मोदीराज में नेटबंदी का विश्वगुरु बने देश में इसकी सबसे बड़ी मार गरीब पर, कश्मीर को 2019 में हुआ नेटबंदी से 2.4 अरब डॉलर का नुकसान
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Internet shutdown disproportionately impacts poor and vulnerable. भारत इन्टरनेट बंदी का विश्वगुरु है, यहाँ हरेक छोटी बड़ी घटना की आशंका का हवाला देकर कभी भी इन्टरनेट बंद किया जा सकता है और इससे सबसे अधिक प्रभावित समाज का सबसे वंचित वर्ग होता है, जिसकी चर्चा बीजेपी नेताओं के हरेक चुनावी भाषणों में की जाती है।
हाल में ही ह्यूमन राइट्स वाच की एक नई रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2019 से 2022 के बीच भारत में कम से कम 127 बार इन्टरनेट बंदी की गयी है। इस अवधि के दौरान देश के 18 राज्यों में कम से कम एक बार इन्टरनेट बंदी की गयी है। यह सब प्रधानमंत्री के उन दावों के बिलकुल विपरीत है, जिसमें वे बार बार देश के हरेक नागरिक तक इन्टरनेट पहुंचाने की बात करते हैं और उनके प्रिय कार्यक्रमों में डिजिटल इंडिया भी है।
इन्टरनेट बंदी से रोजगार की संभावनाएं धूमिल पड़ जाती हैं, बैंकिंग सुविधा में व्यावधान पड़ता है, राशन की सुविधा प्रभावित होती है और बुनियादी सुविधाएं जनता से दूर हो जाती हैं। देश में किसी भी अन्य देश की तुलना में इन्टरनेट बंदी की जाती है, जिसे अधिकतर विशेषज्ञ गैर-कानूनी बताते हैं और एक खतरनाक परम्परा भी।
इन्टरनेट बंदी को भारत में पुलिस तंत्र का एक अभिन्न अंग बना दिया गया है, जिसका सरकार के विरोध या प्रदर्शन की आशंका के समय सबसे पहले इस्तेमाल किया जाता है। भारत को छोड़कर पूरी दुनिया में इन्टरनेट बंदी इसी भी सरकार के लिए सबसे अंतिम कदम होता है।
देश में सबसे अधिक इन्टरनेट बंदी का शिकार जम्मू और कश्मीर रहा है। कश्मीर चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में धारा 370 हटाने के बाद लगातार 550 दिनों की रिकोर्ड़तोड़ इन्टरनेट बंदी के कारण राज्य को 2.4 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और लगभग 5 लाख युवा रोजगार से वंचित रह गए। इन्टरनेट बंदी के कारण पत्रकारों का काम ठप्प हो गया, जिसका सीधा असर प्रेस की आजादी पर पड़ा। सरकार ने इन्टरनेट बंदी के दौर में पत्रकारों को सुविधा के नाम पर बड़े तामझाम से गवर्नमेंट मीडिया सेंटर स्थापित किया जिसमें 300 पत्रकारों के लिए महज 4 कम्पूटर टर्मिनल स्थापित किये गए थे।
हमारे देश में 38 इन्टरनेट बंदी तो केवल परीक्षाओं में छात्रों द्वारा की जाने वाली नक़ल को रोकने के नाम पर की गयी। 18 इन्टरनेट बंदी जातिगत हिंसा को रोकने के नाम पर और इतनी ही बंदी क़ानून व्यवस्था के नाम पर की गयी। क़ानून के अनुसार हरेक इन्टरनेट बंदी से पहले सरकारों को ऐसा आदेश समाचारपत्रों में प्रकाशित करना जरूरी है, पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक मुकदमें के दौरान इन्टरनेट बंदी वाले 18 राज्यों में से 11 राज्य ऐसा कोई विज्ञापन प्रदर्शित करने में असफल रहे, जबकि शेष राज्यों ने बंदी का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया।
यह एक विचित्र तथ्य यह है कि वर्ष 2014 के बाद से सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार हरेक सरकारी सुविधा और योजनायें ऑनलाइन कर चुकी है, या फिर करने की प्रक्रिया में है और यही सरकार इन्टरनेट बंदी के सन्दर्भ में भारत को विश्वगुरु बना चुकी है। हमारे प्रधानमंत्री जी इन्टरनेट की 5-जी सेवा बड़े तमाशे से शुरू करते हैं, इसे देश की उपलब्धि बताते हैं, बताते हैं कि इससे फ़िल्में कितने सेकंड में अपलोड हो जायेंगीं – पर इन्टरनेट सेवा बंद करने का ख़याल भी सबसे अधिक उन्हीं को आता है।
हमारे देश में न्यायालयों के आदेशों की धज्जिया कैसे खुलेआम उड़ाई जाती हैं, यह उसका सबसे बड़ा उदाहरण भी है। सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 2020 में कहा था कि इन्टरनेट सेवा नागरिकों का मौलिक अधिकार है और बिना किसी उचित कारण के इसे ठप्प नहीं किया जा सकता है, और ना ही अनिश्चित काल के लिए यह सेवा कहीं प्रतिबंधित की जा सकती है। पर, सरकारें लगातार ऐसा ही कर रही हैं।
हमारा देश दुनिया के उन चुनिन्दा 18 देशों में शामिल है, जो मोबाइल इन्टरनेट सेवा भी प्रतिबंधित करते हैं। हमारे देश में वर्ष 2012 से 2022 के बीच 683 बार इन्टरनेट बंदी की गयी है, जो दुनिया के किसी भी देश की तुलना में सर्वाधिक है। वर्ष 2022 के पहले 6 महीनों के दौरान पूरी दुनिया में किये गए इन्टरनेट बंदी के मामलों में से 85 प्रतिशत से अधिक अकेले भारत में थे।
हमारे देश में इन्टरनेट बंदी चुनावों, आंदोलनों, धार्मिक त्योहारों और यहाँ तक कि परीक्षाओं के नाम पर भी की जाती है, पर आज तक कोई भी अध्ययन यह नहीं बता पाया है कि इन्टरनेट बंदी का कोई भी असर क़ानून व्यवस्था की स्थिति पर पड़ता है। जाहिर है इन्टरनेट बंदी का उपयोग हमारे देश में सत्ता द्वारा जनता के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया जा रहा है, एक ऐसा हथियार जिसकी आवाज नहीं है पर निशाना अचूक है।