वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
केन्द्रीय क़ानून मंत्री जब भी किसी भी विषय पर बोलते हैं, तब अपनी तरफ से भरसक प्रयास करते हैं कि ऐसे प्रकांड विद्वान दिखें जिसे सब कुछ पता हो, पर आप उनके वक्तव्यों में चुटकुले का मजा ले सकते हैं। वे अक्सर प्रेस के सामने ढेर सारे कागज़ लेकर बैठते हैं और एक-एक कागज़ दूर से दिखाकर बताते हैं कि विपक्षी नेताओं ने क्या कहा था, कांग्रेस सरकार के जमाने में नीति आयोग ने क्या कहा था और दूसरे नेताओं ने क्या कहा था। कृषि कानूनों पर भी उन्होंने यही किया और तरह-तरह के कागज़ दिखाकर बताया कि ये क़ानून तो वही हैं जिसकी रूपरेखा कांग्रेस सरकार के समय तैयार की गई थी।
जाहिर है, वे बताना चाह रहे थे कि बीजेपी सरकार ने इन कानूनों को बस लागू किया है, इसका मसविदा तो मनमोहन सिंह की सरकार के समय तय हो गया है। अब आप जरा प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों की बातें भी याद कीजिये जिसमें हमेशा बताया जाता है कि आजादी के बाद से जितना भी काम हुआ है वो तो बस पिछले 6 वर्षों के दौरान ही हुआ है। इन तीन किसान कानूनों के बारे में भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि अब तक किसी सरकार ने किसान का भला कभी सोचा ही नहीं, यह क़ानून तो हम लेकर आये किसानों के भले के लिए। किसानों को भले ही इसमें भला नहीं दिखता हो, पर प्रधानमंत्री लगातार कहते हैं कि अब तक किसी सरकार ने किसानों के बारे में सोचा ही नहीं, पर रविशंकर प्रसाद बताते हैं कि यह सब तो कांग्रेस की देन है।
सरकार भले ही कानूनों को किसान के भले से जोड़ रही हो पर पूंजीवादी व्यवस्था में भला केवल का चन्द पूंजीपतियों का ही होता है। कोविड 19 का दौर ही देख लीजिये, लॉकडाउन के बाद देश की अर्थव्यवस्था डूब गई, पूरी आबादी गरीबी और बेरोजगारी में चली गई – पर अडानी, अम्बानी सरीखे पूंजीपतियों की संपत्ति में दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होती रही। ऐसा केवल भारत में नहीं हुआ बल्कि पूरी दुनिया में यही हो रहा है। 1980 के दशक से जिस पूंजीवाद के वीभत्स स्वरुप की शुरुआत मुक्त व्यापार और बाजार के नाम पर की गई थी अब उसका असर अपने चरम पर पहुँच रहा है। पूरी दुनिया गरीब हो रही है, पर कुछ हजार पूंजीपति लगातार अपनी पूंजी में इजाफा कर रहे है।
इस पूंजीवादी व्यवस्था में पहले जनता से जुड़े हरेक क्षेत्र को विनाश के कगार पर पहुचाया जाता है, और फिर जनता के फायदे गिनाकर उस क्षेत्र को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाता है और फिर पूंजीपति उससे ही मुनाफा कमाने लगते हैं। यह बात दूसरी है कि जनता का कोई भला नहीं। उदाहरण के तौर पर आप ज्वार, बाजरा, रागी जैसे मोटे अनाज को ले सकते हैं। 1970 के दशक से हरित क्रान्ति के नाम पर मोटे अनाज सामान्य जनता और यहाँ तक कि गरीबों की थाली से भी गायब हो गए। वैज्ञानिक भी चावल और गेहूं को सम्पूर्ण पोषण का आधार बताने लगे और अमीरों से लेकर गरीबों तक को अनाज के नाम पर यही मिलने लगा। कुछ दशक चावल और गेहूं के भरोसे बिताने के बाद वर्ष 2000 के बाद से अचानक मोटे अनाजों के पोषण को याद किया जाने लगा, उनकी पैदावार से पर्यावरण बचने लगा और अब यही मोटे अनाज जो गरीबों की थाली में सजाते थे, आकर्षक पैकेट में महंगी कीमत पर बाजार में आ गए, होटल और रेस्टोरेंट में ये विशेष व्यंजन की श्रेणी में पहुँच गए। अब मोटे अनाज, जिनसे कभी गरीब आबादी अपना पेट भरती थी, उन्हीं गरीबों की पहुच से दूर हो गए।
पूंजीवाद ने लगभग हरेक क्षेत्र को अपने अधिकार में कर लिया है और इसका असर भी चारों तरफ दिखता है। हरेक क्षेत्र पर चन्द पूंजीपतियों का कब्जा है। पहले की व्यवस्था अपने हुनर के साथ समाज के एक बड़े वर्ग को रोजगार देती थी। हरेक शहर/कस्बे और यहाँ तक कि गाँव में भी कपड़ा सिलने वाले, जूते बनाने वाले, अनाज भूंजने वाले, मसाले और अनाज पीसने वाले, रुई धुनने वाले और यहाँ तक कि चाकू की धार तेज करने वाले अपना विशेष स्थान और सम्मान रखते थे। अब इनमें से कोई नजर नहीं आता, इनके बदले पूरे बाजार में ब्रांड नजर आते हैं। इन सब पर उद्योगपतियों और पूंजीपतियों का कब्जा हो गया है जो विज्ञापन के बल पर अपना घटिया उत्पाद बेच रहे हैं।
पूंजीपतियों के हाथ में जाते ही बाजार से बहुत सारे लोग बाहर हो जाते हैं, और जो उत्पाद बाजार में नए चमचमाते पैक में बिकते हैं, उसका स्वास्थ्य पर गंभीर असर होता है। जिन उत्पादों का स्त्रोत ख़त्म हो रहा है, उन उत्पादों की बाजार में भरमार होने लगती है। पहले शहद निकालना एक अलग सा कारोबार था, जिसमें कुछ विशेषज्ञ श्रमिक संलग्न थे और लोगों को सामने शहद निकाल कर बेचते थे। पर, शहरीकरण की दौड़ और वनस्पतियों को नष्ट करने के बाद दुनियाभर में मधुमक्खियाँ कम होने लगीं, अनेक जगह विलुप्त भी हो गईं। दूसरी तरफ इसका बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, पूंजीपतियों ने मिलावटी शहद का एक बड़ा बाजार विकसित कर जन-स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना शुरू किया है। यही हाल, गाय के दूध और घी के साथ किया जा रहा है। गायों की संख्या तो नहीं बढी, पर इसका कारोबार कई गुना बढ़ गया है।
दुनियाभर के पूंजीपतियों ने जंगल, जमीन, पानी इत्यादि पर अधिकार जमा लिया है। अब खेती की बारी है। यह प्रयास पिछले कुछ दशकों से किया जा रहा है। आप गौर कीजिये, अब छोटे किसान खेती से गायब होते जा रहे है और सबसे अधिक कर्ज में दबे और आत्महत्या करने वाला किसानों का यही तबका है। दुनिया की जितनी कृषि भूमि है उसमें से लगभग 70 प्रतिशत कुल एक प्रतिशत लोगों के अधीन है। यह एक सोची समझी साजिश चल रही है, जिससे परम्परागत किसानों को या तो हटा दिया जाए या फिर उन्हें अपने ही खेतों में मजदूर बना दिया जाये। फिर उद्योगपति खेतों के मालिक होंगें जिन्हें सरकार किसान के तौर पर पेश करेगी और गर्व से कहेगी हमने किसानों की आय दोगुनी कर दी है।