पुलिस और समाज में फ़ैली हिंसा का मीडिया इस कदर करता है महिमामंडन करता कि जनता भी अब इसे ठहराने लगी जायज
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
A new book says, glorifying police violence on screen is dangerous for society. पिछले कुछ वर्षों से भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अधिकतर देशों में अचानक सशस्त्र पुलिस की तैनाती हरेक जगह बढ़ा दी गयी है। पहले पुलिस की मौजूदगी शहरों के चुनिन्दा हिस्सों में ही रहती थी और उनके पास भी डंडे के सिवा कुछ नहीं रहता था।
दिल्ली में नागरिकता क़ानून के विरुद्ध प्रदर्शन के बाद अचानक हरेक जगह थोक के भाव में सशस्त्र पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों की तैनाती कर दी गयी, और फिर कोविड 19 के नाम पर की गयी तालाबंदी के बाद तो शहरों में जनता कम और हथियारों से लैस पुलिस अधिक दिखाई देने लगी। तालाबंदी तो ख़त्म हो गयी, पर पुलिस हरेक जगह मौजूद है। पर, क्या सशस्त्र पुलिस की चारों तरफ तैनाती से शहर की जनता पहले से अधिक सुरक्षित हो गयी है?
देशभर में अपराध की संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, जाहिर है जनता पहले से अधिक असुरक्षित हो गयी है। हाल में ही कंझावला में अंजलि का मामला इसका स्पष्ट उदाहरण है, जहां कई किलोमीटर के बाद भी पुलिस के दर्शन नहीं हुए, जबकि कई लोगों ने फ़ोन पर पुलिस को सूचना दी थी। दूसरी तरफ, कल्पना कीजिये कि किसी ने प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई ट्वीट किया होता तो वह कुछ मीटर भी नहीं पार करता और पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती और मीडिया उसका पूरा इतिहास ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर प्रचारित कर रही होती।
रिचर्ड इवांस और क्लेयर फार्मर ने एक पुस्तक लिखी है – पोलिसिंग एंड फायरआर्म्स। इसे स्प्रिन्गेर ने पिछले वर्ष नवम्बर एन प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में लिखा है कि हरेक देश में सशस्त्र पुलिस की भरमार कर दी गयी है – इसमें न्यूज़ीलैण्ड और ग्रेट ब्रिटेन जैसे देश भी शामिल हो गए हैं, जहां परम्परागत तौर पर अपनी नियमित ड्यूटी के दौरान पुलिस हथियार नहीं रखती थी।
सरकारें सशस्त्र पुलिस के संख्या बढाने के लिए दलील देती हैं कि इससे जनता की सुरक्षा के साथ ही पुलिस जवानों की स्वयं की सुरक्षा भी बढ़ती है, पर इवांस और फार्मर ने बताया है कि उनके अनुसंधान से स्पष्ट होता है कि हथियार न तो पुलिस के जवानों को अधिक सुरक्षित रखते हैं और न ही जनता को अधिक सुरक्षा मिलती है। पुस्तक के अनुसार वास्तविकता अलग है – न्यूनतम पुलिस की मौजूदगी से जनता अधिक सुरक्षित रहती है।
इस पुस्तक में अमेरिका का विस्तार से वर्णन है – जहां एक तरह से सशत्र पुलिस का साम्राज्य है और पुलिस औसतन हरेक वर्ष एक हजार से अधिक निरपराधों की ह्त्या कर देती है। कभी-कभी इनके विरुद्ध आवाज उठती है, पर अधिकतर जनता सशत्र पुलिस और उनकी क्रूर हरकतों पर भरोसा करती है। इसका कारण फ़िल्में और टीवी सीरियल हैं। अधिकतर फिल्मों और अपराध से जुड़े टीवी कार्यक्रमों में पुलिस द्वारा की जाने वाली हिंसा को महिमामंडित किया जाता है।
एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2000 से 2018 के बीच अमेरिका में टेलीविज़न और फिल्मों में सशत्र पुलिस द्वारा की जाने वाली हिंसा को महिमामंडित करने वाले कार्यक्रमों और फिल्मों की संख्या तेजी से बढी है। हमारे देश का भी यही हाल है। पुलिस द्वारा की जाने वाली हिंसा या फिर गोली मारने के दृश्यों के बाद शायद ही कभी जिसे गोली मारी जाते है उसके दर्द, या पीड़ा के दृश्य दिखाए जाते हैं। दर्द और पीड़ा के दृश्य केवल तब दिखाए जाते हैं जब गोले किसी शरीफ पात्र को लगती है। ऐसी फिल्मों और धारावाहिकों को देखकर जनता भी मानने लगी है कि पुलिस किसी को भी अपराधी मानकर उस पर गोली चला सकती है, उसकी हत्या कर सकती है – और समाज की सुरक्षा के लिए यह सब जरूरी है।
इस पुस्तक के अनुसार 1990 के दशक तक फिल्मों में धूम्रपान के दृश्य भरे पड़े रहते थे, और दर्शकों ने इसे ग्लैमर, सफलता और परिष्कृत होने का पर्याय मान लिया था। इस मानसिकता के कारण धुम्रपान करने वालों की संख्या तेजी से बढी थी। पर, बाद में धुम्रपान के नुक्सान को देखते हुए इसे दृश्य कम होते चले गए या फिर एक वैधानिक चेतावनी के साथ दिखाए जाने लगे।
फिल्मों और टेलीविज़न के परदे पर हिंसा को महिमामंडित करने से पूरे समाज में ही हिंसा का बोलबाला हो चला है। यह केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की कहानी है। याद कीजिये, जब हैदराबाद में निहत्थे चार तथाकथित बलात्कारियों के साथ पुलिस ने नाटकीय एनकाउंटर किया था और कई दिनों तक सभी टीवी समाचार चैनलों ने इसका महिमामंडन किया था। जनता इस पुलिसिया जुर्म और उत्पीड़न से इतना प्रभावित थी कि हत्यारे पुलिसवालों पर फूल बरसाए जा रहे थे, उनके स्वागत में सोशल मीडिया पर तथाकथित विवेकशील लोग भी कमेन्ट कर रहे थे। ऐसे दर्शकों में बहुत सारे भविष्य में पुलिस में जाने वाले लोग होते हैं, और वे पुलिस में पहुंचकर उसी हिंसा को दोहराना चाहते हैं।
पुलिस और समाज में फ़ैली हिंसा का मीडिया द्वारा इस कदर महिमामंडन करता है कि जनता भी अब इसे जायज समझने लगी है और इसका समर्थन करने लगी है। इससे समाज का ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। विभाजित समाज हमेशा अस्थिर रहता है और इसकी स्थिरता के नाम पर सरकारें सशस्त्र पुलिस की तैनाती बढाती हैं, पर समाज न तो स्थिर और न ही सुरक्षित होता है – बल्कि पहले से भी अधिक हिंसक और अस्थिर हो जाता है। इतना जरूर होता है कि सरकारों द्वारा विरोधियों की निगरानी और मीडिया के लिए आसानी से समाचार उपलब्ध हो जाते हैं।