि हम कैसे सवाल उठाने वाली रिपोर्टिंग को पूर्वाग्रहों का शिकार होने से रोक सकें? और यह भी कि बेहयाई की हद तक की पक्षधरता के इस काल में क्या पत्रकार व्यावसायिक दूरियाँ बनाये रख सकते है ?
ये सवाल पत्रकारिता सम्बन्धी आम व्यवहार के आगे के हैं। ये हमारी उस उदार-लोकतांत्रिक धरोहर की आत्मा हैं जो धरोहर आज घेराबंदी का शिकार है। विचारों का तार्किक एवं खुला आदान-प्रदान उस धरोहर का ज़रूरी हिस्सा है। सहानुभूति की अभिव्यक्ति खोज-बीन की ललक से ही पैदा होती है। और जानने की इस ललक की जड़ें लोकतंत्र की विकास-भूमि प्राचीन ग्रीस में पाई जाती हैं। पत्रकारिता में द्विपक्षीयवाद के आलोचक भले ही इस कार्यप्रणाली को नैतिक भीरूपन और बुराई का साथ देने वाली मानें लेकिन अपनी मंशा में ये इसकी उलट है।
फिनेंशियल टाइम्स के संपादक के बतौर पिछले सालों में यही मुद्दे मेरी सोच पर भारी पड़ते रहे। ब्रेक्सिट और 2016 में ट्रंप के चुनाव ने बाज़ार समर्थक उदार अन्तर्राष्ट्रवाद और लोकताँत्रिक पूंजीवाद में निहित हमारे बुनियादी मूल्यों को चुनौती दे डाली। किसी एक पक्ष के साथ खड़े होने का दबाव पत्रकारों पर बढ़ रहा था। जून 2016 में ब्रेक्सिट पर हुए जनमत संग्रह में "छोड़ने" की जीत मेरे जैसे यूरोप पक्षधर पत्रकारों की पीढ़ी के लिए खासा धक्का थी।पलट वार करने का लालच तब बढ़ा जब हमारे विरोधियों ने हमें देशद्रोही "चिपके रहने वाला" कहना चालू किया।
व्यक्तिगत अपशब्द सहने के बावजूद मैंने यह तर्क देना जारी रखा कि फिनेंशिअल टाइम्स के यूरोपीय यूनियन की सदस्यता को समर्थन देने और ब्रेक्सिट तथा इसके परिणामों पर रिपोर्टिंग करने में अंतर है। खुलकर पक्षपात करने की खातिर बारीक रिपोर्टिंग के सभी दिखावों को त्याग देना मेरी साहसी भावनाओं और ख़ासकर पाठकों के हितों के खिलाफ़ था। स्कॉटलैंड में एक न्यूज़रूम में ख़बरों को टटोलने से शुरू कर चार दशकों की अपनी पत्रकारिता के दौरान मैं इस विश्वास से चिपका रहा कि खरापन,संतुलन और सन्दर्भ अच्छी पत्रकारिता के क ख ग रहे हैं।
निश्चय ही "द्विपक्षवाद" के प्रति मेरी प्रतिबद्धता डिजिटल युग में कहीं ज़्यादा मजबूत हो गई। सबूतों और विचार के बीच की पत्रकारिता की सीमा रेखाएं धुंधली होती जा रही थीं। साथ ही फेसबुक जैसे जानकारियाँ मुहैया कराने वाले महारथी उभर रहे थे जो खुद को केवल प्लेटफॉर्म समझते थे लेकिन जो वास्तव में प्रकाशक थे और जो अपने एल्गोरिथम के माध्यम से इस बारे में निर्णय लेते हैं कि करोड़ों लोग हर रोज क्या सूचनाएँ देखें। पत्रकार भी मिले-जुले सन्देश भेज रहे थे। ज़्यादातर पत्रकार अभी भी अपने व्यवसाय की तटस्थता को बरकार किये हुए थे लेकिन बहुत से खुद के ब्रांड्स (ट्विटर अनुयायियों की संख्या पर आधारित) को विकसित करने के लिए इतने उत्सुक थे कि वे व्यक्तिगत विचारों और रिपोर्टिंग के बीच घालमेल करने के अत्यंत इच्छुक थे।
