सोशल मीडिया पर सच से ज्यादा झूठ और हिंसा का बोलबाला, ऐसे दौर में लोकलुभावनवादी सत्ता को विस्थपित करना कठिन काम
प्रतीकात्मक फोटो
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
As per a new report by Global Coalition for Tech Justice, social media platforms are not ready to tackle spread of misinformation and it is one of the greatest challenges for the Democracy : ग्लोबल कोएलिशन फॉर टेक जस्टिस के अनुसार सोशल मीडिया मिसइनफार्मेशन, यानि गलत और भ्रामक जानकारी, के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए तैयार नहीं है, और इससे सामाजिक व्यवस्था के साथ ही चुनाव प्रणाली और प्रजातंत्र प्रभावित हो रहा है। ग्लोबल कोएलिशन फॉर टेक जस्टिस, दुनियाभर के चुनिन्दा सिविल सोसाइटी और सोशल मीडिया के कारण हिंसा का शिकार हो चुके लोगों का साझा मंच है।
इस कोएलिशन ने जुलाई में वैश्विक स्तर पर प्रमुख टेक कंपनियों – जिसमें गूगल, मेटा, एक्स, और टिकटोक शामिल हैं – को कहा है कि अगले साल दुनिया के अनेक देशों में चुनाव होने हैं, और इन चुनावों को निष्पक्ष रखने के लिए सख्त चुनाव कार्य योजना तैयार करें। यह कार्य योजना पर्याप्त मानव संसाधन और बजट के साथ वैश्विक और राष्ट्रीय – दोनों स्तरों पर – होनी चाहिए।
वर्ष 2024 में दुनिया के लगभग 50 देशों में – जिसमें भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ के अनेक देश शामिल हैं – में राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं। जाहिर है, प्रजातंत्र के वैश्विक भविष्य के सन्दर्भ में अगला वर्ष निर्णायक है। प्रजातंत्र पर पिछले कुछ वर्षों से चौतरफा प्रहार हो रहे हैं, और सोशल मीडिया प्रजातंत्र के अस्तित्व पर ही प्रबल प्रहार कर रहा है। इसमें एक साथ करोड़ों लोगों की राय बदलने की क्षमता है, इसलिए सोशल मीडिया कम्पनियों को प्रजातंत्र को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। यह प्रजातंत्र को सुरक्षित करने के साथ ही लोगों की आजादी, अधिकार और सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है।
फिलहाल सोशल मीडिया कम्पनियां गलत, हिंसक और भ्रामक समाचारों के प्रसार को रोकने में पूरी तरह असफल रही हैं, हालांकि हरेक कम्पनी इन्हें रोकने का दावा करती है। ग्लोबल कोएलिशन फॉर टेक जस्टिस के अनुसार टेक कंपनियों के लिए सबसे बड़ी समस्या अंगरेजी के अलावा दूसरे भाषाओं और बोलियों के विशेषज्ञों की है। कंटेंट मॉडरेटर, जो सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर कंटेंट की निगरानी करते हैं, केवल अंग्रेजी समझते हैं। दूसरी भाषाओं के मैसेज की संख्या बढ़ती जा रही है, पर मॉडरेटर की संख्या लगभग नगण्य है। गलत और भ्रामक समाचारों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और इनसे चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित हो रही है। इन कंपनियों को कंटेंट पर पर्याप्त निगरानी रखने के लिए इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा।
