नेतान्याहू का छठी बार PM बनना दुनिया में बिखरते लोकतंत्र की तरफ इशारा, इससे लोकतांत्रिक परम्पराएं ही नहीं पूरी दुनिया की राजनीति होगी प्रभावित
PM मोदी के साथ इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
The governments in Israel and India are attacking judiciary, but people in Israel are protesting against it. दिसम्बर 2022 में बेंजामिन नेतान्याहू एक बार फिर इजराइल के प्रधानमंत्री बन गए। इस बार जिस राजनीतिक गठबंधन ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया है उसमें सभी पुरातनपंथी और धार्मिक राजनीतिक दल शामिल हैं और इस सरकार को इजराइल के इतिहास की सबसे चरम दक्षिणपंथी सरकार बताया जा रहा है। जाहिर है, ऐसी सरकारें निरंकुश सत्ता चलाना चाहती हैं और ऐसी सरकारों को अंकुश लगाने वाले कतई पसंद नहीं आते।
इजराइल में लिखित संविधान नहीं है, इसलिए वहां सत्ता पर अंकुश लगाने का काम सर्वोच्च न्यायालय करती है। नेतान्याहू इस बार प्रधानमंत्री बनते ही सर्वोच्च न्यायालय के पर कतरना चाहते हैं और जाहिर है निरंकुश शासन चाहते हैं। इसी क्रम में दो सप्ताह पहले नेतान्याहू सरकार में क़ानून मंत्री यारी लेविन ने संसद, जिसे नेसेट कहा जाता है, में एक प्रस्ताव दिया है जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार सीमित कर दिए जायेंगे और संसद या सत्ता सर्वोपरि हो जायेगी।
इस प्रस्ताव के विरोध में पिछले 2 सप्ताह से इजराइल की राजधानी तेल अवीव में बड़े प्रदर्शन किये जा रहे हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हो रहे हैं। 21 जनवरी को तेल अवीव में इसके विरोध में एक लाख से अधिक नागरिक, लेखक, पत्रकार, कलाकार और संगीतकार के साथ ही विरोधी दलों के राजनेता भी सडकों पर उतरे। इजराइल के दूसरे बड़े शहरों – जेरुसलम, हाइफा और बीरशेबा – में भी सडकों पर प्रदर्शन किये गए। इजराइल में यह अपने तरह का अनोखा प्रदर्शन माना जा रहा है क्योंकि इसमें सभी वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हैं, जो आपसी मतभेद भुला कर देश में प्रजातंत्र की रक्षा करने एकसाथ उतरे हैं। इससे पहले इजराइल में छात्रों ने देशव्यापी प्रदर्शन किया था।
इजराइल में नेतान्याहू सरकार के प्रस्ताव के अनुसार न्याय व्यवस्था में, विशेष तौर पर सर्वोच्च न्यायालय में, बहुत सारे सुधारों की जरूरत है क्योंकि इसकी विचारधारा वामपंथी है और यह सरकार के काम में अडंगा डालती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति वर्तमान में एक कमेटी करती है, जिसमें कुछ पेशेवर लोग, अधिवक्ता, न्यायाधीश और सरकार के कुछ प्रतिनिधि हैं। नए प्रस्ताव के अनुसार सरकारी प्रतिनिधियों की संख्या न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं से अधिक की जायेगी, जिससे न्यायाधीशों की नियुक्ति पूरी तरह सत्ता के अधिक रहे।
इसी तरह नए प्रस्ताव में सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा पारित क़ानून को बदलने का अधिकार नहीं होगा, पर 120 सदस्यों वाली नेसेट, यानि संसद, 61 या अधिक वोटों से न्यायालय के किसी निर्णय को बदल सकती है। कुल मिलाकर नेतान्याहू सरकार सर्वोच्च न्यायालय को अपने पूरे अधिकार में रखना चाहती है। नेतान्याहू के करीबी क़ानून मंत्री यारी लेविन ने संसद में कहा कि सांसद चुनाव लड़कर और जीतकर नेसेट, यानी संसद, में आते हैं, पर न्यायाधीश तो नियुक्ति से आते हैं, इसलिए देश को बिना किसी रोकटोक के चलाने का अधिकार सत्ता का होना चाहिए, न कि सर्वोच्च न्यायालय का।
बेंजामिन नेतान्याहू और हमारे प्रधानमंत्री अच्छे मित्र हैं और दोनों देश अपने आजादी का 75वां वर्ष मना रहे हैं। हमारे देश में भी वर्ष 2014 से मोदी सरकार लगातार न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को अपने हाथ में रखने का प्रयत्न कर रही है और न्यायपालिका पर सार्वजनिक तौर पर हमले कर रही है। कोई न्यायपालिका को अपनी सीमा याद दिला रहा है, कोई विधायिका के निर्णयों में दखल नहीं देने के बात कर रहा है, कोई बता रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान को ही अपहरण कर लिया है और कोई इसे संवैधानिक बता रहा है।
हाल फिलहाल में देश के न्यायपालिकाओं ने, विशेष तौर पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने निर्णयों से न्याय व्यवस्था की गरिमा खो दी है, और अब सामान्य जनता को इस देश में न्याय की कहीं उम्मीद नहीं दिखाई देती है। नोट्बंदी पर आया फैसला भी उनमें से एक था। सत्ता के विरुद्ध कभी कोई फैसला ही नहीं आता, यदि ऐसा होता भी है तो फैसला अनिश्चितकाल के लिए सुरक्षित रहता है। देश की न्याय व्यवस्था को यह आकलन करना चाहिए कि सत्ता के साथ लगातार खड़े रहने के बाद भी सत्ता उसे ध्वस्त करना चाहती है।