सोशल मीडिया पर खुली छूट का एक परिणाम यह हुआ है कि खबर देने वाले संस्थानों को अब बहुत कम ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। यह एक अच्छी बात भी हो सकती है : उदाहरण के लिए #मी टू मूवमेंट और ब्लैक लाइव्स मैटर ने संपादकों को उन कहानियों के बारे में ज़्यादा सोचने को मजबूर किया है जिन्हें वो कमीशन करते हैं और अपने संस्थानों के न्यूज़ रूम में लैंगिक संतुलन और जातीयता के आधार पर विभिन्नता के लिए जवाबदेह होते हैं।
प्रभावशाली न्यूयॉर्क टाइम्स के सम्पादकीय पन्ने पर " अश्वेत पत्रकारों के नेतृत्व में निष्पक्षता का हिसाब-किताब लगाना" नाम से छपे अपने लेख में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता पत्रकार वेज़ली लोवरी न्यूज़रूम्स में विविधता के प्रति प्रगतिशील रवैये को रिपोर्टिंग में "नैतिक साफगोई" के सवाल से जोड़ते हैं।"अश्वेत पत्रकार बरसों से दबाई गई शिकायतों को अब खुल कर उठा रहे हैं,एक ऐसे व्यवसाय से काफी समय से लंबित हिसाब-किताब मांग रहे हैं जिसकी मुख्यधारा बार-बार उनके सरोकारों को उपेक्षा करती रही है; बहुत सारे न्यूज़रूम्स में अब लेखक और संपादक भी इस बात की पुरजोर वकालत कर रहे हैं कि हमारे प्रतिष्ठानों की कार्य शैलियों और आदर्शों में क्रांतिकारी बदलाव होना चाहिए। "
दिक़्क़तें तब पैदा होती हैं जब विविधिता पर दिया जाने वाला जोर विचारों की भिन्नता पर लागू नहीं किया जाता है; जब "नैतिक साफगोई" और "पत्रकारीय ईमानदारी" के लिए किये जाने वाले आह्वान को असहिष्णुता और सेंसरशिप का नाम दे दिया जाता है। संपादकों, टिप्पणीकारों और यहां तक कि बहुत से न्यूज़ रिपोर्टरों को भी इस सब का शिकार बनाया जाता है, केवल बाहरी तत्वों द्वारा ही नहीं बल्कि सह कर्मियों द्वारा भी।
इसका ज्वलंत उदहारण रहा है न्यूयॉर्क टाइम्स के वैचारिक संपादक जेम्स बेनट को जाने के लिए मजबूर किया जाना। पिछले जून महीने में उन्हें तब प्रस्थान करना पड़ा जब वैचारिकी पृष्ठ में उन्होंने अरकंसास के रिपब्लिकन सेनेटर टॉम कॉटन के उस लेख को छापा जिसमें कॉटन ने पुलिस द्वारा की गई जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के चलते अमेरिकी शहरों में सेना तैनात करने की बात कही थी।टाइम्स के न्यूज़रूम में कुछ लोग आक्रामक हो गए, बेनट के बहुत से सहकर्मी कहने लगे कि उसने लेख छाप कर अश्वेत पत्रकारों को खतरे में डाल दिया है।
न्यूज़ रूम्स में कुछ तनाव तो पीढ़ियों में अंतर के चलते होता है, यह कहना है पत्रकार बारी वीस का जिसने बेनट को निकाले जाने के एक माह बाद टाइम्स छोड़ दिया। ट्विटर पर उसने लिखा कि इस विवाद ने "एक पक्षधरता" को सही मानने वाले युवा पत्रकारों और विचारों के अबाध लेन-देन जैसे उदार विचारों से चिपके 40 साल की उम्र से ऊपर वाले पत्रकारों के बीच की खाई को उजागर किया है।
ट्रंप के दौर में नैतिक साफगोई की इच्छा को समझा जा सकता है लेकिन सक्रिय पत्रकारिता को बढ़ावा देने से लोगों में अधिक ध्रुवीकरण होने का खतरा है, जो लोगों को ख़बरों के स्त्रोतों की खुद ही पुष्टि करने को मजबूर करेगा और इस तरह इस सिद्धांत की हत्या हो जाएगी कि निष्पक्षता ही नहीं,इंसाफ भी बचा रह सकता है। इन हालातों में यह याद रखना ज़रूरी है कि निष्पक्ष बने रहने वाला उद्देश्य अपेक्षाकृत हालिया घटना है जो "आज़ाद ख़्याल पत्रकारिता" की आत्मा है।
