निखत सत्तार की टिप्पणी
13 मई 2020 को काबुल के एक जच्चा-बच्चा अस्पताल में मर्दों का एक जत्था घुसता है और अनेक शिशुओं व उनकी माताओं की हत्या कर देता है। भारत में मुसलमानों को रोज़ हत्या, बलात्कार, अपमान और धर्म-परिवर्तन का सामना करना पड़ता है। अप्रैल 2017 में पाकिस्तान की एक यूनिवर्सिटी के परिसर में मशाल खान नाम के एक युवा छात्र की भीड़ द्वारा हत्या कर दी जाती है।
2019 में नांगरहार में एक बम विस्फोट में जुम्मे की नमाज़ पढ़ रहे 62 नमाज़िओं की हत्या हो जाती है। इसके पहले 2002 में मक्का के एक लड़कियों के स्कूल में आग लग जाती है जिसमें इसलिए 15 जवान लड़कियां मर जाती हैं और 50 घायल हो जाती हैं क्योंकि उन्हें हांकते हुए वापस स्कूल के अंदर भेज दिया जाता है जबकि उन्होंने अपने सिर भी नहीं ढके थे।1987 में मक्का में एक प्रदर्शन के दौरान 400 से भी ज़्यादा निहत्थे तीर्थयात्री मारे गए थे। इनमे ज़्यादा संख्या ईरानियों की थी। सूची बड़ी होती जाती है।
इन सब घटनाओं में एक सच्चाई साफ़ नज़र आती है। वो ये कि क्रोध, सहानुभूति और चिंता दिखाने वाले ज़्यादातर गैर-मुस्लिम संगठन, गैर-मुस्लिम लोग और गैर-मुस्लिम देश ही थे। मुसलमानों के बीच कुल मिलाकर चुप्पी ही पसरी थी।
मानवाधिकार सम्बन्धी औपचारिक ढांचे के चलते दुनिया के लोगों के एक-दूसरे के निकट आते हुए दिखाई देने के बावजूद दुनिया लौट कर वहीं आ पहुँची है जहां 'दूसरे' के प्रति नफरत और हिंसा का अधिक बोलबाला है। यह 'दूसरा' कोई भी हो सकता है। मुसलमानों और यहूदियों के खिलाफ मज़हब समर्थित युद्ध और उत्पीड़न करते हुए ईसाईयों को 600 साल लग गए यह तय करने में कि बिना किसी खतरे के वे धर्म की जगह विज्ञान को तरजीह दे सकते हैं।
सोचे-समझे गुप्त प्रचार के माध्यम से उन्होंने उपनिवेश बनाये, मुसलमानों का मज़ाक उड़ाया, झूठी अफवाहें फैलाईं, मुस्लिम विद्वता की परम्पराओं को ध्वस्त किया और मुस्लिम समाज को कमज़ोर बनाया। 11 सितंबर के आतंकी हमले के बाद से ही इस्लामोफोबिया में इज़ाफा हुआ है, जो गुआंतनामो बे जेल में मुसलमानों को बंदी बनाने और उन्हें यातनाए देने में भी नज़र भी आया। बहुत कम मुस्लिम सरकारें थीं जो इसका विरोध करने और मुसलमानों की मदद करने आगे आईं।
मुसलमानों ने खुद को नीचे गिराने के लिए उससे भी कहीं ज़्यादा काम किया जितना उन्हें करना चाहिए था और ऐसा ज्ञान, विज्ञान, अर्थव्यवस्था और अध्यात्म आदि सभी क्षेत्रों में दिखाई देता है। विज्ञान, तर्कशास्त्र और तार्किक सोच के क्षेत्र में जो लोग कभी अगुआ हुआ करते थे, आज इन क्षेत्रों में उनका योगदान नहीं के बराबर पहुँच चुका है। 46 मुसलमान देशों का वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र में योगदान महज 1.17 फीसदी है जबकि भारत का योगदान 1.66 फीसद और स्पेन का 1.48 फीसद है।
जहाँ पहले उनके स्कूलों में बिना धर्म और नस्ल पे विचार किये सभी को शिक्षा दी जाती थी, आज वे ही स्कूल सांप्रदायिक बन चुके हैं जहां आस्था का पाठ संकीर्णता के चश्मे से पढ़ाया जाता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मुसलमानों ने प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने कदमों को पीछे खींच लिया है; खुद ही अपनी संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है और आत्म-विश्लेषण से खुद को दूर कर लिया है।
शरिया खुदा द्वारा दिखाया गया एक ऐसा रास्ता था जहां ज्ञान का प्रकाश था, जो सारे जहां से ज्ञान की खोज में निकले उत्सुकों को अपनी जिज्ञासा शांत करने के मौके देता था, जो दया, सहानुभूति, दयालुता, कृपा और खुदा की दुनिया में मौजूद हर तरह की सुंदरता के भाव से दिलों को भर देता था। लेकिन आज उसी शरिया को महत्वहीन बनाया जा रहा है, आज उसका ज़्यादातर इस्तेमाल औरतों और लैंगिक भेदभाव से जुड़े मसलों तथा ख़ातूनों को वैवाहिक ग़ुलामी देने में किया जा रहा है।