इस क्रम में न्याय व्यवस्था जनता से इतनी दूर हो गयी है कि यहाँ जब न्यायपालिका पर हमले होते हैं तब जनता सडकों पर नहीं उतरती बल्कि खामोश खड़ी रहती है। मेनस्ट्रीम मीडिया को चमत्कार, बागेश्वर धाम, सनातन धर्म, बाबाओं और हिन्दू-मुस्लिम से कभी फुर्सत ही नहीं मिलती जो इस तरह के समाचार बता सकें।
इजराइल की सर्वोच्च अदालत में एडवोकेसी ग्रुप और विपक्ष द्वारा बेंजामिन नेतान्याहू के खिलाफ वर्ष 2020 में एक याचिका दायर की गई थी। इसमें कहा गया था कि नेतान्याहू पर भ्रष्टाचार, विश्वासघात और अनैतिक कार्यों के आरोप से सम्बंधित आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, इसलिए वे प्रधानमंत्री बनने के योग्य नहीं हैं। 11 जजों के पैनल ने सर्वसम्मति से कहा कि नेतान्याहू पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी उन्हें कानूनन प्रधानमंत्री बनाने से और इस गठबंधन को भी नहीं रोका जा सकता, पर इस बेंच ने स्पष्ट कर दिया कि नेतान्याहू को सरकार के गठन की अनुमति देने का यह मतलब कतई नहीं है कि उनपर चल रहे मुकदमों की गंभीरता कम हो जाती है। नेतान्याहू पर जो मुकदमे चल रहे हैं, वे पहले की तरह चलते रहेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के पैनेल ने स्पष्ट कर दिया कि नेतान्याहू के शासन से वर्तमान में वे खुश नहीं हैं, पर कानूनन वे इसे नहीं रोक सकते।
इजराइल की पुलिस के अनुसार उनके पास नेतान्याहू के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं। केस संख्या 1000 रिश्वत से जुडी है, इसके अनुसार नेतान्याहू लोगों से काम करने के बदले रिश्वत के तौर पर महंगे गिफ्ट वसूलते हैं। फिल्म प्रोड्यूसर अर्नों मिल्चन को जब अमेरिका सरकार ने वीसा देने से मना कर दिया तब नेतन्याहू ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए वीसा दिलवाया और बदले में अनेक वर्षों तक अत्यधिक महंगे उपहार वसूलते रहे।
केस संख्या 2000 जनता से विश्वासघात का मामला है। इसके अनुसार वे अपने रसूख से राजनैतिक फायदा उठाते रहे और काम के बदले निजी प्रतिष्ठानों को व्यावसाईक फायदा पहुंचाते रहे। इजराइल में कुछ वर्ष पहले तक एक समाचारपत्र जो सबसे अधिक बिकता था और नेतान्याहू का समर्थन करता था, उसके मालिक अमेरिका के अरबपति शेल्डन अडेल्सन हैं जो नेतान्याहू के घनिष्ठ मित्र भी थे। और बिक्री के हिसाब से चौथे नम्बर पर जो अखबार था, उसे प्रबुद्ध और स्वतंत्र विचारों वाली आबादी पढ़ती थी, पर इसमें स्वतंत्र राय प्रकाशित की जाती थी, जिसमें प्रायः नेतान्याहू की नीतियों का विरोध किया जाता था। इसके मालिक अर्नों मोजेस है, जो इजराइल के सबसे धनी लोगों में शुमार हैं।
नेतान्याहू ने अर्नों मोजेस के साथ यह डील किया कि उनका अखबार यदि केवल उनके समर्थन वाले समाचार प्रकाशित करेगा तो उनके अखबार को वे बिक्री के सन्दर्भ में पहले स्थान पर पहुंचा देंगे। अर्नों मोजेस ने जब इस डील पर हामी भरी तब नेतान्याहू ने शेल्डन अडेल्सन से सांठगाँठ कर अपने समाचारपत्र का प्रसार कम करा दिया और इसके बाद कुछ समय बाद ही अर्नों मोजेस का अखबार पहले स्थान पर पहुच गया। नेतन्याहू पर संयुक्त राष्ट्र ने वार क्राइम का भी अनेकों बार आरोप लगाया है।
इजराइल में प्रदर्शनकारियों और विपक्षी नेताओं के अनुसार नेतान्याहू का सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधिकार में रखने की कवायद अपने ऊपर चल रहे मुकदमों को निरस्त कराने का हिस्सा है। प्रदर्शनकारियों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय पर सत्ता द्वारा हमला प्रजातंत्र और मानवाधिकार पर हमला है, जिसे हम कतई वर्दाश्त नहीं कर सकते और इस तानाशाही को रोकना ही होगा। आन्दोलनकारियों का अनुमान है कि जल्दी ही इस आन्दोलन को उद्योगपतियों का भी साथ मिलेगा।
जाहिर है नेतान्याहू का छठी बार प्रधानमंत्री पद संभालना दुनिया में बिखरते लोकतंत्र की तरफ इशारा करता है, पर इससे केवल लोकतांत्रिक परम्पराएं ही प्रभावित नहीं होंगी, बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति प्रभावित होगी। दूसरी तरफ इजराइल में जो कुछ हो रहा है उससे इतना तो स्पष्ट है कि निरंकुश और कट्टर दक्षिणपंथी सरकारें हरेक संवैधानिक संस्था के साथ ही न्यायपालिका को भी अपना गुलाम रखना चाहती है।