अमेरिकी पत्रकारिता में निष्पक्षता किसी ऊँचे आदर्श के रूप में नहीं शुरू हुई। यह एक विशुद्ध व्यावसायिक कदम था, जिसका मक़सद विज्ञापनों से ज़्यादा से ज़्यादा कमाई करना था। बहुत पहले 1920 के दशक के दौरान अख़बारों का परस्पर विलय और बंद होना शुरू हो गया। जो अखबार बचे रह गए उन्हें व्यापक स्तर पर पाठक बनाने थे क्योंकि जैसा कि On Press: The Liberal Values that Shaped the News के लेखक मैथ्यू प्रेसमैन कहते हैं "अख़बार के पन्नों में दिखाई देने वाली निष्पक्षता लक्षित पाठक वर्ग के एक बड़े हिस्से को अखबार से दूर कर देगी। "
लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद पत्रकारों ने निष्पक्षता की सीमाओं से टकराना शुरू कर दिया। सेनेटर जोय मैकार्थी के कम्युनिस्ट विरोधी दुष्प्रचार और झूठ के चलते अमेरिकी रिपोर्टर्स को समझ में आ गया कि अब वे शक्तिशाली लोगों के कथन और क्रिया-कलापों को अंकित करने वाले स्टेनोग्राफर मात्र नहीं बने रहेंगे। उन्हें सन्दर्भ और विश्लेषण देने की भी ज़रुरत है। वियतनाम युद्ध के दौरान जब अमेरिका की सैन्य गतिविधियों की गुंजाईश के बारे में केनेडी से ले कर जॉनसन और निक्सन तक एक के बाद एक अमेरिकी राष्ट्रपति जनता से बाक़ायदा झूठ बोलते रहे तब ज़ंजीरों को ढीला करने की मांग तेजी पकड़ने लगी।
न्यूज़ रिपोर्टिंग ने व्यावसायिक निर्णय लेने की मात्रा को तो लगातार बढ़ाया लेकिन व्यक्तिगत विचारों को नहीं। फिर भी Hunter S. Thompson से ले कर William F. Buckley तक ऐसे बहुत सारे पत्रकार थे जिन्होंने तटस्थता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को या तो निष्कपट या पूर्वाग्रही बता उनकी आलोचना करना जारी रखा। ना ही अकादमिक उत्तर आधुनिकतावादी सिद्धांतों के हालिया प्रभाव की उपेक्षा की जा सकती है। ये सिद्धांत दावा करते हैं कि सच केवल एक नज़रिया भर है,और यह कि विभिन्न समाज एवं इनके संभ्रांत लोग जिसे निष्पक्ष बताते हैं वो वास्तव में सत्ता के दमनात्मक ढांचे को बनाये रखने के लिए बताई गई पुराण कथाएं होती हैं या फिर अर्द्ध सत्य होते हैं।
अंत में इंटरनेट ने ना केवल विशुद्ध पत्रकारीय निष्पक्षता के पारंपरिक दावों को बर्बाद कर दिया बल्कि इसने "विश्वस्त स्त्रोत" की धारणा को नुक्सान पहुँचाया, फिर चाहे वो Walter Cronkite के रूप में सम्मानजनक टी वी एंकर हो या फिर न्यूयॉर्क टाइम्स सरीखा "विश्वसनीय अखबार"। इंटरनेट ने वितरण और प्रवेश की रुकावटों को भी हटा दिया जिसके चलते खबरों और विचारों की भरमार हो गई। मुख्यधारा के मीडिया की सूचनाओं के प्रवाह को नियंत्रित करने वाले चौकीदार की भूमिका ख़त्म हो चुकी थी। इंटरनेट द्वारा दी गई गति और विवाद सहित माउस की क्लिक से सब कुछ तेजी से चल पड़ा।