क़ुरान और पैगंबर के उपदेशों पर आधारित सदियों से चली आ रही इस्लामिक परंपरा में इंसानी ज़िंदगी को पवित्र माना गया है।
अनेक मुस्लिम विचारकों ने तकफ़ीर के चलन पर रोक लगा दी थी। तकफ़ीर का मतलब है एक मुसलमान द्वारा दूसरे मुसलमान पर मज़हब पर आस्था ना रखने का इल्ज़ाम लगाना। क़ुरान ने तो मूर्ति पूजकों को 'काफिर' कहा था लेकिन मज़हब पर आस्था रखने वाले आज किसी को भी 'काफिर' घोषित करने, उनको प्रताड़ित करने, घरों से बाहर निकाल देने और उनके घरों को तोड़ देने को आज न्यायसंगत मानने लगे हैं। ऐसा करने का सबसे आसान तरीक़ा है उन पर खुदा की निंदा करने का झूठा आरोप लगाया जाये और इतना अधिक शोर मचाया जाये कि कोर्ट भी अपराध भावना से ग्रसित होकर फ़ैसला कर दें।
राज्यों ने किसी न किसी मज़हब को मानने का खुला दावा करना शुरू कर दिया है जिसके चलते असहमति रखने वालों या किसी और मज़हब को मानने वालों को सीमित अधिकारों वाले दोयम दर्जे के नागरिक बना दिया जाता है। ऐसे में शासकों के अत्याचारों पर सवाल उठाना बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।
मुस्लिम समाजों की इस तरह की राजनीतिक और नैतिक कमज़ोरी का सबसे घातक परिणाम यह हुआ है कि खुदा के साथ किया गया मुसलमानों का करारनामा टूट गया है। यह करारनामा उस न्यायिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए किया गया था जिसे तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक कि शिकायत और समाधान का आकलन ज़्यादती का शिकार हुए व्यक्ति के नज़रिये से नहीं किया जाता, और जब तक मारूफ (अच्छाई) की दुहाई नहीं दी जाती और मुन्कर (बुराई) की ख़िलाफ़त नहीं की जाती।
इस्लाम के प्राचीन न्यायविद मारूफ की तुलना इस बात से करते हैं कि कोई व्यक्ति खुद के साथ कैसा बर्ताव होते देखना चाहेगा। मारूफ और मुन्कर की समझ किसी भी व्यक्ति की प्रकृति में समाहित होती है। किसी भी समाज के नैतिक मूल्यों की ज़िम्मेदारी खुदा उस समाज के लोगों के ही कन्धों पर डालता है और घोषित करता है:
'..... अल्ला तब तक इंसान के हालात में बदलाव नहीं लाएंगे जब तक इंसान खुद हालात बदलने की कोशिश नहीं करेंगे ....... (13:11)' यानी हिम्मत-ए-मर्दा मदद-ए-खुदा।
क़ुरान इंसानों से सच का साथ देने का आह्वान करती है फिर भले ही इसका मतलब अपने ही परिवार या अपने हित के खिलाफ जाना ही क्यों ना हो। दूसरे शब्दों में कहें तो मुसलमानों को खुद मुसलमानों द्वारा किये जा रहे अपराधों और अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए, उससे भी ज़्यादा बुलंदी से जितनी वे गैर-मुसलमान द्वारा किये गएकिसी अत्याचार के खिलाफ उठा रहे होते।
वर्तमान में, इसे सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। गैर-मुस्लिम समाज शरिया के अनुसार न्याय दे रहे हैं, मानवीय बर्ताव कर रहे हैं, उन्हें शरण दे रहें हैं जो अपने देश के आततायी शासकों द्वारा सताए गए हैं और अधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं। जैसा कि डॉक्टर खालिद अबू एल फदल कहते हैं कि यह तो ऐसा ही है जैसे 'शरिया का उल्लंघन करने के लिए कोई तकनीकी रूप से बनावटी शरिया का इस्तेमाल कर रहा हो।'
( पाकिस्तानी लेखिका निखत स्वतंत्र लेखन करती है और मज़हब से जुड़े मसलों पर विशेष रूचि रखती हैं। उनका यह लेख पाकिस्तान के अखबार डॉन से साभार लिया गया है। )