टोनी ब्लेयर इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट – रेपेल एंड रीबिल्ड: एक्सपैंडिंग द प्लेबुक अगेंस्ट पोपुलिज्म – के अनुसार सोशल मीडिया के इस दौर में लोकलुभावनवादी सत्ता को विस्थापित करना एक कठिन काम है, क्योंकि दूसरे दल या फिर नेता उतना झूठ नहीं बोल पाते जितना लोकलुभावनवादी नेता बोलते हैं, और सोशल मीडिया पर सच नहीं बल्कि झूठ और हिंसा का बोलबाला है। रिपोर्ट के अनुसार लोकलुभावनवादी सत्ता से दूसरे राजनीतिक दल उनके अंदाज में नहीं लड़ सकते, या मुकाबला कर सकते। दूसरे दलो को यदि सही में मुकाबला करना है तो फिर उन्हें अपना एक स्पष्ट एजेंडा बनाकर सोशल मीडिया से दूर रहकर जनता के बीच उतरना होगा और लोकलुभावनवादी नेताओं के विरोध पर आधारित प्रचार से बचना होगा।
साइंस एडवांसेज नामक्क जर्नल में हाल में ही एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है जो कोविड19 के दौर में फसबुक पर गलत और भ्रामक जानकारियों के प्रसार से सम्बंधित है। इसके अनुसार जब भी सोशल मीडिया और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस द्वारा गलत जानकारियों के व्यापक प्रसार की बात आती है तब उपलब्ध जानकारी और अल्गोरिथम को दोष दिया जाता है और मॉडरेशन की बात की जाती है। पर, इन सबसे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफोर्म का डिजाईन ही इनके प्रसार के लिए किया गया है। इसलिए इनके डिजाईन में ही परिवर्तन की जरूरत है, पर टेक कम्पनियाँ ऐसा नहीं करेंगीं। इन कम्पनियों का मुनाफ़ा ही इसपर निर्भर है।
ग्लोबल कोएलिशन फॉर टेक जस्टिस के एक सहयोगी, इंडियन सिविल वाच इन्टरनेशनल, के रातिक असोकन के अनुसार भारत में तो अफवाहों, हिंसा फैलाने वाली और सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न करने वाली पोस्ट को सरकारी संरक्षण प्राप्त है और मेटा जैसी टेक कम्पनियां ऐसे पोस्ट से सरकार के चहेते बन जाते हैं। उनके अनुसार इस समय एक धर्म विशेष के विरुद्ध सोशल मीडिया द्वारा दुष्प्रचार और हिंसा का एक नया दौर चलाया जा रहा है, और मेटा जैसी टेक कम्पनियां इनके प्रसार के लिए अपने ही नियमों को तोड़ रहे हैं।
सत्ताधारी बीजेपी से नजदीकियां बढाने के लिए इस तरह की सामग्री के प्रसार को रोकने के लिए टेक कम्पनियां कुछ भी नहीं कर रही हैं। दूसरी तरफ, ऐसी भड़काऊ, हिंसक और दुष्प्रचार वाली सामग्री का प्रसार सत्ताधारी बीजेपी पार्टी की चुनावी रणनीति का एक अभिन्न अंग है। सभी टेक कम्पनियां मानवाधिकार को बचाने की बात करती हैं, पर भारत में इनका मानवाधिकार कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के प्रचार पर ही सीमित रह जाता है।
दुनियाभर की वे शक्तियां, जिनका अस्तित्व दुष्प्रचार और अफवाहों पर ही टिका है, उनके लिए तो सोशल मीडिया एक अनमोल माध्यम बन गया है। इन शक्तियों ने पहले ही अनुमान लगा लिया था कि तेजी से वैश्विक होती दुनिया में अधिकतर लोग द्विविधा में हैं और ऐसे समय उनके विचारों को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। दुनियाभर के देशों में पिछले कुछ वर्षों के भीतर ही एकाएक घुर दक्षिणपंथी दलों का सरकार पर काबिज होना महज एक इत्तफाक नहीं है, यह सब सोशल मीडिया की ताकत है। आज स्थिति यह है की आप किसी घटना या फिर वक्तव्य की सत्यता को परखने का कितना भी प्रयास करें, दुष्प्रचार बढ़ता ही जाता है। सोशल मीडिया ने सामाजिक और राजनीतिक मान्यताएं पूरी तरह से बदल दी हैं। हिंसा, घृणा और झूठ जो समाज में कई परतों के भीतर छुपा था अब सामने आ रहा है और इसका समाज और सत्ता पर परिणाम भी स्पष्ट हो रहा है।