इस क्रांति के मध्य पत्रकारिता की परंपराओं और व्यवहार को तिलांजली देना प्रलोभन वाला काम था। ब्लॉग सरीखे अभिव्यक्ति के अनियंत्रित रूपों के बढ़ते असर को देख कर अनेक स्त्रोतों की मांग करना और निष्पक्षता एवं संतुलन की कोशिश करना बहुतों को विचित्र लगा। इस दौरान फिनेंशिअल टाइम्स के संपादक के रूप में "द्विपक्षधरता" के प्रति मेरी प्रतिबद्धता का इम्तहान नियमित रूप से लिया जाता रहा। मैं इस पद पर 2005 से ले कर पिछले साल तक रहा।
लेकिन मैं इस प्रस्ताव के प्रति वफ़ादार रहा हूँ और आज भी हूँ। भले ही चाहे पत्रकारिता का रूप बदल गया है और आसपास की राजनीतिक बहस तीखी हो चली है, फिर भी नए मीडिया पर भी बहुत सारे पुराने नियम लागू होने चाहिए।
डोनाल्ड जे ट्रंप पर वापिस लौटें तो ओवल ऑफिस में मेरा उनसे सामना होने के 4 साल बाद खुद राष्ट्रपति द्वारा उकसाये गए उनके समर्थको द्वारा Capitol Building को तहस-नहस करते देख कर मैं यह समझ सका कि क्यों कुछ पत्रकार का किसी कहानी के दोनों पक्षों को जानना छोड़ देने के प्रति झुकाव है। जो बाइडन की जीत के सर्टिफिकेशन को रोकने का प्रयास अमेरिका की लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर एक हमला था और इसने ट्रंप के बारे में की गई सबसे ख़राब भविष्यवाणियों में से अनेकों की पुष्टि कर दी।
लेकिन रिपोर्टिंग का मतलब किसी ख़ास नज़रिये का पुष्टिकरण करना नहीं होता है। तथ्यों और विभिन्न विचारों को एकत्रित करते समय ईमानदारी के सिद्धांत पर ज़रूर टिके रहना चाहिए। यह निष्पक्ष होने से एक पायदान नीचे है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि ईमानदारी का मतलब कठिन निष्पक्षता नहीं है। इस तरह यह वाशिंटन में विद्रोह पर निर्णय सहित नैतिक फैसलों को रोक नहीं सकती है।
"एकपक्षधरता" के सामने समस्या यह है कि ये एक कहानी के चारों ओर तथ्यों को सजाती है। एकपक्षधरता विचारधारा की पैदाइश है, इस विश्वास की पैदाइश है कि कुछ तो सच्चा है क्योंकि इसे सच्चा होना ही चाहिए। यह सोवियत रूस में पांच वर्षीय योजना जैसा नहीं है -यह ट्रम्पवाद का सार तत्व है जो 2020 के चुनाव में जीत के झूठे दावों में निहित है।
ईमानदारी के सिद्धांत, ख़ासकर समान नजरिया और दूसरे के विचारों का सम्मान, वो आदर्श हैं जिनकी ज़रुरत चुनौती भरे समय में है, ना कि ऐसे आसान समय में जब सब एक दूसरे से सहमत हैं। अगर हम एक-दूसरे को सुनने की अपनी इच्छा का त्याग कर दें तो हम प्रतिनिधि सरकार चलाने के लिए ज़रूरी विचारों के आदान-प्रदान में शामिल होने की क्षमता खो देते हैं।
इस बहस की सूचना देने और हाँ, कभी-कभी इसमें मध्यस्तता करने में पत्रकारों की बड़ी भूमिका होती है। तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग करना पाठकों का भरोसा जीतने की पूर्व शर्त है। यह एक बड़ा काम है लेकिन पत्रकारिता के उद्देश्य का ज़रूरी हिस्सा है। इसलिए द्विपक्षधरता को तिलांजलि देना उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ना है जो लोकतंत्र को पतन के रास्ते ले जायेगा।
(द फिनेंशिअल टाइम्स के पूर्व संपादक लिओनेल बारबेर The Powerful and the Damned :Private Diaries in Turbulent Times पुस्तक के लेखक हैं, उनका यह लेख पहले मूल रूप से अंग्रेजी में persuasion.community में प्रकाशित।)